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किरण १-२ ]
जैनकलाकी मूर्तियां किन्हीं प्राकृतिक शक्तियोंकी किन्हीं पुराने ऐतिकी काल्पनिक मानय। प्राकृतियां नहीं है। सब ऐतिहासक पुरुषोंकी वास्तविक मूर्तिया हैं । जैनकलाका विस्तार:
जैनकला और उसका महत्त्व
इस जैनकलाका विस्तार बहुत बडा है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतका कोई प्रान्त ऐसा नहीं जहां जैनियो के माननीय तीर्थ और अतिशय क्षेत्र मीर्थस्थल कैलाशपर्वत लेकर करनाटक तक, और गिरिनार पर्वतमे लेकर पार्श्वनाथ पर्वत तक सब ही दिशाओंमें फैले हुए हैं। ये बंगाल और बिहार, उडीमा और बुन्देलखण्ड, श्रवध श्रीर रोहेम्बर देहली और हस्तिनापुर मथुरा और बनारस, संयुक्तप्रान्त और मध्यप्रान्त, राजपूताना और मालवा, गुजरात और काठियावाद, बरार और बदादा, मैसूर और हैदराबादके सब ही इलाकों में मौजूद हैं। हरसाल लाखों यात्री इनकी बढ़ना और दर्शनार्थ दूर दूर से चलकर आते हैं।
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ये दूर दूर फैले हुए तीर्थस्थान और अतशय क्षेत्र श्रतिशय जैनकलाकी हजारो नई और पुरानी रचनाओं से भरे पड़े हैं, ये रचनाएँ यों तो सब ही दर्शनीय हैं और इतिहासके लिये अध्ययन करने योग्य हैं, परन्तु इनमें भी वे रचनायें अधिक मवाली है जो अब अपने स्थानों मौजूद न होकर केवल अनुश्रुति और साहित्यके बलपर ही मौजूद हुई जान पडती हैं | सवाल होता है कि यह रचनाएँ कहां गई ?
ये पुरानी रचनाएँ अधिकांश प्राकृतिक उपद्रव अथवा राजविवो टूट-फूटकर भूगर्भम दबी पडी हैं, इन के उद्वारके लिये जैनसंस्कृतिके पुराने केन्द्रकी पुराताधिक बोज होना बहुत जरूरी है। इन स्थानोंमें केवल मथुरा और राजगृह ही ऐसे दो स्थान हैं जिनके खण्डरातको खोद कर सरकारी पुरातत्रविभागने बहुत बड़ी जैन ऐतिहासिक मम्पत्तिका पता लगाया है। परन्तु जिस दिन यहि क्षेत्र, पयोसा, पावा, पटना, गिरिनार, कबीर, दस्तिनापुर, कन्नौज, शौर्यपुर अथवा नर्बदा नदीके किनारे-किनारे सिद्धवरकूट आदि पुराने स्थानीकी खुदाई होगी, उसदिन इससे भी अधिक कीमती ऐतिहासिक सामग्री निकलने भावना है।
इन पुरानी रचनाओंमें बहुत ऐसी हैं, जो राज
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वि'लव के कारण मुस्लिम गज्में अपने स्थानोंसे विभिन्न होम और बगेकी हमारी सामग्री बन चुकी हैं। इस सम्बन्धमें भारतकी वह पहिली मस्जिद, जो ईसाकी १२ वीं शताब्दीमे कुतबुद्दीन बादशाहने लोहेकी लाठके गिर्द देहलीमें बनाई थी, विशेष उल्लेखनीय है। इस मस्जिद में बगे स्तम्भों और उनके शिलापटपर अनेक प्रकारकी जैन मूर्तियों डिश है कि देहलीदर्शक (Delhi Gunde) से जाहिर है, अनेक जैन मन्दिरको सोदकर यहां लाई गई थी।
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इनमे बहुत सी रचनाएँ ऐसी है भी राजव जैनियों के प्रभाव हो जानेके कारण समूल अन्य सम्प्रदाय वालोंके हाथमें चली गई है। इस सम्बन्ध कोल्हापुरका प्रसिद्ध श्रम्बाबाईका मन्दिर गोदराकी प्रसिद्ध बैली माताकी मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। यह मन्दिर वास्तवनियों की माननीय देवी पद्मावतीका मन्दिर था । इसकी गुबदों और दीवारोंपर अनेक कायोत्सर्ग दिगम्बर जैन अर्हन्तोंकी मूर्तियां बनी हुई हैं। इसी प्रकार उक्कली माताकी मूर्ति श्री पार्श्वनाथकी मूर्ति है वह नग्न और कायोत्सर्ग है इसके सिरपर सर्पके फल भी लगे हैं। ये केवल उदाहरण मात्र हैं, वरना इस प्रकारके अनेक मन्दिर और मूर्तियां, चैस्य और स्तूप जो वास्तव में जैनसंस्कृतिकी कृतियां हैं, भारत के सब ही हिस्सोंमे अन्य सम्प्रदाय वालोंके अधिकार में मौजूद हैं। ये रचनाएँ यद्यपि श्रा धन्य नामों से पुकारी जाती हैं, और अन्य धर्मवालोंकी सम्पत्ति गिनी जाती हैं, परन्तु इन रचनाओोकी कारीगिरी, इनके तोरण, द्वार छत और स्तम्भेोपर लोदी हुई दिगम्बर पन्त प्रतिमाएँ इस बातकी साधी है कि ये चीजें इनलोगों की विभूति रही हैं।
इनमें बहुत सी रचनाएँ ऐसी हैं, जो आज अपने स्थानोंसे उठकर भारतके विविध अजायबघरों अथवा कलाभवनों में चली गई है। बहुतसी मिमी संग्रहालयोंमें दाखिल हो गई है। बहुत सी इधर उधर विभिन्न लोगों कब्जे में पड़ी हुई हैं।
इनमें बहुत सी रचनायें ऐसी भी हैं, जो अपने स्थानों में रहते हुए भी ज्ञात दशामें पडी हुई हैं। ये श्राज किसीके भी अधिकार मे न होकर जंगली दरिन्दों और