________________
किरण १.२]
जैनकला और उसका महत्व
१५. दधिपर्ण, ५६. नन्दीवृक्ष, १७. तिलक, १८. प्राम, अपनी इन्द्राणी-सहित पंचकल्याणक-उत्सवोंमे तीर्थकरोंके ११. अशोक, २०. चम्पा, २१. वकुल (मौलमिरि), अभिषेक करने, उनके समवसरण बनाने, आदिके रूपमें २२. वेतस् (बांस), २३. धवा, २४. शालि।
अनेक सेवाएँ करते हुये प्रकट किया गया है, उसके स्वर्गजैन अनुश्रति-अनुसार ये वे वृक्ष हैं, जिनके नीचे ध्यान भवन देवगण, ऐरावत हाथी और वन-प्रायुधका भी काफी लगाते हुये वृषभ आदि सीथंकरोंने केवलज्ञान उपजाया उल्लेख किया गया है, जैनकलामे उसकी मूर्तियों और था। मालूम होता है कि ज्यों ज्यों समय बीता, ये वृक्ष चित्रोंको भी मन्दिरद्वारों और वेदियोंके आस-पास स्थान योगी महात्मायोंके ज्ञान अथवा बोधिके स्मारक होनेके दिया गया है, परन्तु जैनसाहित्य और संस्कृतिमे जैनकारण भारतीय लोगों में एक पादरकी वस्तु बन गये और कला और पाख्यानोमें जो महत्वका स्थान नाग, सुपणं, महारमाओंकी मृतियों अथवा उनके प्रतीकोके समान ही किन्नर और यक्ष देवताओंको दिया गया है वह इन्द्रको पूजनीय होगये।
प्राप्त नहीं हुआ। इसीलिये जैनमाहिग्यमें इनका उल्लेख करते हुए नाग-नागानया धार उनक अधिपति धरणन्द्र अथवा लिखा है कि ये वृक्ष वेदिका-तोरणसे एक स्तूपोंके पाम फणीन्द्रको सदा बहन्तीका परम उपासक माना गया है। उगे रहते हैं. और इनके नीचे छत्र, चमर, ध्वजा, श्रासन जब कभी अर्हन्तोंपर कोई उपसर्ग हुमा है, या जब उन श्रादि श्रष्ट प्रातिहायोसे युक्त श्रहन्तोंकी मूर्तियां स्थापित कोई भीद पड़ी है तो धरणेन्द्र अपनी पूरी शक्तिसे उनका करके सुर-असुर लोग उनकी पूजा करते है। पुरानी और महायक हुश्रा है। सातवे तीर्थकर सुपार्श्वनाथ और २३ मध्यकालीनकी जैनकलामे भी इन वृक्षोंको महन्ती मृतियों ताथकर पाश्वनाथका मृतियाक शिरोपर बहुधा जो सपफण
और उनके स्तपोके दोनों ओर खदा हा दिखलाया गया है। बने हुए मिलते हैं वे इसी बातके सूचक हैं। इसके नाग श्रार यक्ष :
अलावा जैनमृतियोंके दायें बाय सर्पफणधारी नाग लोग भी इनके अलावा जैनकलाके नाग और यक्ष भी भारतकी
खड़े हुए मिलते हैं। यक्ष और यक्षिणियों और उनके प्राचीन संस्कृति जाननेके लिये बड़े महत्त्वकी चीजें है।
अधिपति वरुण कुबेर अथवा वैश्रवणको अहंन्त-शासनका यद्यपि जैन साहित्यमें वेदोंके प्रमुख देवता इन्द्रको
मुख्य संरक्षक समझा गया है। कुबेर तीथंकरोंके गवतार अईन्तीका एक परमश्रद्धालु सेवक बतलाया गया है-उसे
से ६ मास पूर्व ही उनके भावी माता-पिताके भवनोंपर
रनवृष्टि करता हुआ बतलाया गया है। और हिमाचल (A) मच्छत्ता सपडाका मवेश्या नाणेदि उबवेया।
प्रादि पर्वतोंके ऊपर सरोवरोंके कमलोंमें रहने वाली श्री, सुर-असुर-गमन-महिया चेइयरुग्वा निगा नगणं । ६-१८
ही, धति, बुद्धि, कीर्ति, लक्ष्मी नाम वाली देवियोंको गर्भसमय (समवायाङ्ग सूत्र पृ० ३१४ अमोलकषि अनुवाद)
तीर्थकरोंकी माताओंकी सेविका कहा गया है। इनके (श्रा) मालत्तय पाढत्तय जुना माणसाइपत्तपफफला।। नच उमामझगया चेदिगरुकवा सुमोहंनि ।।
३ उत्तराध्ययन ११.२२. कल्पमत्र व्याख्या १, द्वादशानुप्रेक्षा; -त्रिलोकसार गाथा १०१३ स्वयंभूम्तोत्र, २ (अ) Epigraphica Indica-Vol II. ४ सूत्रकृताङ्गमत्र १-६-२०, पद्मपुराण ३, ३०६-३३६, Part XIV, 1894, पृ० ३११, फलक-1, फलक-२ श्रादिपुराग १८,१२-१४८; हरिवंश पुगण २२,५१-८२;
(श्रा) १३ वी शताब्दीके इस्तालास्वत कल्पसत्रके पार्वाभ्युदय ४,६४ । ताडपत्रीपर केवलशानी भगवान महावीरका एक चित्र अंकित ५ पद्मपुराण ३,१५५, श्रादिपुगण १२,८४-१..: हरिवंशहै जिसके दोनों ओर शाल वृक्षके चित्र बने हुए हैं। यह पुगगा ३७.१-३ शाल वृक्ष महावीरका चैत्यवृक्ष था, इस चित्रके लिये ६ "तन्निवासिन्यो देव्य: श्री ही धृतिकानि बुद्धिलक्ष्मयः "। देखो "उत्तर हिन्दुस्तानमे जैनधर्म-चीमनलाल एम० ए०
तत्त्वार्थसूत्र ३-१६. कृत, पृ० २५
७ श्राशावर---प्रतिष्मसारोदार ३, २३१-२३६.