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श्रुतसागर
वर्ष-३, अंक-९, कुल अंक-३३, अक्तूबर-२०१३
श्री भक्तामरस्तोत्र की सचित्र हस्तप्रत का एक चित्र
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
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प. पू. गुरुभगवंतश्री के ७९वें जन्मदिन पर उपस्थित ज्ञानमंदिर परिवार
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आचार्य श्री कैलाससागररि आलमंदिर का मुखपत्र
श्रुतसागर
33
आशीर्वाद *
राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
* संपादक मंडल *
मुकेशभाई एन. शाह
कनुभाई एल. शाह
डॉ. हेमन्त कुमार
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हिरेन के दोशी
केतन डी. शाह
एवं
ज्ञानमंदिर परिवार
१७ अक्टूबर, २०१३, वि. सं. २०६९, आश्विन
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सुद-99
प्रकाशक
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७
फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स: ( ०७९) २३२७६२४९ website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org
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प्राप्तिस्थान
अनुक्रम
१. संपादकीय
२. मिरचकल्प
३. भक्तामर स्तोत्र की दो सचित्र पोथियाँ
४. जैन ग्रंथकारोए करेलो नाम-निर्देश
५. कोबा तीर्थना धातुप्रतिमा लेखो ६. गुरुवाणी
७. जन्मदिन पर पठित दो कविताएँ
८. कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूचि
भाग - १६नुं संक्षिप्त अवलोकन ९. श्री नागेश्वर तीर्थ : एक परिचय
१०. ज्ञानमंदिर कार्य अहेवाल
११. समाचार सार
अहमदाबाद ३८०००७
हिरेन के. दोशी
हिरेन के. दोशी
ममता गोदारा
हीरालाल र. कापडिया
हिरेन के. दोशी
जितेन्द्र शाह, मुकेश शाह
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर
परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी,
फोन नं. (०७९) २६५८२३५५
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केतन डी.
शाह
कनुभाई ल. शाह
कनुभाईल. शाह डॉ. हेमंत कुमार
प्रकाशन सौजन्य
मातुश्री रेवाबेन ताराचंदभाई शाह परिवार हस्ते - श्री अरविंदभाई ताराचंदभाई शाह
पालनपुर - मुंबई एशियन स्टार कं. ली.
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३
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☹ 20 2
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संपादकीय
श्रुतसागरनो ३३मो अंक आपश्रीना हाथमां छे.
जन्मनो प्रसंग ज आनंद आपनार होय छे. जेमना जन्मथी केटलायना जीवन परिवर्तन जोडायेला होय एवा महापुरुषोना जन्मथी जननी अने जन्मभूमि एक अनेरुं गौरव प्राप्त थाय छे. महापुरुषोनुं जीवन केटलाय जीवनने बदलावी शके छे. आवा जन्मना वधामणानो दिवस एटले ज जन्मवर्धापन दिवस.
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पू. गुरुभगवंतश्रीना जन्म, जीवन, जननी अने जन्मभूमिना चिक्कार गुणगान करवानुं पर्व एटले जन्मवर्धापन पर्व
प. पू. आचार्य भगवंतश्रीना जन्मदिन निमित्ते आवुं ज एक पर्व आंबावाडी श्री संघ अने श्री महावीर जैन आराधना केन्द्रना उपक्रमे आयोजित थयुं.
आ अंकनी वात
गुरुभक्ति अने गुरुऋणमुक्तिना आ पावन अवसरे आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर परिवार तरफथी कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूचिनो १६मो भाग. विश्वकल्याण प्रकाशननी ६ पुस्तकौनुं विमोचन अने श्रुतसागर विशेषांक नं. ३२ नुं विमोचन आ प्रसंगे सानंद संपन्न थयुं.
आ प्रसंग उपस्थित सहुनी स्मृतिमां चिरंजीव बनी रह्यो.
