Book Title: Agam 38 Chhed 05 Jitkalpa Sutra Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Punyavijay Publisher: Babalchand Keshavlal Modi View full book textPage 9
________________ चार प्रकारनी प्रयोगमतिसंपदा चार प्रकारनी संग्रहपरिज्ञासंपदा प्रायश्चित्तनां छत्रीश स्थानो चार विनयनी प्रतिपत्तिओ चार प्रकारे आचारविनय चार प्रकारे श्रुतविनय चार प्रकारे विक्षेपणविनय चार प्रकारे दोषनिर्घातविनय आगमव्यवहारी ' आलोचना' ना दश गुणो प्रायश्चित्त आपनार योग्य ज्ञानिओना अभाव थये प्रायश्चित्त केम संभवे ? एवो शिष्यनो प्रश्न अने आचार्यनो उत्तर दश प्रकारे प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त देवानो विभाग प्रायश्चित्तना करनाराओनुं अस्तित्व सापेक्षपणे प्रायश्चित्त देवामां लाभ अने निरपेक्षपणे प्रायश्चित्त देवामां अलाभ चारित्रना अस्तित्वनी सिद्धि निर्यापकोनो अव्यवच्छेइ भक्तपरिज्ञानो विधि निर्व्याघात अने सव्याघात एवी सपराक्रमभक्तपरिज्ञानुं स्वरूप द्वारगाथाओ गणनिस्सरणद्वार श्रितिद्वार संलेखनाद्वार अगीतद्वार असं विग्नद्वार एकद्वार Jain Education International For Private Personal Use Only १९२-९७ १९८-२०६ २०७-११ १९ १९ १९ २० ૨૦ २१ २१ ૨૨ २१२-१३ २१४-२२ २२३-२५ २२६-३३ २३४-४१ २४२-५४ २४५ २५५-६२ २६३-७३ २७४ २७५-९० २९१-९९ ३००-११ ३१२-१८ ३१९-२१ ३२२-५११ ३२७ ३२७-३१ ३३२-३७ ३३८ ४० ३४१-५५ ३५६-६९ ३७०-७७ ३७८-८० १७ १८ २३ २३ २४ २४ २६ २६ २७ २८ २८ २९ २९ २९ ३० ३० ३१ ३२ ३३ RAWAW www.jainelibrary.orgPage Navigation
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