Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 132
________________ षरठ अध्ययन / 75 कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उनकी छाती पर शिला व लक्कड़ रखवा कर उत्कम्पन (ऊपर नीचे) कराता है कि जिससे हड्डियाँ टूट जाएँ। कितनों के चर्मरज्जुओं व सूत्ररज्जुओं से हाथों और पैरों को बँधवाता है, बंधवाकर कुए में उल्टा लटकवाता है, लटकाकर गोते खिलाता है। कितनों का असिपत्रों यावत् कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारमिश्रित तेल से मर्दन कराता है। कितनों के मस्तकों, कण्ठमणियों, घंटियों, कोहनियों, जानुप्रों तथा गुल्फों-गिट्टों में लोहे की कीलों को तथा बांस की शालाकाओं को ठुकवाता है तथा वृश्चिककण्टकों-विच्छु के कांटों को शरीर में प्रविष्ट कराता है। कितनों के हाथ की अंगुलियों तथा पैर की अंगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूइयों तथा दम्भनोंदागने के शस्त्रविशेषों को प्रविष्ट कराता है तथा भूमि को खुदवाता है। कितनों का शस्त्रों व नेहरनों से अङ्ग छिलवाता है और दर्भो-मूलसहितकुशाओं, कुशानोंमूलरहित कुशाओं तथा आईचों द्वारा बंधवाता है / तदनन्तर धूप में गिराकर उनके सूखने पर चड़ चड़ शब्द पूर्वक उनका उत्पाटन कराता है। प्राचार का दुष्परिणाम -तए णं से दुज्जोहणे चारगपालए एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबह पावकम्मं समज्जिणित्ता एगतीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे काल किच्चा छट्टीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / ९-इस तरह वह दुर्योधन चारकपालक इस प्रकार की निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म, विज्ञान व सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके 31 सौ वर्ष की परम आयु भोगकर कालमास में काल करके छठे नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप में उत्पन्न हुआ। १०–से णं तमो अणंतरं उध्वट्टित्ता इहेव महुराए नगरीए सिरिदामस्स रन्नो बन्धसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्न / तए णं बन्धुसिरो नवण्हं मासाणं बहुपडिपुष्णाणं जाव दारगं पयाया। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निन्वत्ते बारसाहे इमं एयारूवं नामधेज्जं करेंति-'होउ णं अम्हं दारगे नंदिसेणे नामेणं'। तए णं से नंदिसेणे कुमारे पंचधाईपरिवुडे जाव परिवइ / तए णं से नंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे जाव विहरइ, जोवणगमणुप्पत्ते जुवराया जाए यावि होत्था। तए णं से नंदिसणे कुभारे रज्जे य जाव अंते उरे य मुच्छिए इच्छइ सिरिदामं रायं जीवियानो बवरोवेत्तए, सयमेव रज्जसिरि कारेमाणे, पालेमाणे विहरित्तए / तए णं से नंदिसणे कुमार सिरिदामस्स रन्नो बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे विहरइ / १०--तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल का जीव छठे नरक से निकलकर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर लगभग नव मास परिपूर्ण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया / तत्पश्चात् बारहवें दिन माता-पिता ने नवजात बालक का नन्दिषेण नाम रक्खा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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