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कूर्चकोंका सम्प्रदाय (लेखक-श्री प० नाथूगम 'प्रेमी' )
अभी हाल ही कदम्ब राजवंशके दो दानपत्रोंपर मेरी और दानपत्र इमसे पाँच वर्ष पहलेका (भारमन. राज्यस्य नजर पड़ी जिनमें कूर्चकोंके मम्प्रदायका उल्लेख है। इनमें तृनीमे वर्षे) मिला है जिसमे कालवंश नामक प्रामके तीन में पहला दानपत्र' शान्तिवर्माके ज्येष्ठपुत्र राजा मृगेशवर्मा हिस्से करके पहला हिस्मा जिनेन्द्र देवके लिए, दूसरा का है। उन्होंने स्वर्गगत राजा (शान्तिवर्मा) की भक्तिमे श्वेतपट श्रमण संघके लिए और तीसरा निर्गन्ध श्रमण पजाशिका नामक नगरमें जिनालय निर्माण कराके अपनी सबके लिए दान किया गया है। उसके मूल शब्द ये हैंविजयके पाठवें वर्ष में यापनीयों निर्ग्रन्थों और कूर्चकोके अईच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवामिभ्यः भगवदहन लिये भूमि-दान किया है। दूसरा दानपत्र इमी वशके महाजिनेन्द्र देवताभ्य एको भाग., द्विनीयोई-प्रोक्तमद्धर्मकरणमहाराजा हरिवर्माका है। उन्होंने अपने राज्यके चौथे वर्षमे परस्य श्वेतपटमहाश्रमणमंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थशिवरथ नामक पितृव्यके उपदेशसे, सिंह मेनापतिके पुत्र महाश्रमणसघोपभोगायेति । मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिरकी अष्टादिकापूजाके लिए इसमें श्वेतपट (श्वेताम्बर) और निग्रन्थ श्रमणमंघ
और पर्व मघके भोजन के लिए वसुन्तवाटक नामक गाँव अलग अलग निर्दिष्ट किये गये हैं, इमलिए निर्मन्य कूर्चकोंके वारिषेणाचार्यसंघके हाथमें चन्द्रशान्तको प्रमुख श्वेताम्बर नही दिगम्बर ही प्रतीत होते हैं। तब ये कूर्चक बनाकर प्रदान किया। ये दोनों दानपत्र ताम्रपत्री पर है। और कौन होंगे?
यापनोय संघके साधु भी वे कूर्चक नहीं हो मकने । पहले दान-पत्र में यापनीय, निग्रन्थ और कृर्चक इन
क्योंकि पूर्वोक्त लेबमे ये कूर्चकोंसे भी अलग ही बतलाये नीन सम्प्रदायोके नाम हैं और दूसरेमें मिर्फ कूर्चकसम्प्र
गये हैं। प्रेमी दशामे यही कल्पना करनी पड़ती है कि दाया। दूसरेमे मालूम होता है कि इस सम्प्रदायमें 'वारि
निर्ग्रन्थ और कुर्चक दोनों ही दो जुदाजुदा दिगम्बर संप्रदाय षेणाचार्यमंघ' नामका एक संघ था, जिसके प्रधान चन्द्र
रहे होंगे। शान्त (मुनि) थे।
अब प्रश्न यह होता है कि इस कृक सम्प्रदायका पहले दान-पात्रके यापनीयाँको तो हम अब जानने स्वरूप क्या होगा? लगे हैं, और उनके विषयमें अन्यत्र बहुत कुछ लिख कूर्चक (प्राकृत 'कुच्चय') शब्दके अनेक अर्थ हैं, दर्भ,
कुशाकी मुठी, मयूरपिच्छि और दादी-मूंछ। कृची इसका
देशी रूप। कर्नाटकमे कृची कमंडलु साधुओंके उपकरणों अब रहे निग्रन्थ और कूर्चक । यद्यपि प्राचीन साहित्य
के रूपमें आमतौरम व्यवहृत होता है। इससे दानपत्रांक मे श्वेताम्बर माधुओंके लिए भी निग्रन्थ शब्द आमतौरमे
इस शब्दने पहले-पहल हमें मयूरपिच्छि रखने वाले जैन प्रयुक्त हुआ है, परन्तु हम दानपत्रमें तो उनका ग्रहण नहीं
साधुओंके ही किसी सम्प्रदायको समझने के लिए ललचाया। हो सकता। क्योंकि इन्हीं महाराज मृगेश वर्माका एक
यापनीय साधु मयूरपिच्छि रखते थे और दिगम्बर-सम्प्रदाय १ इडियन एण्टिक्वेरी जिल्द ६, पृष्ठ २४-२५ ।
के माधु भी मयूर-पिच्छि रखते हैं, परन्तु दानपत्रोंका उक २ ई. ए. जिल्द ६ पृ. ३०-३१॥
४ देवो जैनहितैसी भाग १३ अंक ७-८ में 'कदाम्ब वंशी ३ जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४१-६० ।
राजाओंके तीन दान पत्र ।'