Book Title: Agam Jyot 1967 Varsh 02
Author(s): Agmoddharak Jain Granthmala
Publisher: Agmoddharak Jain Granthmala

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Page 300
________________ पुस्तः ४-थु श्रीमहानिशीथ में भी फरमाया हैं कि इरियावाहिया किये बिना क्रिया करना नहीं, जो लोग आवश्यकादिकसूत्रोंका नाम लेकर इरियावहिया से पेश्तर सामायिक उचरनेकी कहते हैं उन्हें समझना चाहिये कि आवश्यकादिक में" एताए विहीए गन्ता तिविहेण णमित्तु साहुणो पच्छा सामाइयं करेइ. करेमि भंते ! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव साहू पज्जुवासामिति काऊगं, पच्छा इरियावहियाए पडिक्कमतिति, पच्छा आलोएत्ता वंदइ आयरियादि जहाराइणिया" (आ० वृ० हारिभद्रीया प० ८३२) ___ पच्छा सो इड्ढीपत्तो सामाइयं करेइ अणेण विहिणा-करेमि भंते ! सामाइयं सावज जोगं पञ्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामित्ति, एवं सामाइयं काउं पडिकंतो वंदित्ता पुच्छइ [आ० वृ० प० ८२२] यह जो पाठ है वह सब सामायिककी विधि पूरी होने बाद आचार्यमहाराजादि के वंदन आदि के लिये है, __इसीलिये यहां सब जगहपर इस रीतिसे सामायिक करे, पीछे इरियावहिया करके गुरु महाराज को वंदन करे, आलोचन करे, ऐसा लिखा है. यदि सामायिक की विधि होती तो वहांपर सामायिककी मुहपत्ती पडिलेहन आदि सामायिक के आदेश होते, लेकिन विधिका कुछ भी इशारा नहीं है. अतः प्रथम हरियावाहिया करके बाद में सामायिक लेना. ज्यादा विचारने की बात तो यह हैं कि इन सब पाठों से पुरानी और सबकी असली जड आवश्यकचूर्णि है, उसमें "एताए विहीए गंता तिविहेण साहुणो णमिऊण पच्छा तस्सक्खियं सामाइयं करेइ करेमि भंते ! सामाइयं दुविहं तिविहेणं

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