आ अंकमा एक साव नवी भात पाडे एवी कृति मिरचकल्प अत्रे प्रकाशित करी छे. जैन परंपराने बाधित केटलाक प्रयोगो ग्रंथकारे नोंध्या होवा छता कृतिनी अखंडता माटे ज एने अत्रे यथावत् प्रकाशित कर्या छे. वाचकोए आ वात खास ध्यानमां लेवी.
अनुभवसंपन्न महापुरुषो द्वारा लखायेला वैदक प्रयोगो जीवनमां उपयोगी नीवडे एम छे. रोजींदा वपराशमां आवती वस्तुओना विविध फायदाओ जणावता आवा हज्जारो प्रयोगो कागळ उपर लखायेला अने समृद्ध ज्ञानभंडारोमां सचवायेला छे. सामान्य तकलीफोमां आवा प्रयोगो असरकारक पण बनी शके छे. ए प्रयोगोनो अनुभव करवा माटे जाणकार व्यक्ति, योग्य सामग्री, अने योग्य मात्रानी नितांत आवश्यकता रहे छे.
तेमज आ साथे जयपुरथी ज्ञानमंदिरना नियमित वाचक अने अध्ययनरत श्री
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अक्तूबर - २०१३ ममता गोदाराजीनो भक्तामरस्तोत्रनी बे सचित्र पोथीओनो परिचय आपतो लेख अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. एमना कथ्य विषयने क्यांय पण हानि न पहोंचे ए रीते लेखमां थोडा सुधारा कर्या छे. तेमज लेखनी साथे साथे एमना द्वारा मोकलावेल भक्तामरस्तोत्रनी सचित्र पोथीना एक चित्रने पण आ ज अंकना मुख्य टाईटल पेज उपर प्रकाशित कर्यु छे. सचित्र पोथीनुं चित्र अने लेख मोकलवा बदल एमनो खूब-खूब आभार.
जैन सत्यप्रकाश मेगेझिनमांथी जैन ग्रंथकारोनी नाम निर्देश करवानी पद्धति उपर प्रकाश पाडतो श्री हीरालालभाई र. कापडीया द्वारा लखायेलो अभ्यास पूर्ण लेख जैन ग्रंथकारोए करेलो नामनिर्देश' अत्रे साभार प्रकाशित कर्यो छे.
आ अंकथी गुरुवाणी हेडींग हेठळ ज्ञानमंदिरना प्रेरणामूर्ति अने श्रुतसागरना आशीर्वाद प्रदाता प. पू. आचार्य भगवंत गुरुदेवश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. साहेबे समय-समय पर आपेला प्रवचनो अने प्रेरणा-पीयुषने पूज्य गुरुभगवंतश्रीना विविध पुस्तकोमाथी संकलित करी अत्रे प्रकाशित करेल छे.
साथे-साथे ऐतिहासिक सामग्री रूपे श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा तीर्थना परिसरमां आवेल महावीरालय अने आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरना रत्नमंदिरमा बिराजमान प्राचीन धातु प्रतिमाना लेखो अत्रे प्रकाशित कर्या छे.
पूज्य गुरुभगवंतश्रीना ७९मां जन्म वर्धापन महोत्सवे प्रसंगोपात पठन थयेल पूज्य गुरुदेवश्रीना गुणोने वर्णवती बे कविताओ पण आ अंकमां प्रकाशित करी छे.
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरमा संगृहीत हस्तप्रत अने कृति साहित्य अंगे वाचकोने परिचय मळे ए हेतुथी पूज्य गुरुभगवंतश्रीना जन्मदिवस पर प्रकाशित कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूचिना-१६मां भागनुं संक्षिप्त अवलोकन अत्रे प्रस्तुत कयुं छे.
तेमज दर वखतना अंकनी जेम आ वखते पण तीर्थ परिचय अंतर्गत श्री नागेश्वर पार्श्वनाथ भगवानना नागेश्वर तीर्थनो (राजस्थान) परिचय अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. प्रस्तुत लेखमां नागेश्वर पार्श्वनाथ भगवाननी प्रतिमा तेमज नागेश्वरतीर्थना परिसर- चित्रण आप्युं छे. तो साथे-साथे आ तीर्थनी साथे संकळायेली ऐतिहासिक विगतने पण संक्षिप्तमां नोंधी छे.
