________________ में उदय में जाता है वह अशुभ और शुभ विपाक वाला है। और जो कर्म अशुभ रूप में बंधता है, अशुभ रूप में ही उदय में आता है वह अशुभ और अशुभ विपाक वाला है। कर्म के उदय में जो यह अन्तर है उसका मूल कारण सक्रमण (बद्ध कर्म में प्रात्मा द्वारा अन्यथाकरण) कर देना है। प्रात्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन ___ संक्रमण की स्थिति को छोड़ कर सामान्य रूप से जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल उसे प्राप्त होता है / शुभ कर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है / / कर्म की मुख्यत: दो अवस्थाएँ हैं-बन्ध (ग्रहण) और उदय (फल) / कर्म को बांधने में जीव स्वतन्त्र है किन्तु उसके फल को भोगने में वह स्वतन्त्र नहीं। जिस प्रकार कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है; वह चढ़ने में स्वतन्त्र है अपनी इच्छानुसार चढ़ सकता है; किन्तु असावधानीवश गिर जाय तो वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है / 100 वह इच्छा से गिरना नहीं चाहता है तथापि गिर जाता है, वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है। इसी प्रकार व्यक्ति भंग पीने में स्वतन्त्र है किन्तु उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र है / उसकी इच्छा न होते हुए भी भंग अपना चमत्कार दिखाएगो हो / उसको इच्छा का फिर कोई मूल्य नहीं। उक्त कथन का यह अर्थ नहीं कि बद्ध कर्मों के विपाक में प्रात्मा कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता / जैसे भंग के नशे की विरोधी वस्तु का सेवन किया जाय तो भंग का नशा नहीं चढ़ता, या नाममात्र का ही चढ़ता है, उसी प्रकार प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म के विपाक को मन्द भी किया जा सकता है और नष्ट भो किया जा सकता है / उस अवस्था में कर्म प्रदेशों से उदित होकर ही निर्जीर्ण हो जाते हैं / उसको कालिक मर्यादा (स्थितिकाल) को कम करके शीघ्र उदय में भी लाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जीव के काल आदि लब्धियों को अनुकूलता होती है तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों की बहुलता होती है तब जीव उससे दब जाता है। इसलिए कहीं पर जीव कर्म के अधीन है और कहीं कर्म जीव के अधीन है। कर्म के दो प्रकार हैं(१) निकाचित-जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता। (2) अनिकाचित-जिनका विपाक अन्यथा भी हो सकता है / दूसरे शब्दों में (1) निरुपक्रम--इसका कोई प्रतिकार नहीं होता इसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता / (2) सोपक्रम-यह उपचार-साध्य होता है। जीव निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा से कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की दृष्टि से दोनों बातें हैं-जब तक जीव उस कर्म को नष्ट करने का प्रयास नहीं करता तब तक वह उस कम के 99. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति / दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिणफला भवन्ति // -दशाशु तस्कन्ध 6 100. कम्म चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मिउ, परवसा होन्ति / स्वखं दुरुहइ सबसो, विगलसपरवसो पडइ तत्तो।। -विशेषावश्यक भाष्य 113 [35] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org