Book Title: Ahimsa
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 18
________________ अहिंसा लगता है। 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा पक्का है आपको? प्रश्नकर्ता : ना। दादाश्री : तब फिर पाप कहाँ से अड़े? यह चार्ज ही नहीं होगा न! जितनी खेती आई हो उतने का निकाल करना है। वह 'फाइल' है। आ पड़ी, उस 'फाइल' का समभाव से निकाल करना है। परन्तु यदि मेरे कहे अनुसार 'मैं शुद्धात्मा हूँ' कभी भी चूके नहीं, तो चाहे जितनी दवाई डालेगा तब भी उसे छूटेगा नहीं। क्योंकि 'खुद' 'शुद्धात्मा' है। और दवाई डालनेवाला कौन? चंदूभाई है। और आपको जो दया आती हो तो 'आप' 'चंदूभाई' हो जाओ। प्रश्नकर्ता : ऐसी दवाई बनाने से, बेचने से, खरीदने से, डालने से उसे कर्म का बंध होता है या नहीं? दादाश्री : हाँ, पर वह तो दवाईयों के कारखाने जिन्होंने बनाए हैं वे सब मुझे पूछते हैं कि 'दादा, अब हमारा क्या होगा?' मैंने कहा, 'मेरे कहे अनुसार रहोगे तो आपको कुछ भी होनेवाला नहीं है।' प्रश्नकर्ता : तब फिर उसका अर्थ ऐसा हुआ कि शुद्धात्मा भाव से हिंसा की जा सकती है न? दादाश्री : हिंसा करने की बात ही नहीं है। शुद्धात्मा भाव में हिंसा होती ही नहीं। करने का कुछ भी नहीं होता न! प्रश्नकर्ता : तो फिर आचारसंहिता की दृष्टि से दोष नहीं कहलाता? दादाश्री : आचारसंहिता की दृष्टि से दोष नहीं कहलाता। आचारसंहिता कब होती है? कि आप चंदूभाई हो तब तक आचारसंहिता। तो उस दृष्टि से दोष ही कहा जाएगा। परन्तु इस 'ज्ञान' के बाद अब आप तो चंदूभाई नहीं हो, शुद्धात्मा हो गए और वह आपको निरंतर ध्यान में रहता है। मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा निरंतर हमें ध्यान रहना, वह शुक्लध्यान है। 'मैं चंदूभाई हूँ' वह अहंकारी ध्यान है। अहिंसा अपने महात्मा इतने हैं, पर किसी ने दुरुपयोग किया नहीं है। वैसे मुझे पूछते ज़रूर हैं, और फिर कहते हैं कि, 'हम काम बंद कर दें?' मैंने कहा, 'ना। काम बंद हो जाए तो बंद होने देना और बंद नहीं हो तो चलने देना।' हिंसक व्यापार प्रश्नकर्ता : यह जो काम पहले करते थे, जंतुनाशक दवाईयों का व्यापार, उस समय उसे दिमाग़ में बात नहीं बैठती थी कि यह कर्म के हिसाब से जो व्यापार मिला है, उसमें क्या हर्ज है? किसी को माँस बेचने का हो तो उसमें उसका क्या दोष? उसके तो कर्म के हिसाब में जो था वह ही आया न? दादाश्री : ऐसा है न, फिर अंदर शंका नहीं पड़ी हो तो चलता रहता। परन्तु यह शंका पडी. वह उसके पुण्य के कारण। जबरदस्त पुण्य कहलाए। नहीं तो यह जड़ता आ जाती। वहाँ कोई जीव मरे वे कम नहीं हुए, आपके ही जीव अंदर मर जाते हैं और जड़ता आती है। जागृति बंद हो जाती है, डल हो जाती है। प्रश्नकर्ता : अभी भी पुराने मित्र मुझे मिलते हैं सभी, तो सभी को ऐसा कहता हूँ कि इसमें से निकल जाओ और उन्हें पचास उदाहरण बताए कि देखो इतना ऊँचा चढा हआ नीचे गिर गया। पर फिर सभी को नहीं बैठता है दिमाग़ में! फिर ठोकर खाकर सभी वापिस निकल गए। दादाश्री : यानी कितना पाप हो, तब हिंसावाला व्यापार हाथ में आता है। ऐसा है न, इस हिंसक काम में से छूट जाएँ तो उत्तम कहलाए। दूसरे बहुत काम-धंधे होते हैं। अब एक व्यक्ति मुझे कहता है, मेरे सभी व्यापारों में से यह किराना का व्यापार बहुत फायदेवाला है। मैंने उसे समझाया कि जीवजंतु पड़ जाते हैं तब क्या करते हो, ज्वार में और बाजरी में सबमें? तब कहता है, वह तो हम क्या करें? हम छान डालते हैं। सबकुछ करते हैं। उसकी सँभाल करते हैं। पर वे रह जाएँ उसमें हम क्या करें? मैंने कहा, 'रह जाएँ उसका हमें हर्ज नहीं है, पर उन जंतुओं के पैसे आप लेते हो?

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