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अनेकान्त
[वर्ष ७
कलिलात्मा हो चुके थे, इसीसे उनके इस विशेषणको का अवसर भी दिया है। पहले रक्खा गया है। और चूंकि उनके इस निधं नकलि- निसन्देह. इस सुपरीक्षित और सुनिर्णीत गुणोंके नारमत्व नामक गुण विशेषका बोध हमें उनकी युक्ति- स्मरणको लिये हुए मङ्गल-पद्यको शास्त्रकी आदिम रखकर शास्त्राविरोधिनी दिव्य वाणीके द्वारा होता है। इसलिये स्वामी समन्तभद्र ने भगवान वर्द्धमानके प्रति अपनी श्रद्धा, उस भारती-विभूति-संसूचक 'श्री' विशेषणको कारिकामें भक्ति, गुणज्ञता और गुण प्रीतिका बड़ा ही सुन्दर प्रदर्शन उसमे भी पहला स्थान दिया गया है।
किया है। और इस तरहसे वर्तमान धर्मतीर्थ के प्रस्तक इस प्रकार यह निबद्ध मङ्गलाचरण ग्रन्थकारमहोदय श्रीवीर-भगवानको तद्पमे - प्राप्तके उक्त तीनों गुणोस स्वामी सपन्तभद्रके उम अनुचिन्तनका परिणाम है जो ग्रन्थ विशिष्ट रूपमें-देखने तथा समझने की दूसरोंको प्रेरणा की रूप-रेखाको स्थिर करनेके अनन्तर उसके लिये अपनेको भी की है। श्रीवर्द्धमानस्वामीका आभारी माननेके रूप में उनके हृदय में इम शष्ट-पुरुषानुमोदित और कृतज्ञ-जनताभिनन्दित उदित हया है, और इसलिये उन्होंने सबसे पहले 'नमः' स्वेष्ट-फलप्रद मालावरण के अनन्तर अब स्वामी समन्तभद्र शब्द कहकर भगवान् बर्द्धमानके आगे अपना मस्तक झुका अपने अभिमन शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए उसके प्रतिपाद्य दिया है और उसके द्वारा उनके उपकारमय प्राभारका विषयकी प्रतिज्ञा करते हैं:स्मरण करते हुए अपनी अहंकृतिका परित्याग किया है।
ग्रन्थ विषय-व्यावर्णनात्मक-प्रतिज्ञा ऐसा वे मौखिकरूपसे मङ्गलाचरण करके भी कर सकते देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम । थे-उसे ग्रन्थमें निबद्ध करके उसका अङ्ग बनाने की जरूरत संसारदुःश्वतः सत्वान यो धरत्युत्तमे सुखे ।।२।। नहीं थी। परन्तु ऐसा करना उन्हे इष्ट नहीं था। वे प्राप्त 'मै उस ममीचीन धर्मका निर्देश (वर्णन) करता पुरुषोंके ऐसे स्तवनों तथा स्मरणों को कुशल परिणामोंका- हैं जो कर्मों का विनाशक है और जीवोंको संसारके पुण्य-प्रमाधक शुभभावोंका-कारण समझते थे और उनके दुःखसे-दुःखममूहस-निकाल कर उत्तम-सुख में धारण द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना प्रतिपादन करता है। करते थे। उन्होंने 'पागमां जये' जैसे पदोंके द्वारा अपनी व्याख्या-इस वाक्यमें जिम धर्मके स्वरूप-कथनकी स्तु तेनियाका लक्ष्य 'पापोंका जीतना' बतलाया है। 'देशयामि' पदके द्वारा प्रतिज्ञा की गई है उसके तीन ख़ास और इसलिये ऐसे स्तवनादिकोंमे उन्हें जो प्रारमसन्तोष विशेषण है-सबसे पहला तथा मुख्य विशेषण है 'समीचीन' होता था उस वे दूसरों को भी कराना चाहते थे और दूसरा का निवर्हग' और तीसरा 'दुखम उत्तम-मुखमें प्रमोत्कर्षकी साधनाका जो भाव उनके हृदयमे जागृत धरण'। पहला विशेषण निर्देश्य धर्मकी प्रकृतिका द्योतक होता था उसे वे दूसरोके हृदयमें भी जगाना चाहते थे। है और शेष दो उसके अनुष्ठान-फलका सामान्यतः (संक्षेपमें) ऐसी ही शुभ भावनाको लेकर उन्होंने ग्रन्थकी प्रादिमें निरूपण करने वाले हैं। किये हुए अपने मङ्गलाचरणको ग्रन्थमें निबद्ध किया है, 'कर्म' शब्द विशेषण-शून्य प्रयुक्त होनेस उममें द्रव्य
और उसके द्वारा पढने सुननेवालोंकी श्रेय-साधनामें महायक कम और भावकर्मरूपस पब प्रकारके अशुभादि कोका होते हुए उन्हें अपनी तात्कालिक मनःपरिणतिको समझने समावेश है, जिनमें रागादिक 'भावकम' और ज्ञाना
पीक मामी ममतने वरणादिक 'द्रव्यकर्म' कहलाते हैं। धर्मको कोंका निवर्हणअपने 'श्राप्तमीमामा' (देवागम) नामके दूसरे ग्रन्थमे 'स बिनाशक बतलाकर इस विशेषणके द्वारा यह सूचित किया त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक्' इत्यादि गया है कि वह वस्तुत कर्मबन्धका कारण नहीं, प्रत्युत वाक्यो के द्वारा विस्तार के माथ किया है।
४इभी बातको श्रीअमृतचंद्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायके निम्न २ देखो, स्वायम्भूस्तोत्र कारिका ११६
वाक्योमे धर्मके अलग अलग नीन अङ्गीको लेकर स्पष्ट किया ३ देखो, स्तुति विद्या (जिनशतक), पद्य न० १
है और बतलाया है कि जितने अंशमे किसीके धर्मका पद