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मिरचकल्प
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हिरेन के. दोशी
कल्प एटले आचार, विधान, विधि इत्यादि, अहिं मिरच एटले मरचुं, ए शब्दनी पाछळ कल्प शब्द लगाडी मिरच कल्प' शब्द बन्यो छे. हवे प्रश्न थशे के 'मिरचकल्प' नो अर्थ शुं? तो मिरच = मरचु तेनो कल्प = विधि. मरचाने वापरवानी, उपयोगमां लेवानी विधि. फरी मुंझवण थशे, शेना उपयोगमां ? खोराकमां तो खरू पण साथ आयुर्वेदमां पण ते कई रीते? मरचाने कइ रीते? कया द्रव्यनी साथे ? केटली मात्रामा लेवाथी ते रोगोनो नाश करे आवी समजण आपतो ग्रंथ एटले मिरच कल्प. जो के एटलुं पण चोक्कस छे. के गुरुगम (ते विषयनी जाणकार व्यक्तिनी सहाय) वगर कराता आवा प्रयोगो क्यारेक ओछा-वत्ता अंशे नुकशान करनारा थाय छे। अने आ वात बधा ज कल्पने एक सरखी रीते लागु पडे छे. अहिं ग्रंथकारे मरचानुं सेवन कया रोगोने मटाडे छे तेनी सुंदर माहिती आपी छे.
ग्रंथकारनुं नाम कृतिमां नथी छता हस्तप्रतनी लेखन पद्धति उपरथी आ प्रत प्रायः १९ मी सदीना पूर्वार्धमां लखाइ हशे तेवुं अनुमान छे. १-२ जग्याने बाद करता प्रतालेखन शुद्ध थयुं छे. वैदकशास्त्रनी दृष्टिथी औषधो पण लखाया होवाथी जैनसंप्रदायनी आहार संबंधी मान्यताथी विरुद्ध औषधो ग्रंथकारे नोंध्या छे, छता अहिं ते बाबतोने वाचकोना अभ्यासार्थे यथावत् राखी छे जे वाचकोए ध्यानमां लेवु. मरचाना कल्प सिवाय पण वैदक कल्प तरीके ओळखावी शकाय तेवा काळामरीनो कल्प, त्रिफळानो कल्प, पिपरीनो कल्प, बीलीनो कल्प, तलनो कल्प, अंकोल कल्प, झेरीनाळीयेरनो कल्प, निम्ब (लीमडो)नो कल्प जेवा घणा कल्पो भिन्न भिन्न ज्ञानभंडारोमांसचवाया छे. आ ज रीते मंत्रशास्त्रनी साथै संकळायेला पद्मावतीकल्प, घंटाकर्णकल्प, २४ तीर्थंकर यक्ष-यक्षिणीकल्प, पनरीया-वीसायंत्रकल्प, दक्षिणावर्तशंखकल्प, भैरवकल्प विगेरे कल्पो मंत्रकल्प तरीके ओळखाय छे. आ सिवाय श्राद्धजीतकल्प, जीतकल्प जेवा बीजा केटलाक आचारसंबंधी पण कल्पो छे वाचकोर ते ध्यानमा लेवु. संपादन माटे प्रस्तुत प्रतनी झेरोक्ष आपवा बदल श्री रत्नाकरसूरिजी जैन ज्ञानमंदिर (महुवा) ना व्यवस्थापक श्री भूपतभाइनो खूब खूब
आभार.
