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किरण ६-१०]
क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है?
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न किया जाता--उमे छिपा लिया जाता जिसे अब प्रकट में प्रो. सा. को कोई भापत्ति नहीं जान परती । अब उन किया जा रहा? हमसे बिल्कुल स्पष्ट है कि मेरे द्वारा का विवाद अथवा प्रश्न केवल क्षुधा, पिपासा, जरा, भातक कही गई पापके पूर्वमान्यताको छोड देनेकी बात सर्वथा (ब्याधि) जन्म और अन्तक इन ६ दोषोंपर रह गया है। यथार्थ है-वह 'निमून और निराधार आक्षेप' नही। जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है। इन दोषोंके बल्कि भापका लिखना ही पूर्वापर विरुद्ध और असगत जान प्रभाव निदर्शक भी उल्लेख मैंने उसी स्वामी ममन्तभद्रके पडता है। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं।
स्वयम्भूस्तोत्रमे उपस्थित किये थे । इसपर प्रो. सा. भागे चल कर प्रो० मा.ने मेरे उत्तर लेखके निष्कर्षो कहते हैं-- को निकालते हुए उन परमं तीन प्रश्न करके अपना विचार "न्यायाचार्यजी प्राप्तमीमांसा तथा युक्त्यनुशासनमेंये उपस्थित किया है। पाठगेको स्मरण है कि मैंने अपने तो कोई एक भी ऐमा उल्लेख प्रस्तुत नही कर सके जिसमें पूर्व लेख में यह बतलाया था कि प्रो. सा.का रनकरण्ड उक मान्यताका विधान पाया जात हो। यथार्थत: यदि को स्वामी समन्तभद्र कृत न माननेमे केवल एक ही हेतु प्राप्तमीमांसाकारको प्राप्नमें उन प्रवृत्तियोंका प्रभाव अथवा भारत्ति है और वह यही कि 'उसमे दोषका जो मानना अभीष्ठ था तो उसके प्रतिपादन के लिये सबमे उपस्वरूप समझाया गया है वह साप्तमीमांमाकारके अभि- युक स्थल वही ग्रन्थ था जहां उन्होंने अप्तके ही स्वरूपकी प्रायानुसार हो ही नही सकता।" मैंने उनकी इस आपत्ति मीमांसा की है।" यहाँ यह देखकर बड़ा पाश्चर्य होता है का उस लेख में सप्रमाण ण्वं सूचम ममीक्षा साथ परिहार कि प्रो. मा० कैसा विलक्षण हेतुवाद उपस्थित करते हैं।. किया है और स्पष्ट करके यह बतलाया है कि दोषके क्या मैं उनसे पूछ सकता हूँ कि किमी ग्रन्थकारके पूरे और म्वरूप-सम्बन्धमे रत्मकरगडकार और प्राप्तमीमांपाकारका ठीक अभिप्रायको एकान्तत: उसके एक ही प्रथपरसे भिन्न अभिताय कदापि नही है। इसक समर्थन में मैंने जाना जा सकता है ! यदि नही तो भारतमीमामा परमही स्वामी समन्तभद्रकी ही प्रसिद्ध रचना स्वयम्भूस्तोत्रपरमे प्रामामायाकार स्वामी समन्तभद्र के पूरे अभिप्रायको तुवादिदोषों और उनके केवलम प्रभावको बिद्व करने जानने के लिये क्यों प्राग्रह किया जाता है और उनके ही वाले अनेक उल्लेखोंको उपस्थित किया था। प्रसन्नताकी दूसरे ग्रन्थ परसे वैसे उल्लेख उपस्थित किये जानेपर क्यों बात है कि उनसे राग, द्वेष, मोहकं माथ भय और अश्रद्धा की जाती है। ममममें नहीं पाताक प्रो. सा. ममयके प्रभावको भी केवलीम प्रो. माने मान लिया के इस प्रकारके कथनमे क्या रहस्य है। वास्तवम प्राप्तऔर हमनगह उन्होंने रत्नक ण्डम उन १ दोषोमेमे पाच मोम्याम प्राप्तके राग, द्वेषादि दोष और श्रावरणका दोषोके प्रभावको तो स्पष्टतः स्वाकार कर लिया है और प्रभाव बतला देने से ही तजन्य क्षुधादि प्रवृत्तियोका-- चिन्ता, खेद रनि विस्मय और विषाद ये प्रायः मांहकी पर्याय लोकमाधारण दोषोंका- प्रभाव सुतरा मिड हो जाता है। विशेष हैं. यह प्रकट है। अत: मोहके प्रभावमे इन दोषो १ 'श्रामस्वरूप' नामके महत्वपूर्ण प्राचान ग्रन्थमे मी जो का प्रभाव भी प्रो. सा. अस्वीकार नही कर सकते हैं। वाग्मेन स्वामी, वाचस्पति मिश्र और विद्यानन्दम भी पूर्व निद्रा दर्शनावरण कर्म उदय होती है। इसलिये केवली की रचना है, हमारे इस कथनकी रिहो जाती है। में दर्शनावरण कर्मके नाश हो जानेसे निद्राका प्रभाव भी यहां उसके उपयोगी कुछ पद्योंको दिया जाता है :प्रो. मा० को अमान्य नहीं हो सकता। विद्यानन्दके अष्ट- मोहकमारपी नटं सर्वे दोषाश्च विद्रताः । सहस्री गत उल्लेखानुसार स्वेटके प्रभाव--निः स्वेदत्वको छिन्नमूलतरोर्यद् वस्तं सैन्यमगजबत् ।। भी मापने अपने प्रस्तुत लेख (देखो, 'अनेकान्त' वर्ष कि. नष्ट छद्भस्थरिज्ञानं नष्ट केशादिवधनम् । ७८ पृ. ६२) मे ही प्राय: स्वीकार कर लिया है। इस नष्ट देहमलं कृत्स्नं नष्टे घातिचतुष्टये ॥ प्रकार अस्पष्टत . दोषोंके प्रभावको और भी आप मान नया: तुन्तृड्भयस्वेदा नष्ट प्रत्येकबोधनम् । लेते हैं । अर्थात् प्राप्त ५+७-१२ दोषोंका प्रभाव मानने नष्ट भूमिगतस्पर्श नष्ट चेन्द्रियज सुम्बम् ।।