Book Title: Adhyatma Navneet Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 2
________________ स्वाध्याय का एक भेद : आम्नाय स्वाध्याय: परमं तपः - कहकर जैनदर्शन में स्वाध्याय को परमतप घोषित किया गया है। स्वाध्याय का नाम बारह तपों में दशवें तप के रूप में आता है। बारह तपों में यदि स्वाध्याय से बढा कोई तप है तो एक मात्र ध्यान ही है। संतों के मुख्यरूप से ध्यान और अध्ययन (स्वाध्याय) ये दो कार्य ही स्वीकार किये गये हैं। आचार्य समन्तभद्र तो स्पष्ट लिखते हैं - "ज्ञानध्यानतपोरक्त: तपस्वी स प्रशस्यते - ज्ञान (स्वाध्याय) और ध्यानरूप तप में लीन तपस्वी ही प्रशंसा योग्य है।" इसके अतिरिक्त स्वाध्याय संतों के छह आवश्यकों में भी आता है और श्रावकों के छह आवश्यकों में भी आता है। तात्पर्य यह है कि यह स्वाध्याय नामक तप सभी को करना चाहिए। आचार्यों ने जिस स्वाध्याय को परमतप घोषित किया है. उसे आज हम तप के रूप में आदर देने को भी तैयार नहीं हैं। उपवासादि करनेवालों को तो सभी तपस्वी कहते हैं, पर स्वाध्याय करनेवालों को कौन तपस्वी मानता है ? यह एक विचारणीय बात है। स्वाध्याय तप पाँच प्रकार का बताया गया है; जो इसप्रकार है - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना वाचना स्वाध्याय है; शंकाओं के समाधान के लिए विशेषज्ञों से पूछना पृच्छना स्वाध्याय है; पढ़े हुए, पूछे हुए, सुने हुए तत्त्वज्ञान संबंधी विषय का चिन्तन अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है; सुनिश्चित विषयवस्तु को बार-बार दुहराना आम्नाय स्वाध्याय है और उक्त प्रकार से प्राप्त तत्त्वज्ञान को दूसरों को समझाना धर्मोपदेश स्वाध्याय है। उक्त पाँच स्वाध्यायों में चौथा स्वाध्याय आम्नाय है; जिसे आज पाठ करने के रूप में जाना जाता है। यद्यपि पाठ करने की परम्परा हमारे यहाँ रूढि के रूप में तो पुराने जमाने से चली आ रही है; तथापि उसमें परिमार्जन की आवश्यकता है। १. हरिवंशपुराण (प्रथम सर्ग, श्लोक-६९) २. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्डश्रावकाचार, छन्द १० पाठ प्रतिदिन उन ग्रन्थों का किया जाना चाहिए, जिनका हमारे आत्मकल्याण से सीधा संबंध हो और जिसका पाठ किया जाय, पाठ करते समय उसका भाव हमें स्पष्टरूप से ख्याल में आना चाहिए। इसी बात का ध्यान रखकर मैंने अत्यन्त उपयोगी कतिपय ग्रन्थों का पद्यानुवाद अत्यन्त सरल-सुबोध भाषा में किया और उनके महत्त्वपूर्ण अंशों को शतकों के रूप में संकलित कर संक्षिप्तरूप में प्रस्तुत किया है। यदि समय हो तो हमें पूरे ग्रन्थों का पाठ करना चाहिए और समय कम हो तो शतकों का पाठ किया जा सकता है। इसी भावना से मैंने हमारी आचार्य परम्परा के शिरमौर आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थराज समयसार, प्रवचनसार एवं अष्टपाड़ एवं इनकी टीका में समागत कलशों के पद्यानुवाद किये हैं। ___पाठ करने की सुविधा की दृष्टि से उन सभी को संकलित कर यह संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है। उक्त कृतियों के अतिरिक्त इसमें योगसार पद्यानुवाद और द्रव्यसंग्रह पद्यानुवाद भी शामिल कर दिए हैं। इसी भावना से जिनेन्द्र वंदना और बारह भावना को भी शामिल किया गया है। भक्ति भावना में कोई कमी न रह जावे - इस भावना से पूजनें भी जोड़ दी हैं । इसप्रकार यह संकलन अत्यन्त उपयोगी कृति के रूप में प्रस्तुत हो गया है। ___ आत्मकल्याण से संबंधित ग्रन्थों का पाठ करते रहने से परिणामों में पवित्रता तो रहती ही है; उन ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयवस्तु भी स्मृति में उपस्थित रहती है। जितना महत्त्व आध्यात्मिक ग्रन्थों के पढ़ने-पढ़ाने का है, तत्संबंधी तत्त्वचर्चा और चिन्तवन का है; उससे अधिक महत्त्व उनके पाठ करने का है; क्योंकि पाठ किये बिना विषय उपस्थित नहीं रहता, याद नहीं रहता। बिना स्मृति के उपदेश देना तो संभव ही नहीं है। कहा भी है कि कंठ की विद्या, अंट का दाम, समय पड़े पर आवे काम। सभी आत्मार्थी बन्धु नियमित पाठ करके इस कृति का भरपूर लाभ उठायेंगे - इस भावना से विराम लेता हूँ। २६ जनवरी, २००५ - डॉ. हुकमचन्द भारिल्लPage Navigation
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