________________ 28] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध पोरिसोए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अचवलमतुरिय-मसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहिता भायण-वत्थाई पडिलेहेइ, पडिले हित्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ३, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अभYण्णाए समाणे छट्टक्खमणपारणगंसि वाणियग्गामे नयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं !' तए णं भयवं गोयमे समणेण भगवया महावीरेण प्रभYण्णाए समाणे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियायो दुइपलासाप्रो उज्जाणाम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरोरियं सोहेमाणे सोहेमाणे) जेणेव वाणियग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छित्ता उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खा-यरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव प्रोगाढे। तत्थ णं बहवे हत्थी पासइ, सन्नद्धबद्धवम्भियगुडिय उप्पोलियकच्छे, उद्दामिय घंटे, नानामणि-रयणविविहगेवेज्जउत्तरकंचुइज्जे, पडिकप्पिए, झय-पडागवरपंचामेल-प्रारूढ-हत्थारोहे, गहियाउहप्पहरणे। अन्ने य तत्थ बहवे प्रासे पासइ, सनद्धबद्धवम्मियगुडिए. प्राविद्धगुडे, प्रोसारियपक्खरे, उत्तरकंचुइय-प्रोचूल मुहचण्डाधर-चामर-थासगपरिमंडियकडिए, प्रारूढासारोहे गहियाउहप्पहरणे / __ अण्णे य तत्थ बहवे पुरिसे पासइ सन्नद्धबद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए पिणद्धगेवेज्जे, विमलकरबद्ध-चिघपट्ट, गहियाउहप्पहरणे। तेसि च णं पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासइ अवरोडियबन्धणं उक्कित्तकण्णनासं नेहतुप्पियगत्तं, वज्झ-करकडिजुनियत्थं', कंठेगुणरत्तमल्लदाम, चण्णगुडियगतं, चुण्णयं वज्झपाणपियं तिल-तिलं चेव छिज्जमाणं कागणिमसाई खावियंतं पाव, खक्खरगसएहि हम्ममाण, अणेगनरनारोसंपरिवुडं चच्चरे चच्चरे खंडपडहएणं उग्धोसिज्जमाणं / इमं च णं एयारूव उग्घोसणं पडिसुणेइ-'नो खलु देवाणुपिया ! उज्झियगस्स दारगस्स केइ राया वा रायपुत्तो वा अवरझड; अपणो से सयाई कम्माई अवरज्झति ! ६---उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार, जो कि तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किये हुए हैं तथा बेले की तपस्या करते हुए भगवती सूत्र में वर्णित जीवनचर्या चलाने वाले हैं, जैसे कि प्रथम-प्रहर में स्वाध्याय करके, दसरे प्रहर में ध्यान और तीसरे प्रहर में मखवस्त्रिका पात्र प्रादि का प्रतिलेखन धीमी गति से भगवान् महावीर के पास गए / षष्ठ-भक्त के पारण की आज्ञा प्राप्त की। फिर वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच एवं मध्यम कुलों में भिक्षा के लिये ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए जहाँ राजमार्ग-प्रधान मार्ग है वहाँ पर पधारे। वहाँ (राजमार्ग में) उन्होंने अनेक हाथियों को देखा / वे हाथी युद्ध के लिये उद्यत थे, जिन्हें 1. पाठान्तर-बज्झकक्खडियजुयनियत्थं (मोदी). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org