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376... आगम अध्ययन की मौलिक विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
योगोद्वहन करने का निर्देश दिया गया है। इस प्रकार प्रकीर्णक सूत्रों की संख्या में मतभेद है।
यदि प्रचलित परम्पराओं की दृष्टि से देखा जाए तो श्वेताम्बर की लगभग सभी आम्नायों में योगोद्वहन क्रिया जीवन्त है। आचार्य गुणसागरसूरी, साध्वी सिद्धान्तरसाजी आदि के साथ हुई चर्चा के अनुसार अचलगच्छ, पायच्छंदगच्छ, त्रिस्तुतिकगच्छ में भी योगतप विधि का प्रचलन है और इनमें तपागच्छ परम्परा के अनुसार यह क्रिया-विधि की जाती है । परन्तु वर्तमान में दशवैकालिक आदि कुछ सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों के योग तप की परिपाटी लुप्त प्रायः हो गई है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा आगम अध्ययन हेतु योगोद्वहन को आवश्यक नहीं मानती है।
दिगम्बर परम्परा आगम सूत्रों का अभाव मानती है यद्यपि षट्खण्डागम आदि श्रेष्ठ ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए स्वाध्याय स्थापन एवं स्वाध्याय निष्ठापन की विधि की जाती है। इसी के साथ विशिष्ट शास्त्रों के प्रारम्भ एवं समापन पर उपवासादि तप करने सम्बन्धी भी स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होते हैं।
मूलाचार में कहा गया है कि बारह अंग, चौदहपूर्व, स्कन्ध-वस्तु, प्राभृतप्राभृतक, देश प्राभृत-प्राभृत आदि ग्रन्थों में से एक- एक का अध्ययन प्रारम्भ करने में अर्थात अंग या बारह अंगों में से किसी एक के उद्देश - अध्ययन के प्रारम्भ में, समुद्देश- उस ग्रन्थ के अध्ययन की समाप्ति में और अनुज्ञा-गुरु से उस विषय
अध्यापन की आज्ञा लेने पर पाँच उपवास या पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए। अनुज्ञा में पाँच उपवास या पाँच कायोत्सर्ग रूप प्रायश्चित्त किया जाता है 1 28
भावार्थ यह है कि आगम अभ्यासी शिष्य को अंग का अध्ययन प्रारम्भ करने, पूर्ण करने एवं तद्विषयक गुर्वानुमति प्राप्त करने के उद्देश्य से पाँच उपवास या पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए । इसी भाँति पूर्वग्रन्थ, वस्तुग्रन्थ, प्राभृत ग्रन्थ, प्राभृत-प्राभृत ग्रन्थ- इनमें से किसी भी ग्रन्थ का प्रारम्भ, समापन एवं गुर्वाज्ञा ग्रहण के निमित्त पूर्ववत पाँच-पाँच उपवास या पाँच-पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए।
यदि वैदिक एवं बौद्ध परम्परा के परिप्रेक्ष्य में कहा जाए तो उनमें इस तरह के अध्ययन-अध्यापन ( योग तप) विधि का सर्वथा अभाव है क्योंकि तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में इस विषयक कोई उल्लेख पढ़ने में नहीं आया है।