Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Sthanakvasi Author(s): Shayyambhavsuri, Amarmuni, Shreechand Surana, Purushottamsingh Sardar, Harvindarsingh Sardar Publisher: Padma PrakashanPage 15
________________ Huawww Anuumal विपाक सूत्र का पुण्य-पाप कर्मों का विपाक बताने वाले दृष्टान्त पढ़कर तो मन रोमांचित हो जाता है। इसी प्रकार प्रज्ञापना की प्ररूपणा शैली, इसमें वर्णित भेदोपभेद की गहराई में उतरने के लिए सूक्ष्म प्रज्ञा और स्थिर मेधा की जरूरत है। उत्तराध्ययन सूत्र की उक्तियाँ, सूक्तियाँ, विविध उपमाएँ, अलंकारिक प्रयोग मन को मुग्ध कर देते हैं। किन्तु इन सबके बाद दशवकालिक सूत्र की अपनी अलग ही पहचान है और यह एक नहीं अनेक विशेषताओं विलक्षणताओं से भरा है। ___पहली बात, दशवैकालिक सूत्र की शैली सूत्रात्मक भी है और पद्यात्मक भी; इसलिए ये वचन सुभाषित जैसे हृदयग्राही हो जाते हैं। फिर विषय की विविधता भी गुलदस्ते जैसी मनोहारी छटा दिखाती है। अन्य-अन्य आगमों में अधिकतर ज्ञान, कर्म, जीव-भेद, आचार-भेद आदि का जटिल आध्यात्मिक विषय रहता है। किन्तु इसमें अध्यात्म, नीति, व्यवहार, आचार आदि सब कुछ समाया है जैसे देखन में छोटे लगे, ज्यों नाविक के तीर।। इसी प्रकार दशवैकालिक के सुवचन छोटे-छोटे सुभाषित के रूप में जीवन का बहुत गहरा सन्देश छुपाये हुए हैं। इसका एक-एक सूक्त लाखीणा हीरा है। यदि किसी एक वचन पर भी आचरण कर लिया जाय तो जीवन बदल जायेगा। इसके श्लोक गागर में सागर की तरह अर्थपूर्ण हैं। भाषा भी प्रांजल है और प्रतिपादन शैली सीधी सहज हृदयस्पर्शी है। प्रस्तावना विस्तृत हो जाने के भय से मैं यहाँ कुछ उदाहरण ही दूंगा-जैसे कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं-२/५ कामनाओं को दूर कर, दुःख दूर हो जायेगा। जयं चरे जयं चिढ़े-४/८ यतनापूर्वक चलो, यतनापूर्वक खड़े रहो, सब कुछ यतनापूर्वक करो। अदीणो वित्तिमेसिज्जा-५/२/२८ जीवन निर्वाह के लिए दीन, मुँहताज न बनो। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-६/२१ मूर्छा, ममता भाव ही परिग्रह है। वइज्ज बुद्धे हियमाणुलोमिअं-७/५६ हितकारी और प्रिय वचन बोलो। S S SS 听命圖 41 IVा - SS S 3 (१५) - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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