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आचा०
सूत्रम्
॥१॥
॥६१५॥
www.kebatirth.org अने संयमनो निर्वेद न होय; अने अनिर्वेदी होय; तो आवीपण भावना भावे. जेमके-जो, हुं भव्य नही होउं तो, मने संयमभाव ४ पण नथी. के, प्रकट-(खुल्लु करीने) गुरु कहे छे तोपण, हुं समजतो नथी. आ प्रमाणे खेद पामताने आचार्य समाधिनां वचन कहे।
छे के:--हे साध! खेद न कर ! तूं भव्य छे. कारण केतुं सम्यक्त्व पाम्यो छे, अने ते ग्रन्थीभेद विना न होय, अने ग्रन्थीभेद भव्यत्व विना न होय, कारण के, अभव्यने भव्य, के अभव्यपणानी शंका पण न थाय.
वळी, अविरतिनो परिणाम बार कषायनो क्षय उपशम उपशम के क्षय थतांज होय छे, अने ते विरति तुं पाम्यो छे. तेथी, - दर्शनचारित्र-मोहनीयनो तारे क्षयोपशम थयो छे, नहीतो, सम्यग्दर्शन-चारित्रनी प्राप्ति न होय पण, तने कह्या छतां जो, वधा पदार्थो न समजाय; तो, ज्ञानावरणीयकर्मना उदयनुं लक्षग जाणवू त्यां तो, तारे श्रद्वारुप-पम्यक्त्व स्वीकार. ते कहे छे
तमेव सच्चं नीसंकं जं जिण हिं पवेइयं (सू० १६२)
ज्यां आगळ स्वसमय, परसमयना जाण आचार्य न होय; तथा, झीणी गूढ बावतोमां, अने अतींद्रिय पदार्थामा बन्ने पक्षने मान्य दृष्टांत तथा, सम्यग्हेतुना अभावथी ज्ञानावरणीयना उदयथी सम्यग्ज्ञान न होय; त्यां पण आ प्रमाणे चिंतव, के, तेज एक सत्य छे अने तेज निःशंक छे के, जिनेश्वरे कहेला अत्यंत मूक्ष्म-अतींद्रिय पदार्थो जे फक्त आगमथी मानवायोग्य छे ( ते मारे
प्रमाण छे.) तथा मानवामा शंका न होय; ते निःशक्ति कहेवाय. के धर्म-अधर्म, आकाश, पुद्गळ विगेरे जे तीर्थकरे कहेलं छे, ते ४.रागद्वेषने जीतेला जिनो छे, माटे तेमनुं क हेलु सत्यज छे. आq श्रद्धान करवू. बरोबर रीते पदार्थ न समजाय; तोपण, शंका न करवी.
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