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मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द
ऊपरी कल्प गोठवणी नोंध
नियाणां
अहिंसा देहाध्यास है, तब तक सब कानून हैं और तब तक ही सब कर्म छते हैं। आत्मज्ञान होने के बाद किसी शास्त्र का कानून छूता नहीं, कर्म छूता नहीं, हिंसा या कुछ भी छूता नहीं।
प्रश्नकर्ता : अहिंसाधर्म कैसा है? स्वयंभू?
दादाश्री : स्वयंभू नहीं। परन्तु अहिंसा आत्मा का स्वभाव है और हिंसा, वह आत्मा का विभाव है। परन्तु वास्तव में स्वभाव नहीं है यह। भीतर अंदर हमेशा के लिए रहनेवाला स्वभाव नहीं है यह। क्योंकि ऐसे तो गिनने जाएँ तो सभी बहुत स्वभाव होते हैं। इसलिए ये सब द्वंद्व हैं।
इसलिए बात को ही समझने की ज़रूरत है। यह 'अक्रमविज्ञान' है। यह वीतरागों का, चौबीस तीर्थंकरों का विज्ञान है ! पर आपने सुना नहीं इसलिए आपको आश्चर्य लगता है कि ऐसा भला नये प्रकार का तो होता होगा? इसलिए भय घुस जाता है। और भय घस जाए तब फिर कार्य नहीं होता। भय छूटे तो कार्य हो न!
वह आत्मस्वरूप तो इतना सूक्ष्म है कि अग्नि के अंदर से आरपार निकल जाए तब भी कुछ न हो। बोलो अब, वहाँ पर हिंसा किस तरह छुए? यह तो खुद का स्वरूप स्थूल है ऐसा जिसे देहाध्यास स्वभाव है, वहाँ पर उसे हिंसा छए। इसलिए ऐसा होता हो. आत्मस्वरूप को हिंसा छूती हो, तब तो कोई मोक्ष ही न जाए। परन्तु मोक्ष की तो बहुत सुंदर व्यवस्था है। यह तो अभी आप जिस जगह पर बैठे हो, वहाँ रहकर, वे सभी बातें समझी नहीं जा सकतीं, खुद आत्मस्वरूप होने के बाद सब समझ में आ जाता है, विज्ञान खुल्ला हो जाता है!
जय सच्चिदानंद
धौल सिलक
: बॉस, वरिष्ठ मालिक : कालचक्र : सेटिंग, प्रबंध, व्यवस्था : अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना
करना : हथेली से मारना : राहखर्च, पूँजी : फजीता : सतही, ऊपर ऊपर से, सुपरफ्लुअस : कुढ़न, क्लेश : बेचैनी, अशांति, घबराहट : गुरजनों की कृपा और प्रसन्नता : जमापूंजी : मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन : भावुकतावाला प्रेम, लगाव
तायफ़ा
उपलक
कढ़ापा अजंपा राजीपा सिलक पोतापणुं लागणी