________________ मान का समावेश होता है / 76 राग और द्वेष के द्वारा हो अष्टविध कर्मों का बंधन होता है अतः राग-द्वेष को ही भाव-कर्म माना है। राग-द्वेष का मूल मोह ही है। आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-जिस मनुष्य के शरीर पर तेल चुपड़ा हुआ हो उसका शरीर उड़ने वाली धूल से लिप्त हो जाता है / वैसे ही राग द्वेष के भाव से प्राक्लिन्न हुए आत्मा पर कर्म-रज का बंध हो जाता है / स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यात्व को जो कर्म-बंधन का कारण कहा है, उसमें भी राग-द्वेष ही प्रमुख हैं। राग-द्वेष की तीव्रता से ही ज्ञान विपरीत होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ मिथ्यात्व होता है वहाँ अन्य कारण स्वतः होते ही हैं। अत: शब्द-भेद होने पर भी सभी का सार एक ही है। केवल संक्षेप-विस्तार के विवक्षाभेद से उक्त कथन समझना चाहिए। जैनदर्शन की तरह बौद्ध-दर्शन ने भी कर्म बंधन का कारण मिथ्या ज्ञान और मोह माना है।८० न्यायदर्शन का भी यही मन्तव्य है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है / प्रस्तुत मोह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप नहीं है किन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना बुद्धि ये अनात्मा होने पर भी इनमें मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान मिथ्याज्ञान और मोह है। यही कर्मबंधन का कारण है।८१ वैशेषिकदर्शन भी प्रकृत कथन का समर्थन करता है / 82 सांख्यदर्शन भी बंध का कारण विपर्यास मानता है और विपर्यास ही 76. (क) स्थानाङ्ग 23 (ख) प्रज्ञापना 23 (ग) प्रवचनसार गा० 95 77. प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति प्राचार्य नमि 78. (क) उत्तराध्ययन 3217 (ख) स्थानाङ्ग 22 (ग) समयसार गाथा 94 / 96 / 109 / 177 (घ) प्रवचनसार 1184188 79. आवश्यक टीका 80. (क) सुत्तनिपात 3 // 12 // 33 (ख) विसुद्धिमम्ग 17 / 302 (ग) मज्झिम निकाय महातण्हासंखयसुत्त 38 81. (क) न्यायभाष्य 4 / 2 / 1 (ख) न्यायसूत्र 102 (ग) न्याय सूत्र 41103 (घ) न्यायमूत्र 4.116 82. (क) प्रशस्तपाद पृ० 538 विपर्यय निरूपण (ख) प्रशस्त पाद भाष्य संसारापवर्ग प्रकरण 83. सांख्यकारिका 44-47-48 [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org