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किरण ११-१२]
इनिहासमें भगवान महावीरका स्थान
सामग्री भरी हुई है कि इसके अध्ययनसे भारतीय इतिहास बल्कि विदेह, काशी, कौशल, मालवा, कौशाम्बी जैसे की अनेक गुत्थियां श्रासानीसे सुलझ सकती हैं।
श्रास पास के सभी इलाकोंकी बोलियो शामिल थी। भगवान न्यायशासके क्षेत्र में तो जैन विद्वानोंकी सेवायें भारत की इस उदार परिणतिसे भारत की सभी बोलियों को अपने के लिये बहुत ही मूल्यवान हैं। ईमा पूर्वकी छठी सदीम उत्कर्षमें बड़ी सहायता मिली है। इसी कारण जैनधर्म अक्षपाद गौतमने बुद्धिवाद द्वारा भौतिकोंके जडवादका भारतकं जिन जिन देशोंमें फैला अथवा जिन जिन कालोमे निराकरण करनेके जिये जिस न्यायशास्त्रको जन्म दिया था, से गुजरा, यह सदा उन्हीकी बोलियोंमे ज्ञान देना और उसे गहरे शोध और अनुसन्धान द्वारा पूरी ऊँचाई तक साहित्य सृजन करता चला गया। इसलिये जैनसाहित्यकी उठाना और उसका अध्यात्मविद्याके माथ सम्मेलन करना यह विशेषता है कि यह सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श, मागधी जैननैयायिकोंका ही काम था । इसके लिये महा० उपा० शौरसेनी महाराष्टी गुजरात, राजस्थानी, हिन्दी, तामिल, सतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे प्रकाण्ड विद्वानने जैनन्यायकी तेलगु, कनई। श्रादि भारत के उत्तर और दक्षिणुकी, पूर्व मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है, उनका कहना है कि ईसाकी और पश्चिमकी सभी पुरानी और नई भाषाश्राम लिग्वा हुश्रा पहली सदीमे होनेवाले जैनाचार्य उमास्वाति जैसे श्रध्याम मिलता है। यही एक साहित्य या है, जिससे कि हम विद्याविशारद तथा छठी सदीक सिद्धसेन दिवाकर और भारतीय भाषाओंके क्रमिक विकास का भली भांति श्रध्ययन श्राठवी सदीके अकलकदेव जैसे नैयायिक इस भूमि पर कर सकते हैं। बहुत कम हुए हैं।
उपसंसार और कृतज्ञताभारतीय भाषाओंको जैनधर्मकी देन- इस तरह भगवान महावीरने अपने श्रादर्श जीवन
और उपदेशसे जिम जैनसंस्कतिका पुनरुद्धार किया था भगवान महावीरकी दृष्टि बहुत ही उदार थी और उसने भारतीय सभ्यता, माहिन्य, कला और भाषाओं के उनका उद्देश्य प्राणीमात्रका कल्याण था, वह अपने विकास और उत्थानमे बहुत बड़ा भाग लिया है। इस सन्देशको सभी तक पहुचाना चाहते थे, इसीलिये उन्होंने भगवान महावीरका, जिसने भारत के विचारको उदारता दी, ब्राह्मण की तरह कभी किसी भाषामे ईश्वरीय भाषा होने का श्राचारको पवित्रता दी, जिमने इन्सान के गौरवको श्राग्रह नही किया। उन्होंने भाषाकी अपेक्षा सदा भावाको बढ़ाया, उसके श्रादर्शको परमात्मपदकी बुलन्दी तक अधिक महत्ता दी। उनके लिये भाषाका अपना कोई मूल्य पहँचाया, जिसने इनपान और इन्मानक भेदोंकी मिटाया, न था, उस का मूल्य इसीमे था कि वह भावोको प्रकट सभीको धर्म श्रीर स्वतन्त्रताका अधिकारी बनाया, जिसने करनेका माध्यम है। जो भाषा अधिकतर लोगोंके पास भावों भारत के बाह्य देशों तक अध्यात्म प्रदेशको पहुँचाया और को पहुँचा सके वही श्रेष्ठ है । भापाकी श्रेष्ठता उपयोगितापर उनकं सांस्कृनिक मोनाको सुधारा, भारत जितना भी गर्व निर्भर है, जातीयतापर नही । इसीलिये उन्होंने अपने करे वह सब थोड़ा है । उपदेशोंके लिये संस्कृतको माध्यम न बनाकर अर्द्धमागधी पानीपत नामकी प्राकृत भाषाको माध्यम बनाया, जो उस समय २५-४-४५ हिन्दुस्तानी भाषाकी तरह भारत के सभी पूर्वीय और मध्य ,
Winternitz-History of Indian Lit देश में ग्राम लोगों द्वारा बोली और समझी जाती थी।
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vol II-pp 591,595 इस भाषामें न केवल मगधदेशकी बोली ही शामिल थी, यह लेख २५-४-४५ को महावीर-जयन्त के अवसरपर १-देग्यो, महा० सतीशचन्द्र द्वारा १६१३मे स्याद्वादविद्यालय देहली रेडियो स्टेशन में ब्राडकास्ट किये गये लेखका काशीमें दी हुई स्पीच।
मंशोधित और परिवद्धिन रूप है।
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