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अनेकान्त
[वर्ष७
यस्य भवानीदासः सहोदरः पुण्यवानपि कनीयान्। आद्यस्तूदयमिहोनुजस्तथा शालिवाहनाभिख्यः । नृपसदसि लब्धिमानः मौभाग्यसुभाग्यभोगनिधिः॥१८ अपरोग्यन्तदामो नंदनु चिरं त्रयस्तनयः ।। २३ सच रायमल्लसाधुः सद्धर्मसुधाब्धिवर्द्धननवेंदुः। व विक्रमगज्यतः शरकलाभृत्तकेभसमितं । जैनक्रियास कुशलः कुशलकशिरोमणिर्जीयात् ।।१६।। ज्य मासि मिते च पंचमदिनेहवृत्तसंदर्भित।
ऊधाहीति प्रथमा तद्भार्या दानशीलसंपन्ना। काव्य काग्निवानपूर्वरसत्रयो रायमल्लोदयं । धुरि मौभाग्यवतीनां पतिव्रतासीत्कुलगरिष्ठा ॥२० जीयादारविचंद्रनारकमयं श्रीरायगल्लाह्वयं ॥ २४ "तत्पुत्रांमी[चंद्रो दक्षो नविनयशीलसंपन्नः। इति श्रीपरमाप्तपरमपुरुष चतविशति तीर्थकरसद्धमकर्मनिरनो जयताजंद्रनाराक ॥२१
गुगणानुवादचरित पं० श्रीपद्ममेविनये पं० पद्ममंदरअथ रायमल्लसाघार्मानाहीति द्वितीय भार्यासीत। विरचित र मानजिनचरितमंगलकीरीनं नाग पंचनत्कुक्षिशुक्तिगर्भ बभुः सुताः शुक्तिजाकृतयः ॥ २२ विंगः मर्गः ।। २५ ॥ ३ भविष्यदत्तमं इस प्रकार है
श्रग्सुरनरेद्रव्यूहकोटीरक' टीसच रायमल्लमाधुर्नय विनयसुशीलशालिनासततं ।
मणिगणकिरणांभा धौतपादारविदः । तनयेन्नामीचंद्राहयेन सहित: सदा जीयात् ।।
चरगजिनपतेस्न वर्द्धमानः ममिहां ४-५-६-७ ये पद्य भविष्यदत्तमे नही हैं।
प्रदिशत शिवन्तलमी गजमल्लाहाय ॥शा बन्धई, १५.७-४४
आशीर्वादः।
रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसाका कर्तृत्व
(ले०--प्रो० हीरालाल जैन एम०७०)
[गन करया में
आगे]
वहीपर एक ऐसा उल्लेख विद्यमान है और यह ठीक उसी अब हम अपनी तीमरी समस्यापर पाते हैं। न्याया- स्थल पर है जहांके पृष्टीका उन्दोने एक अन्य बानक लिये बायजीने वादिराज और प्रभाबन्द्र सम्बन्धी दो उल्लेख विशेषरूपसे उल्लेख किया है। मुगतार मा० की प्रस्तावना ऐसे दिये हैं जिनसे रनकरण्ढश्रावकाचारकी रचना ग्यारहवी के पृ०११पर वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरितके दो ऐसे शताब्दिसे पूर्वकी सिद्ध होती है। किन्तु उसका प्राप्त- श्लोक उदृत हैं जिनमें क्रमश: दवागम (पाप्तमीमांसा) नामांमाके साथ एक कर्तृत्व सिद्ध करनेके लिये उन्होंने और रनकरण्डक एव उनके क्तांनी उल्लेख है। उन
वन तुलनात्मक वाश्योंका आश्रय लिया है, पर पेमा उल्लेखोंपनये मुम्तार माने यहां यह निष्कर्ष भी निकाला कोई ग्रंथोल्लम्ब पेश नहीं किया जिसमें किसी प्रथकारद्वारा है कि "इस ग्रंथ ( पार्श्वनाथचरित) में माफ नीरसे दवागम ने स्पष्टरूपसे एक ही क्र्ताकी कृतियां कही गई हो। यह और ररनकरण्डक दोनों कर्ता स्वामी समन्तभद्रका ही मान नहीं है कि ऐसा कोई उल्लेख उन्हें उपलब्ध न हुआ सूचित किया है।" इन पकियोको देखते हुए हमें आश्चर्य हो, क्योकि विद्रद्वयं पं० जुगल किशोरजी मुख्तारकी जिम होता है कि न्यायाचार्यजीने अपने प्रस्तुत लेख में इस प्रबल प्रस्तावनापरमे उन्होंने अपनी ऐतिहासिक सामग्री ली है प्रमाणका उपयोग क्यों नहीं किया ? उसे तो उन्हें अपने