Book Title: Acharanga Stram Part 04
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥६१४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तुज छे, अने सुखाधिगम पण शंकानो विषय न थाय, पण जे देशका स्वभावथी विप्रकृष्ट होय; तेमांज शंका थाय, ते धर्मअधर्म, आकाश विगेरेमां जे विचिकित्सा थाय ते जाणवी; अथवा 'विइगिच्छति' विद्वाननी जुगुप्सा एटले, विद्वानो ते साधुओ छे. जेमणे संसारनो स्वभाव जाण्यो छे, अने समस्त संगनो त्याग कर्यो छे, तेओनी जुगुप्सा ( निंदा) करे छे. कारणके, तेओ स्नान करतानथी; तथा, परसेवाना मेलथी गंधातां शरीरवाळा छे. तेओने निंदे छे, 'निंदनारा कहे छे के,' जो, अचित्त पाणीथी स्नान करे; तो, शुं दोष छे ? आ जुगुप्सा छे, ते जुगुप्साने अथवा, विचिकित्साने प्राप्त करेला आत्मावाळो (शंकावालो) चित्तनी समाधि अथवा ज्ञानदर्शन चारित्ररुप समाधिने पामतो नथी, कारण के विचिकित्साथी मलीन चित्तवाळाने आचार्य कहे तोपण सम्यक्त्व नामनी बोधि [भगवानना वचन उपर आस्था ] मेळवतो नथी; अने जे बोधि मेळवे छे, ते गृहस्थ अथवा साधु होय, ते बतावे छे, 'सितांः ' पुत्र स्त्री विगेरेमां रागी बनेला होय, अथवा लघुकर्मवाळा सम्यक्त्वने पमाडनार आचार्यने अनुसरे छे. अर्थात् | आचार्यनुं कहेलं माने छे ते प्रमाणे केटलाक गृहवास छोडेला साधुओ शंका विगेरेथी रहित बनी आचार्यना मार्गने अनुसरे छे. तेमनामां पण जो कोइ कोरड माफक होय, ते पण तेवा बीजा उत्तम मार्गने अनुसरनारा साधुने जोइ ते आ कोरड जेवो पण तेनां अशुभ कर्म ओछां थतांते पण सम्यक्त्व पाये, ते बतावे छे. आचार्यनुं कहेलुं सम्यक्त्व माननार श्रावकोथी परिचयमां आवतो | अथवा प्रेरणा करातो न माने, तो पछी केवी रीते निर्वेद न पाये ? अर्थात् खराब कृत्यनी मिथ्यात्वादि रूप विचिकित्साने छोडीने | ते पण सम्यक्त्व पामे; अथवा साधु श्रावक जेओ संसारमां रक्त अथवा विरक्त होय; तेओ आचार्यनुं कहेलुं समजे; तो, कोइ अज्ञानना उदयथी मंद बुद्धि होवाथी तपस्वी साधु घणा वर्षनो दीक्षित होय; ते जो, न समजे; तो, केम खेद न पाये ? (कदाच ) तप For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥६१४॥

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