Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Author(s): Manikmuni
Publisher: Sobhagmal Harkavat Ajmer

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Page 5
________________ (२) में अधिक पुण्य प्रकृति राजाओं में चक्रवर्ती के समान तीर्थकर की हों होती है और वे आयुष पूर्ण होने तक उपदेश देने को फिरते रहते हैं. महावीर प्रभु अंतिम तीर्थकर इस जमाने में हुवे है और हमारे उपर उन का ही उपकार है दिवाली पर्व उनके निर्वाण ( मोक्ष ) काल से शरू हुवा है इसलिये उन्ह का चरित्र विस्तार से दिया है बाद में उनसे पहिले पार्श्वनाथ और उनके पहिले नेमिनाथ चरित्र और २० तीर्थंकरों का चरित्र ग्रंथ वढने के भय से समयान्तर बताकर इस जमाने में व्यवहार बताने वाले प्रथम धर्मोपदेष्टा ऋषभदेव प्रभु का चरित्र दिया है क्योंकि सब कलायें हुन्नर राज्य रीति साधुता धर्मोपदेश वगैरः सब उन्होंने प्रथम बताये हैं. इस कल्प सूत्र के नव विभाग किये हैं जिससे वांचने वाले वा सुनने वालों को सुगमता होती है, अन्याचार्य ज्यादा विभाग भी करते हैं मुझे जिसका ज्यादा परिचय है वो सुवोधिका टीका विनय विजय महाराज की है ऐसी अनेक टीकाएं संस्कृत गुजराती प्रचलित है जिससे कल्प सूत्र का गहन अर्थ समझ में आवे, मैं निःगंक पणे कह सकता हूं कि यह कार्य एक महान संस्कृतज्ञ हिंदी भाषा जानने वाले का था किंतु ऐसे संयोग शोधने पर भी तीन वर्ष तक राह देखी तो भी कोई ने उद्यम पूरा न किया जिससे मैंने यह किया है और उसमें श्रावकों की मदत बहुत ली है और अजमेर के श्रावक समाज इसके लिये धन्यवाद के योग्य है किंतु कोई भी त्रुटी रही हो तो उनका दोष नहीं है किंतु मेरी गुजराती भाषा, संस्कृत का कम ज्ञान और दूसरे पंडित वा साधुओं की मदद कम मिली है ये ही मुख्य कारण है कारण पड़ने पर लक्ष्मी वल्लभी कल्प किरणावलि और कच्छी संघ का छपाए हुए गुजराती भाषांतर की मददली है. .. कागज का भाव वढने से और जैनों में ज्ञान तरफ भाव मंद होने से पूरी मदद की बेटी से और लेने वालों की आर्थिक स्थिति विचार कर थोड़े में ग्रंथ को समाप्त किया है तो भी मूल सूत्र साथ होने से विद्वान को वा विद्वान की रक्षा में रहकर पढने वालों को इच्छित लाभ मिलेगा. हिन्दी भाषा सार्व देशिक होने से जैनों को अपने ग्रन्थ सरल हिन्दी भाषा में छपवाकर सर्वत्र प्रचार करना चाहिये इस हेतु को ध्यान में रखकर मेरे उपदेश से विद्वान् और धर्म रक्त सोभागमलजी हरकावत ने यह बात अत्युत्तम जानकर परोपकारार्थ अपने सम्बन्धी वृद्धिचन्दजी ढट्टा जो एक धर्मास्मा पुरुष थे उन्हीं के मरने के समय पर धर्मार्थ रकम जो उनकी ज्ञानवान स्त्री

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