Book Title: Ahimsa
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ अहिंसा दादाश्री : मालिक नहीं ऐसा कोई बोलता-करता नहीं। नहीं तो अभी धौल मारे न, तो मालिक हो जाता है! गाली दें तब भी मालिक हो जाता है, तुरन्त ही सामना करता है। इसलिए हमें समझना कि मालिक हैं ये। मालिक हैं या मालिक नहीं उसका प्रमाण तुरन्त ही मिलता है न! उसका टाइटल दिख ही जाता है कि यह मालिक है या नहीं? गाली दे कि तुरन्त ही टाइटल दिखाते हैं या नहीं दिखाते? यानी देर ही नहीं लगती। बाकी ऐसे मुँह से बोलें तो क्या दिन फिरते हैं? प्रश्नकर्ता : पर ये गाड़ियों में घूमते हैं उसमें पाप नहीं है? दादाश्री : यह पाप तो, निरा ये जगत् ही पापमय है। जब इस देह का मालिक नहीं होगा, तब ही निष्पापी होगा। नहीं तो इस देह का मालिक है, तब तक सब पाप ही है। हम श्वास लेते हैं तब कितने ही जीव मर जाते हैं, और श्वास छोड़ने के साथ ही कितने ही जीव मर जाते हैं। यों ही हम चलते हैं न, तब भी कितने जीवों को हमसे धक्का लगता रहता है और जीव मरते रहते हैं। हमने ऐसे हाथ किया तब भी जीव मर जाते हैं। यों वे जीव दिखते नहीं. तब भी जीव मरते रहते हैं। इसलिए वह सब पाप ही है। पर यह देह, वह मैं नहीं, ऐसा जब भान होगा, देह का मालिकीपन नहीं होगा, तब खुद निष्पाप होगा। मैं इस देह का छब्बीस वर्ष से मालिक नहीं। इस मन का मालिक नहीं, वाणी का मालिक नहीं, मालिकीभाव के दस्तावेज ही फाड़ दिए हैं, इसलिए उसकी जिम्मेदारी ही नहीं न! इसलिए जहाँ मालिकीभाव है, वहाँ गुनाह लागू होता है। मालिकीभाव नहीं वहाँ गुनाह नहीं है। इसलिए हम तो संपूर्ण अहिंसक कहलाते हैं। क्योंकि आत्मा में ही रहते हैं। होम डिपार्टमेन्ट में ही रहते हैं और फ़ॉरेन में हाथ डालते ही नहीं। इसलिए पूरे हिंसा के सागर में संपूर्ण अहिंसक हैं। प्रश्नकर्ता : यह 'ज्ञान' लेने के बाद अहिंसक हो जाते हैं? दादाश्री : यह ज्ञान तो मैंने आपको दिया है कि यह आपको पुरुष अहिंसा बनाया है। अब हमारी आज्ञा पालने से हिंसा आपको छुएगी नहीं। आप पुरुषार्थ करो तो आपका। पुरुषार्थ करो तो पुरुषोत्तम हो जाओगे, नहीं तो पुरुष तो हो ही। इसलिए हमारी आज्ञा पालनी, वह पुरुषार्थ है। अहिंसक को हिंसा कैसे छुए? प्रश्नकर्ता : नौ कलमें जो अनुभव में लाए, उसे हिंसा बाधक ही नहीं होती? दादाश्री : हाँ, उसे भी हिंसा बाधक है। परन्तु नौ कलमें बोलें उससे तो अभी तक हो चुकी हिंसा होती है, वह धुल जाती है। पर यह जो पाँच आज्ञा पाले न उसे तो हिंसा छुए ही नहीं। हिंसा के सागर में घूमें, निरा सागर ही पूरा हिंसा का है। यह हाथ ऊँचा करें तो कितने ही जीव मर जाते हैं। केवल जीवों से ही भरा हुआ जगत् है। पर हमारी पाँच आज्ञा पालें उस घड़ी इस देह में खुद नहीं होता। और देह है वह स्थूल होने से दूसरे जीवों को दुखदायी बन पड़ता है। आत्मा सूक्ष्म होने से किसी को नुकसान करता नहीं। इसलिए हमने हमारी पुस्तक में साफ लिखा है कि हम हिंसा के सागर में संपूर्ण अहिंसक हैं। सागर है हिंसा का, उसमें हम संपूर्ण अहिंसक है। हमारा मन तो हिंसक है ही नहीं। परन्तु वाणी ज़रा हिंसक है थोड़ी जगह पर, वह टेपरिकॉर्डर है। हमें उसका मालिकीपन नहीं है। फिर भी टेपरिकॉर्डर हमारा, उसके जितना गुनाह हमें है। उसके प्रतिक्रमण हमारे होते हैं। भूल तो पहले हमारी ही थी न ! हू इज द ओनर? तब हम कहें कि वी आर नोट द ओनर। तब कहें कि पहले के ओनर हैं। आपने बीच में बेची नहीं थी, बीच में बिक गई होती तो अलग बात थी। प्रश्नकर्ता : दादा, आपकी अहिंसक वाणी से हम सब महात्मा अहिंसक बन रहे हैं। दादाश्री : हमारी आज्ञा पालो तो आप अहिंसक हो, ऐसा इतना अधिक सुंदर कहता हूँ, फिर! और वे मुश्किल हों तो मुझे कह दो, बदल देते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59