________________ आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कामण वर्गणा के जो पुद्गल एक रूप थे, बद्ध होने के साथ ही उनमें नाना प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं / इसे पागम की भाषा में प्रकृतिबन्ध कहते हैं / प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं / 127 केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बंध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाली रेती के समान है / ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में कषायाभाव के कारण कर्म का बंधन इसी प्रकार का होता है / कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्म बन्ध निर्बल, अस्थाई और नाम मात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता। योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है उससे अमुक समय तक प्रात्मा से पृथक् न होने की कालिक मर्यादा पुद्गलों में निर्मित होती है / यह काल मर्यादा ही आगम की भाषा में स्थिति-बंध है / दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के द्वारा ग्रहण की गई ज्ञानावरण आदि कर्म-पुद्गलों की राशि कितने काल तक प्रात्म-प्रदेशों में रहेगी, उसकी मर्यादा स्थिति-बंध है / 127 अनुभाग-बन्ध जीव के द्वारा ग्रहण की हुई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तीव्र, मन्द आदि विपाक अनुभागबंध है / उदय में आने पर कर्म का अनुभव तीव्र या मन्द कैसा होगा, यह प्रकृति आदि की तरह कर्मबंध में समय ही नियत हो जाता है / इसे अनुभागबंध कहते हैं / 126 उदय में आने पर कर्म अपनी मूलप्रकृति के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं / ज्ञानावरणीय कम अपने अनुभाव-फल देने की शक्ति के अनुसार ज्ञान का पाच्छादन करता है। दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को आवृत करता है। इसी प्रकार अन्यकर्म भी अपनी प्रकृति के अनुसार तीन या मन्द फल प्रदान करते हैं। उनकी मूल प्रकृति में उलट-फेर नहीं होता। पर उत्तर-प्रकृतियों के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता / एक कर्म की उत्तरप्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर-प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। जैसे मतिज्ञानावरण कर्म, श्रुतज्ञानावरण कर्म के रूप में परिणत हो जाता है / फिर उसका फल भी श्रुतज्ञानावरण के रूप में ही होता है / किन्तु उत्तर-प्रकृतियों में भी कितनी ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करती, जैसे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / आयुकर्म की उत्तर-प्रकृतियों में भी संक्रमण नहीं होता / जैसे-नारक अायुष्य तियंच आयुष्य के रूप में या अन्य आयुष्य के रूप में नहीं बदल सकता। इसी प्रकार अन्य आयुष्य भी।३. 127. (क) पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 96 (ख) स्थानाङ्ग 14.96 की टीका 128. स्थिति: कालावधारणम् 129. भगवती 114140 वृत्ति (ख) तत्त्वार्थसूत्र 8 / 22 130. तत्त्वार्थसूत्र 8 / 22, भाष्य, (ख) विशेषावश्यक भाष्य गा.१९३८ [44 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org