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158... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
स्थंडिल भूमि के गमनागमन में साथ ले जा सकते हैं। वह आचारी अन्य जोगवाहियों का संघाटक बन सकता है, फिर भले अन्य योगवाही मुनि उत्तराध्ययनसूत्र के योग करने वाले हो या भगवती गणिपद के जोगवाही हो। परन्तु इस आचारी मुनि को अपने चालु जोग में स्वयं के लिए संघाटक के रूप में अन्य आचारी की आवश्यकता जरूर रहती है। आचारी स्वयं अन्य को आहार-पानी दिलवा सकता है पर उसे कोई अन्य
आचारी आहार आदि दिलाए तो ही खपता है। 148. स्थंडिल या आहारादि के लिए गमनागमन करते समय आचारी साधु
साथ होने से पंचेन्द्रिय की आड़ नहीं गिरती है फिर इस सम्बन्ध में भी
कुछ विशेष नियम होते हैं। 149. एक साथ अनेक जोगवाही साधु-साध्वी आहार आदि के लिए जाते हों तो
उनकी परस्पर आड़ नहीं गिरती है। कुछ सूत्रों के योग में श्रुतस्कन्ध एवं अनुज्ञा दो दिन में, कुछ में समुद्देश + अनुज्ञा एक दिन में होती है। इसका
मुख्य कारण सूत्र का प्रभाव एवं ज्ञानी की तद्विषयक आज्ञा है। 150. तपागच्छीय आम्नाय के अनुसार दस प्रकीर्णकों के प्रवेश दिन में एवं मध्य
में अष्टमी-चतुर्दशी आ जाये तो उस दिन एवं अन्तिम दिन में आयंबिल
करते हैं, शेष दिन नीवि तप करते हैं। 151. परवर्ती कुछ आचार्यों के अभिमतानुसार भगवती सूत्र के 77 कालग्रहण
पूर्ण होने के बाद हरी वनस्पति ग्रहण कर सकते हैं। 152. जीत व्यवहार से आचारांग आदि सभी सूत्रों के योग में सात दिन के बाद
एक दिन वृद्धि का होता है, जैसे सूत्रकृतांग सूत्र योग के मूल दिन तीस हैं तो उसमें पाँच दिन वृद्धि के होते हैं। वृद्धि के दिन में भी क्रमश: आयंबिल एवं नीवि तप करना होता है। वृद्धि के दिन में किसी तरह की त्रुटि होने पर पुनः एक दिन बढ़ता है। वृद्धि दिन की क्रिया योग काल के मध्य या योगकाल पूर्ण होने पर कभी भी की जा सकती है। जैसे पहले दिन कालग्रहण किया हो और दूसरे दिन नहीं किया हो तो उस दिन को
वृद्धि का दिन मान सकते हैं। 153. अष्टमी-चतुर्दशी एवं पंचमी के दिन क्रमबद्ध दो आयंबिल आ रहे हों तो
उस दिन ‘पाली पलटुं' (तप क्रम का परिवर्तन) नहीं करना चाहिए।