Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar Author(s): Manikmuni Publisher: Sobhagmal Harkavat Ajmer View full book textPage 4
________________ ॥ कल्पसूत्र की प्रस्तावना ॥ कल्पमत्र के बारे में ग्रन्थ के पहिले उसका कुछ वर्णन कर दिया है ना भी जेनेतर वा जनमूत्र के गृह शब्दों से अपरिचित जनों के लिये अथवा सम्पदायिक झगड़े वालों के हितार्थ थोडासा लिखना योग्य है. जैनों में नीर्थकर एक सर्वोत्तम पुण्यवान पुरुष को माना जाता है, ऐसे २४ पुरुष इस जमाने में हुए हैं उन नीर्थंकरों के उपदेश से अन्य जीव धर्म पान है धर्म के जरिये इस दुनिया में नीति में चलकर स्वपर का हित करसक्त हैं और मरने के बाद कर्मबन्धन मर्वथा छूट जाने से मुक्ति होनी है और पीछ जन्म मर्ण होता नहीं क्योंकि जैन मंतव्य में एसा ईश्वर नहीं माना है कि जो अपनी इच्छा सं अमुक समय बाद मुक्षिक जीवों को भी मुक्ति से हटाकर संसार में घुमावे. जना में ऐसा भी ईश्वर नहीं माना है कि अन्यायी पुरुषों को दंड देने को वा भक्त पुरुषों को धनादि देने को रूप बदल कर ग्रावे अथवा उनकी प्रार्थना से उनका पुत्र होकर संसार की लीला बनाकर आप सीधा मोक्ष में पीछा जावे. किन्तु जनान ऐसा माना है कि प्रत्येक जीव अपने शरीर बन्धन में पड़ा है और जहां नक उसका ऐसा ज्ञान नहीं होगा कि मैं एक बन्धन में पड़ा हूं वहां तक वह विचाग वालक पशु की तरह गरीर को ही आत्मा मानकर उस शरीर की पुष्टि गोभा रक्षा के खातर ही उद्यम करेगा और उस पुराणे गरीर को छोड़ नये शरीर को धारण कर देव, मनुष्य, नरक, तिर्यच, में घुमना ही रहेगा और पुण्य पापानुसार अपने मुख दुःख भोगना ही रहेगा. जिम आदमी के जीव का ऐमा जान होगा कि मैं शरीर से भिन्न सचेतन हूं, मेरा लक्षण शरीर से भिन्न हैं मैं व्यर्थ उसपर मोह करताहूं मैं मृर्खना से अाज तक दुःख पारहा हूं, मेरा कोई शत्रु नहीं है, मुझे अब वो शरीर का बंधन तोड़न का उद्यम करना चाहिए, वो ही मनुष्य धर्म में-उद्यत होकर धर्मात्मा साधु होता है. और आत्म रमणता में आनन्द मानकर दुःख सुख हर्ष गोक में समता - रखता है, वो ही केवलज्ञान पाकर सर्वत्र होता है और कृत कृतार्थ होने पर भी "परोपकागयसतां विभूतिः " मानकर सर्वत्र फिरकर सूर्य, चंद्र, वृक्ष, मेघ के उपकार की नरद्द सबाघ द्वारा जीवों को दुःख से बचाता है उन सब मर्वद्रोंPage Navigation
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