Book Title: Anekant 1945 Book 07 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ नागार्जुन और समन्तभद्र (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया ) बौद् ताकि नागार्जुन ईमाकी दूसरी शताब्दि (1८१ यदि चाहेनीसिद्धिःम्वभावविनिवर्ननस्य ते भवति । A.D)के एक प्रसिद्ध विद्वान् माने जाते हैं। इन्हें स्वाभागाग्नित्वं ममापि निहेत मिद्धम ॥१८॥ शून्यवादका पुरस्कर्ता होने का गौरव प्राप्त है। 'माध्यमिका', स्वामी समन्तभद्र प्राप्तमीमांमामे नागार्जुनकी उपर्युक "विग्रहव्यावर्ननी', 'युकिषष्टिका प्रादि तार्किक्कृतियों इनकी युक्तियोको अपनाने हुए अद्वैतका खण्डन निम्न प्रकार बनाई हुई हैं। इनमे प्रथमकी दो कृतियों तो प्रकाशित हो करने हैं:-- चुकी हैं और वे प्रायः मुलभ हैं। किन्तु युकिषष्ठिका अब नारद्वैतमिद्धिश्चन द्वैतं स्याद्धेतुमाध्ययोः । तक प्रकाशमे नहीं पाई और इस लिये उसका मिलना हेनुना चेद्विना मिद्धिन वा मात्रता न किम ॥ २६ ॥ दुर्लभ बना हुआ है। इनके सिवाय नागार्जुनकी श्रीर भी यहाँ अद्वैतके खण्डन करने के लिये ममन्नभने यही रचनाएँ सुनी जाती है, पर वे आज उपलब्ध नहीं हैं। सरणि अपनाई है जो नागार्जुनने भावक खण्डन करने पिछले दिनों जब मैं 'समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्व में प्रयुक्त की है। नागार्जुन कहते हैं कि 'हेनु भावकी वर्ती कौन ? लेस्वकी तैयारीमें लगा हुआ था, तब नागा- सिद्धि करते हो या बिना हेतुके ? हेतुमे तो भावकी सिद्धि जनकी 'माध्यमिका' और 'विग्रहम्यावर्तनी के अध्ययन नहीं हो सकती. क्योक निस्वभाव होनेसे हेतु ही प्रसिद्ध करनेका भीममे अवसर मिला। इन दोनों ग्रन्थोंके अध्य- है। बिना हेतुके भावकी मिद्धि माननेपर हमारे प्रभावकी यनने मुझे स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांमाके साथ इनका भी मिद्धि बिना हेनुके हो जाय ।' मतन्तभद्र कहते हैं कि तुलनात्मक सूचम अन्त:-परीक्षण करने के लिय विशेष रूपसे तो परत / t a प्राकर्षित एवं प्रेरित किया। मेरे हृदयमे इन दोनों ग्रन्थ- हेतु और माध्यकी अपेक्षा द्वैतक प्रसङ्गामे छूट नहीं सकोगे कारोंकी कृनियाका तुलनामक परीक्षण करने के लिये उम और यति विनातकी मिति कोगे तो ममय तीव्र इच्छा तो पैदा हो गई पर कुछ कारणकि वश मात्र द्वैत (भाव और प्रभाव मादि ) क्यो न सिद्ध हो परीन हो सकी। बादको मुझे पुन: कुछ बौद्-ग्रन्थोंके जायगा।' यहाँ. पाठक देखेंगे कि दोनों ही जगह एक ही अध्ययन करनेका मौका मिला और उस समय मेरा यह सरणि उपयोगमें लाई गई है। विचार स्थिर होगया कि 'नागार्जुन और ममन्तभद्र' शीर्षक (२) नागार्जुन विग्रहग्यावर्तिनीमे लिखते हैं--- के साथ इन दोनों नार्किकोके माहित्यिक अन्त.परीक्षणके मत ण्व निधो नाम्नि घटो गेह इत्ययं यस्मान । रूपमें एक लेख अवश्य ही लिम्बा जाना चाहिए। उमीके दृशः प्रतिपेयोऽयं मनः स्वभावस्य ते नम्मात ॥१२॥ परिणामस्वरूप आज यह लेख अपने पाठकोके मामने, समन्तभद्र हमे अपनाते हुए प्राप्तमीमाराामें जैनरष्टिये उपस्थित कर रहा हूँ प्रतिपादन करते हैं:-- (6) नागार्जुन अपनी विग्रहव्यावर्तनी में कहते हैं: द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः मतः। हेतोस्ततोन द्धिः नः म्वाभाव्यान कुनो हित हतुः। अमददोन भावस्तु स्थान विधिनिषेधयोः॥४७॥ निर्हेतुकम्य मिद्धिने चापपन्नास्य तेऽर्थम्य ।। १७ ।। नागार्जुनने जिम बातको और जिस ढंगसे पूर्वपक्षक १ देग्यो, तत्त्वमग्रहकी भूमिका LAVIII, वादन्यायमे रूपमें प्रस्तुत करके यह कहा कि 'सत्' का ही प्रतिषेध २५. A D. दिया है। होता है-असत्का नही, जिस तरह मतरूप घरमे ही सन् २ 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण १२मे यह लेख प्रकट होगया। रूप घटका ही प्रतिषेध किया जाता है-अमतका नहीं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 528