Book Title: Ahimsa Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 11
________________ तैयार होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि लोगोंके मनमें स्वाभाविकही दया बसी हुई है, किन्तु खेद की बात है कि जिह्वाइन्द्रिय के लालच से फिरभी अकृत्य को करते हैं अर्थात् मांसाहार में लुब्ध हो कर धर्म-कर्म से रहित हो जाते हैं, क्योंकि यदि मांसाहार करनेवाला सहस्रों दान पुण्य करे तौभी एक अभक्ष्य आहार के द्वारा समस्त अपने गुणों को दूषित करदेता है। जैसे भोजन चाहे जितना सुन्दर हो किन्तु यदि उसमें लेशमात्र भी विष पड़ जाय तो वह फिर ग्राह्य नहीं रहता, वैसेही मांसाहारी कितनेही शुभ कर्म करे तौभी वे अशुभप्रायही हैं, क्योंकि जिसके हृदय में दया का संचार नहीं है उसका हृदय हृदय नहीं किन्तु पत्थर है। मांसाहारी ईश्वरभजन, सन्ध्या आदि कोईभी धर्मकृत्य के लायक नहीं गिना जासकता, उसमें कारण यह है कि बिना स्नान के, सन्ध्या और ईश्वरपूजादि शुभकृत्य नहीं किए जाते और "मृतं स्पृशेत् स्नानमाचरेत् "इस वाक्य से मुरदे को छूकर स्नान अवश्य ही करना चाहिये। तब विचारने का समय है कि बकरा, भैंसा, मछली आदि का मांस भी मुर्दाही है, उसके खाने से स्नानशुद्धि कैसे गिनी जायगी ? क्योंकि मांसका अंश पेट से जल्दी नाश नही होता तब बाहर का स्नान क्या करलेगा ? इसी कारण से वराहपुराण में वराहजीने वसुन्धरा से अपने बत्तीस अपराधियों में से मांसाहारी को अठारहवाँ अपराधी कहा है; वहां उस प्रकरण में यह कहा है कि जो मांसाहार करके मेरी पूजा करता है वह मेरा अठारहवाँ अपराधी है । जैसे

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