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निवेदन किसी भी धर्म का मुख्य आधार उसका श्रुत साहित्य होता है। जिसमें उस धर्म के उपासकों के आचार-विचार, तात्त्विक विधि विधानों का वर्णन होता है। अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म में श्रुत साहित्य का ज्यादा महत्व पूर्ण स्थान है। इसका कारण है कि जैन धर्म के श्रुत साहित्य के उपदेष्टा कोई सामान्य साधक नहीं होते हैं। इसके उपदेष्टा सर्वोत्कृष्ट साधना के स्वामी अनन्त ज्ञान दर्शन के धारक वीतराग तीर्थंकर प्रभु होते हैं। वे राग द्वेष के विजेता होने से उनकी वाणी में पूर्वापर अंश मात्र भी विरोधाभास नहीं होता है। जबकि अन्य दर्शनों में यह बात संभव नहीं है। तीर्थंकर प्रभु भव्यात्मा के आध्यात्मिक विकास के लिए जो ज्ञान कुसुमों की वृष्टि करते हैं, उन सभी कुसुमों को विमल बुद्धि के स्वामी गणधर प्रभु झेल कर आगम माला के रूप में गुंथन करते हैं।
तीर्थंकर प्रभु केवल अर्थ रूप वाणी के उपदेशक होते हैं। गणधर प्रभु उस अर्थ रूप वाणी को सूत्र बद्ध करते हैं। आज हमारे यहाँ आगम साहित्य की जो महत्ता एवं प्रामाणिकता है वह इसलिए नहीं कि वे गणधर कृत है, बल्कि इसलिए है कि इसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर प्रभु की वीतरागता है।
चूंकि हमारे सूत्रों का मूलाधार प्रभु की अर्थ रूप वाणी है। इससे स्वयमेव सिद्ध है कि सूत्रों का आधार अर्थ हैं, न कि अर्थ का आधार सूत्र है। पर साथ में यह भी ध्यान रखने की बात है कि अर्थ भी दो प्रकार का होता है। एक अर्थ वह जिसके आधार पर श्रुत का सर्जन होता है और दूसरे प्रकार के अर्थ का आधार श्रुत है। आगम मर्मज्ञ विद्वान् आचार्यादि श्रुत की टीकादि के द्वारा अर्थ करते हैं।
प्रथम अर्थ का उद्गम अनन्त ज्ञानदर्शनधर तीर्थंकर भगवन्त हैं, जिसके आधार पर गणधर भगवन्त श्रुत की रचना करते हैं। अतएव नियमतः सर्व मान्य होता है। उसमें किसी को कोई प्रकार के ननूनच की गुजाईश रहती ही नहीं है। किन्तु दूसरे अर्थ के लिए सर्व मान्य नियम नहीं की वह मान्य हो ही। इसलिए दूसरे अर्थ की मान्यता लिए नियमा नहीं बल्कि भजना है। यदि आचार्यादि के द्वारा किया गया अर्थ श्रुत के अनुकूल हुआ हो तो मान्य होता है। इसके विपरीत यदि प्रतिकूल है, बाधक है, तो बाधक वाला अंश अमान्य होता है। बाधक होने के मुख्य दो कारण हैं पहला कारण तो श्रुत सर्जक गणधर भगवन्तों
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