________________
योगोद्वहन : एक विमर्श ...155 122. उपांगसूत्र के योग एक साथ करने की प्रवृत्ति है। 123. दस प्रकीर्णक के योग में प्रथम, अन्तिम एवं पाँच तिथि के दिनों में
आयंबिल करना चाहिए। 124. सप्तसप्ततिका नामक अध्ययन के योग में क्रमश: आयंबिल-नीवि करते
हैं तथा इस अध्ययन के योग आउत्तवाणय (विशेष सजगता) पूर्वक करने
चाहिए। 125. संथारा पौरूषी करने के पहले 'देवसी' और बाद में 'राई' शब्द बोलना
चाहिए। 126. दिशावलोकन करने वाले योगवाही को अत्यन्त सावधानी पूर्वक बैठना
चाहिए। 127. वर्तमान परम्परा के अनुसार काल ग्रहण किये हों तो प्रभात में चारों
कालग्रहणों का काल प्रवेदन एक ही साथ किया जाता है। 128. पंन्यास, गणि, महानिशीथ कृतयोगी, योगानुष्ठान करवाने वाला अथवा
मंडली योग किया हुआ- इनमें से कोई भी कालप्रवेदन कर सकता है। 129. कालग्रहण लेते समय आचार्य होने चाहिए। 130. उत्तराध्ययन, आचारांग, कल्पसूत्र, नंदी, अनुयोग एवं महानिशीथ- इन
सूत्रों का योग किया हुआ साधु उपधान, मालारोपण तथा उक्त सूत्रों के योग करवाने का अधिकारी होता है, परन्तु उपस्थापना (पंच महाव्रतों का
आरोपण) गणि या आचार्य आदि ही करवा सकते हैं। 131. कालिक सूत्रों के योगोद्वहन काल में सन्ध्याकालीन क्रिया करते समय
इच्छा. संदि. भगवन्! दांडी कालमांडला पडिलेहरुं? - हे भगवन्! आपकी स्वेच्छा से दंडी एवं कालमंडल भूमि की प्रतिलेखना करूँ? यह आदेश, अनुज्ञा होने तक ही लिया जाता है और उस अवधि में दोनों समय मयूरपिच्छ का रजोहरण, पाटली, दंडी एवं कालभूमि का
प्रतिलेखन करना चाहिए। 132. योगसामाचारी के अनुसार योगानुष्ठान कराने वाला मुनि एक स्वाध्याय
प्रस्थापना करता है, परन्तु वर्तमान में योगवाही मुनियों के लिए जितनी बार कालग्रहण किया जाता हैं उतनी ही बार स्वाध्याय की प्रस्थापना की जाती है।