Book Title: Agam Suttani Satikam Part 11 Pragnapana
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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प्रज्ञापनाउपाङ्गसूत्रम्-२-१५/१/-/४२३ बेइंदियाणं भंते! कति इंदियापं०?, गो०! दोइंदिया पं०, तं०-जिझिदिए फासिंदिए, दोहंपिइंदियाणं संठाणंबाहल्लंपोहत्तंपदेसंओगाहणा यजहा ओहियाणंभणितातहाभाणियव्वा, नवरं फासिदिए हुंडसंठाणसंठिते पन्नत्तेत्ति इमो विसेसो,
एतेसिणंभंते! बेइंदियाणंजिभिदियफासिंदियाणंओगाहणट्ठयातेपदेसठ्ठयाते ओगाहणपदेसठ्ठयाते कयरेशहितो अ०४?, गो० ! सव्वत्थोव बेइंदियाणं जिभिदिए ओगाहणट्ठयाते फासिदिए ओगाहणट्ठयाते संखेजगुणे पदेसट्टयाते सव्वत्थोवे बेइंदियाणं जिब्भिदिते पएसट्टयाए फासिंदिए संखेजगुणे ओगाहणपएसट्ठयाते सव्वत्थोवे बेइंदियास्स जिंब्भिदिए ओगाहणट्ठयाते फासिंदिए ओगाहणट्ठयाते संखेजगुणे फासिंदियस्सओगाहणट्ठयातेहिंतोजिभिदिए पएसट्टयाते अनंतगुणा फासिंदिए पएसट्टयाए संखेजगुणा, बेइंदियाणं भंते ! जिभिदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा पं० ? गो० ! अनंता, एवं फासिंदियस्सवि, एवं मउयलहुयगुणावि,
एतेसिणंभंते! बेइंदियाणंजिभिदियफासिंदियाणंकक्खडगरुयगुणाणंमउयलहुयगुणाण कक्खडगुरुयगुणमउयलहुयगुणाण य कतरेरहितो अ० ४?, गो० ! सव्वत्थोवा बेइंदियाणं जिमिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अनंतगुणा, फासिंदियस्स कक्खडगरुयगुणेहिंतो तस्स चेव मउयलहुय० अनंतगुणा जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अनंतगुणा, एवं जाव चउरिदियत्ति, नवरं इंदियपरिवुदी कातव्वा, तेइंदियाणं घाणिदिए थोवे चउरिदियाणं चकिखंदिए थोवे, सेसंतं चेव ॥ ।
पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणंमणूसाण यजहा नेरइयाणं, नवरंफासिदिएछविहसंठाणसंठिते पं०, तं०-समचउरंसे निग्गोह परिमंडले सादी खुजे वामणे हुंडे ।
वाणमंमतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं
वृ. 'नेरइयाणंभंते!' इत्यादि सुगमं, नवरं 'नेरइयाणं भंते! फासिदिए किंसंठिए पन्नत्ते' इत्यादि, द्विविधं हि नैरयिकाणां शरीरं-भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च, तत्र भवधारणीयं तेषां भवस्वभावतएव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितसकलग्रीवादिरोमपक्षिशरीरवत् अतिबीभत्ससंस्थानोपेतं, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि हुंडसंस्थानमेव, तथाहि
यद्यपि ते वयमतिसुन्दरं शरीरं विकुर्विष्याम इत्यभिसन्धिना शरीरमारभन्ते तथापि तेषमत्यन्ताशुभतथाविधनामकर्मोदयादतीवाशुभतरमेवोपजायतेइति।असुरकुमारसूत्रे भवधारणीयं समचतुरस्रसंस्थानं तथाभवस्वाभाव्यात्, उत्तरवैक्रियं तु नानासंस्थितं, स्वेच्छया तस्य निष्पत्तिभावात् । पृथिव्यादिविषयाणि तु सूत्राणि सुप्रतीतान्येव । समप्रति स्पृष्टद्वारमाह
मू. (४२४) पुट्ठाई भंते ! सद्दाई सुणेति अपुट्ठाइं सदाइं सुणेति ?, गो० ! पुट्ठाइं सदाई सुणेति नो अपुट्ठाइंसदाइंसुणेति, पुट्ठाइंभंते! स्वाइंपासति अपुट्ठाइंपासति?, गो०! नो पुट्ठाई रूवाइं पासति, अपुट्ठाई रुवाइं पासति,
पुट्ठाई भंते ! गंधाइं अग्घाइ अपुट्ठाइं गंधाइं अग्घाइ?, गो० ! पुट्ठाइं गंधाई अग्घाइ नो अपुट्ठाइंअग्घाइ, एवंरसाणवि फासाणवि, नवरंरसाइंअस्साएति फासाइंपडिसंवेदेतित्ति अभिलावो कायव्यो । पविट्ठाइं भंते ! सदाइं सुणेति अपविठ्ठाइं सदाइंसुणेति ?, गो० ! पविठ्ठाइं सद्दाई सुणेति नो अपविट्ठाइं सद्दाइंसुणेति, एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविट्ठाणिवि।
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