Book Title: Ahimsa
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 39
________________ अहिंसा अहिंसा धोना। परन्तु अनर्थ यानी आपका हेतु न हो तो ढोलना मत। अभयदान - महादान प्रश्नकर्ता : तो जैन धर्म में अभयदान को इतना अधिक महत्व क्यों दिया है? दादाश्री : अभयदान को तो सभी लोगों ने महत्व दिया है। अभयदान तो मुख्य वस्तु है। अभयदान मतलब क्या कि यहाँ चिड़ियाँ बैठी हों तो वे उड़ जाएँगी, ऐसा समझकर हमें धीरे से दूसरी तरफ से चले जाना। रात को बारह बजे आए हों और दो कुत्ते सो गए हों तो अपने बूट से वे चोंककर जाग जाएँगे, ऐसा मानकर बट पैरों में से निकालकर और धीरेधीरे घर आना चाहिए। हमसे कोई डरे, उसे मनुष्यता ही कैसे कहा जाए? बाहर कुत्ते भी हमसे नहीं डरने चाहिए। हम ऐसे पैर खटकाते हुए आएँ और कुत्ता कान ऐसे करके खड़ा हो तो हमें समझ जाना चाहिए कि ओहोहो, अभयदान चूक गए! अभयदान यानी कोई भी जीव हमसे भयभीत न हो। कहीं भी देखा है अभयदानी पुरुषों को? अभयदान तो सबसे बड़ा दान ६६ वह है बचाने का अहंकार यह तो सब ऐसा ही समझते हैं कि हम बचाते हैं इसलिए ये जीव बचते हैं। फिर अपने लोग तो कैसे हैं? घर पर माँ को गालियाँ दे रहा होता है और बाहर है तो बचाने निकला होता है! __इन लोगों को समुद्र में भेजना चाहिए। अंदर समुद्र में तो सब सब्जी-भाजी और अनाज सब उगता होगा नहीं? ये मछलियाँ खाती होंगी, वह?! तब यहाँ से हम अनाज भेजते होंगे, नहीं? क्यों चना और वे सब डालकर खिलाते नहीं हैं? तो क्या है उनका भोजन? इतनी-इतनी छोटीछोटी मछलियाँ होती हैं, उन्हें इतनी बड़ी मछलियाँ निगलती रहती हैं। इतनी बड़ी को फिर उससे बड़ी होती है, वह निगला करती है। ऐसे निगलते ही रहते हैं चैन से। और माल पैदा ही होता रहता है एक तरफ। अब वहाँ अक्कलवाले को बैठाया हो तो क्या दशा हो? जगत् में कैसी मान्यता चल रही है? 'हम बचा रहे हैं' कहेंगे और कसाई के ऊपर द्वेष करते हैं। उस कसाई से हम पूछे कि तू ऐसा नालायक व्यापार करता है?' तब वह कहे, 'क्यों साहब, मेरे व्यापार को नालायक कहते हो? मेरा तो यह बाप-दादाओं का पीढ़ियों से व्यापार चलता आया है। हमारी दुकान है यह तो।' इसलिए ऐसा कहते हैं हमें। यानी यह उनकी पुश्तैनी कहलाती है। हम कुछ बोलें तो उसे ऐसा लगता है कि यह अक्कल बिना का मनुष्य कुछ समझता नहीं।' यानी जो माँसाहार करते हैं वे ऐसा अहंकार नहीं करते कि 'हम मारेंगे और ऐसे मारेंगे।' यह तो अहिंसावाला बहुत अहंकार करता है कि 'मैं बचाता हूँ।' अरे बचानेवाले को तो घर पर नब्बे वर्ष के पिता हैं, मरने की तैयारी है, उन्हें बचाओ न! पर ऐसा कोई बचाता है? प्रश्नकर्ता : कोई नहीं बचाता। दादाश्री : तब ऐसा क्यों बोलते हो कि मैंने बचाया और मैंने ऐसा किया?! कसाई के हाथ में भी सत्ता नहीं है। मारने की सत्तावाला कोई मैं बाईस साल का था, तब कुत्ते को नहीं डरने देता था। हम निरंतर अभयदान ही देते हैं, दूसरा कुछ देते नहीं। हमारे जैसा अभयदान देना यदि कोई सीख गया तो उसका कल्याण हो जाए! भय का दान देने की तो लोगों को प्रेक्टिस पहले से ही है, नहीं? 'मैं तुझे देख लूँगा' कहेगा। तो वह अभयदान कहलाएगा या भय का दान कहलाएगा? प्रश्नकर्ता : तो इन जीवों को बचाते हैं वह अभयदान नहीं है? दादाश्री : वह तो बचानेवाले को जबरदस्त गुनाह है। वह तो खाली अहंकार करता है। भगवान ने तो इतना ही कहा था कि आप अपनी आत्मा की दया पालना। बस, इतना ही कहा हुआ है पूरे शास्त्र में कि भावदया पालना। दूसरी दया के लिए आपको नहीं कहा है। और बिना काम के हाथ में लोगे तो गुनाह होगा।

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