________________ प्राकरणिक कर्मशास्त्र में कर्म सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ पाते हैं, जिनका मूल आधार पूर्वोद्धृत कर्म साहित्य रहा है / प्राकरणिक कर्मग्रन्थों का लेखन विक्रम की आठवीं नवीं शती से लेकर सोलहवीं सत्तरहवीं शती तक हुअा है / अाधुनिक विज्ञों ने कर्मविषयक साहित्य का जो सृजन किया है वह मुख्य रूप से कर्मग्रन्थों के विवेचन के रूप में है / भाषा की दृष्टि से कर्म साहित्य को प्राकृत, संस्कृत और प्रादेशिक भाषाओं में विभक्त कर सकते हैं। पूर्वात्मक व पूर्वोद्धृत कर्मग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। प्राकरणिक कर्म साहित्य का विशेष अंश प्राकृत में ही है। मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त उन पर लिखी गईं वृत्तियाँ और टिप्पणियाँ भी प्राकृत में हैं। बाद में कुछ कर्मग्रन्थ संस्कृत में भी लिखे गये किन्तु मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में उस पर वत्तियाँ ही लिखी गई हैं। संस्कृत में लिखे हये मूल कर्मग्रन्थ, प्राकरणिक कर्मशास्त्र में आते हैं। प्रादेशिक भाषाओं में लिखा हुमा कर्म साहित्य कन्नड़, गुजराती और हिन्दी में है। इनमें मौलिक अंश बहुत ही कम है, अनुवाद और विवेचन ही मुख्य है। कन्नड़ और हिन्दी में दिगम्बर साहित्य अधिक लिखा गया है और गुजराती में श्वेताम्बर साहित्य / विस्तारभय से उन सभी ग्रन्थों का परिचय देना यहाँ सम्भव नहीं है / संक्षेप में उपलब्ध दिगम्बरीय कर्म साहित्य का प्रमाण लगभग पांच लाख श्लोक है। और श्वेताम्बरीय कर्म साहित्य का ग्रन्थमान लगभग दो लाख श्लोक हैं / श्वेताम्बरीय कर्म-साहित्य का प्राचीनतम स्वतन्त्र ग्रन्थ शिवशर्म सूरिकृत कर्मप्रकृति है / उसमें 475 गाथाएं हैं / इसमें आचार्य ने कर्म सम्बन्धी बन्धनकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनाकरण, अपवर्तनाकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरण इन पाठ करणों (करण का अर्थ है आत्मा का परिणाम विशेष) एवं उदय और सत्ता इन दो अवस्थाओं का वर्णन किया है। इस पर एक चूर्णि भी लिखी गई थी। प्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि और उपाध्याय यशोविजय जी ने संस्कृत भाषा में इस पर टीका लिखी है। आचार्य शिवशम को एक अन्य रचना 'शतक' है। इस पर भी मलयगिरि ने टीका लिखी है / पार्श्व ऋषि के शिष्य चन्द्रर्षि महत्तर ने पंचसंग्रह की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवत्ति भी लिखी। इसके पूर्व भी दिगम्बर परम्परा में प्राकृत पंचसंग्रह उपलब्ध था किन्तु उसकी कर्म विषयक कितनी ही मान्यताएं आगम-साहित्य से मेल नहीं खातो थी, इसलिए चन्द्रर्षि महत्तर ने नवीन पंच-संग्रह की रचना कर उसमें आगम मान्यताएं गुफित की। आचार्य मलयगिरि ने उस पर भी संस्कृत टीका लिखी है। जैन परम्परा के प्राचीन आचार्यों ने प्राचीन कर्मग्रन्थ भी लिखे थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं-कर्म-विपाक, कर्म-स्तवः बंध-स्वामित्व, सप्ततिका और शतक / इन पर उनका स्वयं का स्वोपज्ञ विवरण है। प्राचीन कर्मग्रन्थों को आधार बना कर देवेन्द्रसूरि ने नवीन पांच कर्म ग्रन्थ बनाये / इस प्रकार जैन परम्परा में कर्मविषयक साहित्य पर्याप्त उर्वर स्थिति में है। मध्य युग के आचार्यों ने इन पर बालावबोध भी लिखे हैं, जिन्हें प्राचीन भाषा में टब्बा कहा जाता है / जैन दर्शन का मन्तव्य कर्मवाद के समर्थक दार्शनिक चिन्तकों ने काल वाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, पुरुषवाद, आदि मान्यताओं का सुन्दर समन्वय करते हुये इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया [ 16 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org