Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 9
________________ अन्तरंग परिचय इस सूत्र का नाम ज्ञाता-धर्म-कथा है। जिस पर टीका करते हुए आचार्य श्री अभयदेवसूरि ने लिखा है-ज्ञात का अर्थ है उदाहरण और धर्मकथा से तात्पर्य है प्रसिद्ध धर्म कथाएँ। दोनों शब्द मिलकर बनता है-ज्ञात-धर्म कथा। किन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि यहाँ 'ज्ञात' शब्द प्राकृत शब्द 'नाय' से बना है। भगवान महावीर का एक नाम है ज्ञातपुत्र। नायपुत्त। यहाँ 'ज्ञात' शब्द भगवान महावीर की ओर संकेत करता है और तब इसका अर्थ होता है-ज्ञात-धर्म कथाएँ अर्थात् भगवान महावीर द्वारा कथित धर्म कथाएँ। यह अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। ज्ञाताधर्मकथा का सरल अर्थ यह भी कर सकते हैं कि ज्ञाता अर्थात् सर्वज्ञ, भगवान महावीर। उनकी कही हुई धर्म कथाएँ। ज्ञातासूत्र के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में १९ अध्ययन हैं जबकि दूसरे श्रुतस्कंध के १0 वर्ग हैं। प्रथम श्रुतस्कंध की सभी कथाएँ स्वयं उदाहरण हैं, और फिर उपनय के साथ विषय को अधिक संगति देती हैं। इन कथाओं के माध्यम से अनेक प्रकार की शिक्षाएँ, तत्त्वज्ञान, प्रेरणा और साधक के लिए मार्गदर्शन मिलता है। सचित्र आगम प्रकाशन माला तीन वर्ष पूर्व हमने पूज्य गुरुदेव उ. भा. प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज की साठवीं दीक्षा जयन्ती मनाई थी। तब मेरे मन में सचित्र आगम प्रकाशन की भावना मूर्तरूप ले रही थी। उसी वर्ष मैंने प्रयोग के रूप में भगवान महावीर की अन्तिम वाणी उत्तराध्ययनसूत्र का सचित्र सम्पादन प्रकाशन किया था। वह प्रयोग बहुत सफल रहा। सर्वत्र प्रशंसित हुआ और आगम के अध्ययन से दूर रहने वाले भी चित्रमय आगम होने से रुचिपूर्वक पढ़ने लगे। मेरे पास अनेक विद्वानों के विज्ञ मुनिवरों के तथा अनेकानेक धर्म-प्रेमियों के पत्र आये और सभी ने इस प्रयास की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। युग की इस आवश्यकता और उपयोगिता को देखकर हमने इस योजना को और आगे बढ़ाने का संकल्प किया। जिसके अन्तर्गत सचित्र अन्तकृद्दशासूत्र, सचित्र कल्पसूत्र, सचित्र तीर्थंकर चरित्र प्रकाशित हुआ। और अब सचित्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। ज्ञातासूत्र काफी बड़ा होने से उसे दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रथम भाग में आठ अध्ययन लिए गये हैं। शेष दूसरे भाग में प्रकाशित होंगे। इस सूत्र की सम्पादन शैली में थोड़ा परिवर्तन भी किया है। आमुख में सर्वप्रथम अध्ययन के शीर्षक का स्पष्टीकरण किया है जिससे अध्ययन का विषय ज्ञात हो सके तथा इसी के साथ कथा-सार भी दिया है। मूल पाठ में सूत्र संख्या की कोई निश्चित परम्परा प्राचीन प्रतियों में नहीं अपनाई गई है अतः इस संस्करण में सूत्र संख्या कथा-प्रवाह की सुविधानुसार रखी गई है। मूल पाठ में अपेक्षाकृत लम्बे तथा संयुक्त शब्दों में संधि स्थलों पर विराम चिह्न (डैश) दिये हैं जिससे पठन तथा उच्चारण में नुविधा हो। (9) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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