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अहिंसा
दादाश्री : सामना करना ही चाहिए। पर वह हमें ऐसा सामना करना नहीं है कि अपना मन बिगड़ जाए। खूब धीरे से हम कहें कि, 'भाई, मैंने आपका क्या बिगाड़ा है कि यह सब ऐसा कर रहे हो?' और अपना सौ रुपये का चुरा गया हो और हम उस पर गुस्सा हो जाएँ तो हमने उन सौ रुपयों के लिए अपना पाँच सौ रुपयों का नुकसान किया। इसलिए ऐसा सौ रुपये के लिए पाँच सौ रुपयों का नुकसान हमें नहीं करना है। इसलिए शांति से बात करनी चाहिए। गुस्सा नहीं करना चाहिए।
हिंसा का विरोध, बचाए अनुमोदना से... प्रश्नकर्ता : मानसिक दुःख देना, किसी को धोखा देना, विश्वासघात करना, चोरी करना बगैरह सूक्ष्म हिंसा मानी जाती है?
दादाश्री : वह सब हिंसा ही है। स्थूल हिंसा से भी अधिक यह हिंसा बड़ी है। उसका फल बहुत बड़ा आता है। किसी को मानसिक दुःख देना, किसी को धोखा देना, विश्वासघात करना. चोरी करनी वह सब रौद्रध्यान में जाता है। और रौद्रध्यान का फल नर्कगति है।
प्रश्नकर्ता : परन्तु उस सूक्ष्म हिंसा को ही महत्व देकर बड़ी द्रव्यहिंसा, गूंगे प्राणियों के प्रति क्रूरता, हत्या और उनके शोषण से या हिंसा से प्राप्त की गई सामग्रियाँ उपयोग करना या उन्हें प्रोत्साहन देकर बड़ी हिंसा के प्रति उदासीनता रखी जाए तो वह उचित माना जाएगा?
दादाश्री : वह उचित नहीं माना जाएगा। उसका विरोध तो होना ही चाहिए। विरोध नहीं तो आप उसकी अनुमोदना कर रहे हो, दो में से एक जगह पर हो। यदि विरोध नहीं होता तो अनुमोदना करते हो। इसीलिए चाहे जो हो या ज्ञानी हो, परन्तु उन्हें विरोध प्रदर्शित करने की ज़रूरत है। नहीं तो अनुमोदना में चले जाएँगे।
प्रश्नकर्ता : हिंसा करनेवाला कोई भी पशु-पक्षी या चाहे जो हो, तो उनके उदय में हिंसा आई हुई होती है, तो उसे रोकने के लिए हम निमित्त बन सकते हैं?
अहिंसा दादाश्री : चाहे जिनके उदय में वह आया हो और आप यदि रोकने के निमित्त नहीं बनो तो आप हिंसा की अनुमोदना करते हो। इसलिए आपको रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। और चाहे जो उदय हो, परन्तु आपको तो रोकने का प्रयत्न करना ही चाहिए।
जैसे रास्ते में कोई जा रहा हो और उसके कर्म के उदय से वह टकराया और पैर में चोट लग गई, और आप वहाँ से जा रहे हों, तो आपको उतरकर और अपने कपड़े से उसे पट्टा बाँधना चाहिए। गाड़ी में ले जाकर रख आना चाहिए। भले उसके कर्म के उदय से ऐसा हुआ हो, पर आपके भाव बताने चाहिए। नहीं तो आप उसके विरोधी भाव से बँध जाओगे और मुक्त नहीं हो पाओगे। यह जगत् ऐसा नहीं कि मुक्त कर सके।
प्रश्नकर्ता : अध्यात्म में रुचि रखनेवाले के लिए हिंसा रोकने का प्रयत्न करना ज़रूरी माना जाता है क्या? यदि ज़रूरी होता हो तो उस बारे में आप मार्गदर्शन-उपदेश-सलाह देंगे?
दादाश्री : अध्यात्म में रुचि रखते हों और हिंसा रोकने का प्रयत्न नहीं करें वे तो हिंसा की प्रेरणा की कहलाएगी। हिंसा रोकने के प्रयत्न न करें, तो हिंसा की अनुमोदना की कहलाएगी। इसलिए चाहे जो अध्यात्म हो, परन्तु हिंसा रोकने का प्रयत्न तो होना ही चाहिए।
प्रश्नकर्ता : ऐसे संयोगों में बड़ी द्रव्यहिंसा का निवारण किसलिए नहीं सूझता होगा?
दादाश्री : उस द्रव्यहिंसा के निवारण की खास ज़रूरत है। उसके लिए हम दूसरे प्रयत्न करें, अच्छी तरह सभी इकट्ठे होकर और मंडल की रचना करें और गवर्नमेन्ट में भी अपने चने हए व्यक्तियों को भेजें तो बहुत फल मिलेगा। सभी को भाव करने की ज़रूरत है, और मज़बूत भाव करने की ज़रूरत है, प्रोत्साहन देने की ज़रूरत है।
प्रश्नकर्ता : परन्तु दादा, आख़िर में तो यह सब हिसाब ही है न? दादाश्री : हाँ, हिसाब है। पर उसे हिसाब कहना है तो वह हो जाने