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अक्तूबर - २०१३ ।। अथ मिरचकल्प लिख्यते ।। मिरच गोलसुं' दीजे तो अग्नि दीपे ।। १ मिरच आझाझाडाना रससुं दीजे तो कमलो जाई ।। २ मिरच सीघालूंण घी गायनो पावें तो पांणी विकार मिटें ।। ३ मिरच नींबोली' सींधव गायना घी साथें दिन ३ पावीजें तो हडकीया स्वान विष जाई ।। ४ मिरच आदासु दीजें तो कफ जाइं ।। ५ मिरच घी पीवें तो कामवृद्धि होइं ।। ६ मिरच पाणीसुं पीवें तो भ्रम जाई ।। ७ मिरच किरायतासु पीवें तो ताव जाई ।। ८ मिरच तुलसीरससुं पीवें तो सन्निपात जाई ।। ९ मिरच खांडसुं पीवें तो उनिद्रो जाइं ।। १० मिरच मिश्रिसुं पीवें तो कंठशोष जाई ।। ११ मिरच तेलसुं पी तो स्वास जाई ।। १२ मिरच नीतसुं पीवें तो आफरो जाइं ।। १३ मिरच अक(वय?)णीसु दीजें तो सोजो जाइं ।। १४ मिरच अरडुसासुं पीजें तो खस जाई ।। १५ मिरच वडवायीसुं अनें दहीसुं लीजें तो अतिसार जाइं ।। १६ मिरच विउ साथे दीजे तो रक्तविकार जाई ।। १७ मिरच छालीरा नीतसुं३ दीजें तो पीलीयो जाई ।। १८ मिरच एलीयो दीजें तो पेटविकार जाई ।। १९ मिरच तुलसीरससुं अंजन कीजें तो वासी विष जाई ।। २० मिरच दहीसु दीजे तो सीसक जाइं ।। २१ मिरच गायना मूत्रसुं दीजें तो आफरो मिटें 11 २२ मिरच छासितूं पीवें दिन ४९ तो पांडुरोग जाइं ।। २३ मिरच सुचल हर. उन्हा पाणीसुं दीजें तो अजीर्ण जाई ।। २४
|| इति मिरचकल्प ।। १, गोळ, २. जठराग्नि, ३. लींबोडी, ४. आईं, ५. करियातुं. ६. अनिद्रा, ७. साकर, ८. वायुना विकारथी थतो रोग, ९. अरणी?, १०. वडवाई, ११. ? १२. बकरी, १३. माखण.
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'भक्तामर स्तोत्र' की दो सचित्र पोथियाँ
श्रीमती ममता गोदारा (चौधरी)
हमारी धार्मिक सचित्र पोथियाँ हमें कलात्मक रूप से आनन्दानुभूति करवाते हुए धार्मिक आस्था तो जागृत करती है। साथ ही हमें अपने पूर्वजों के सांस्कृतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक विकास की झलक भी दिखाती है। जैन धर्म की अनेक चित्रपोथियाँ ११०० ई. स. से १८०० ई. के मध्य में विशेष रूप से लिखी गई है। इस प्रकार की पोथियों से भविष्य में कला एवं शैली की एक आधारशिला स्वरूप इस कलाधारा का ऐतिहासिक महत्त्व है। कला एवं भक्ति के संगम स्वरुप है। भक्तामर स्तोत्र की सचित्र पोथीयाँ। जिसके भक्ति भाव से ओत-प्रोत शब्दों व चित्रों में वो प्रभाव है जो नास्तिक व्यक्ति के हृदय में भी आस्था के फुल खील जाते है।
दिगंबर परंपरा के अनुसार 'भक्तामर स्तोत्र' का असली नाम 'आदिनाथ स्तोत्र' है। इसमें प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ की भाव पूर्ण स्तुति की गई है। इसके प्रारम्भ में 'भक्तामर' शब्द का प्रयोग होने से इस स्तोत्र का नाम 'भक्तामर स्तोत्र' के रूपमें प्रसिद्ध हुआ । इस स्तोत्र की प्रसिद्धी इतनी है कि प्रमुख ज्ञानभण्डारों एवं ग्रंथागारो में दस से लेकर पचास से भी अधिक प्रतियाँ प्राप्त होती हैं । इसकी स्वर्णाक्षरी एवं सचित्र प्रतियाँ तथा काव्य मंत्र-यंत्र गर्भित प्रतियाँ भी प्राप्त होती हैं। इनमें सचित्र प्रतियाँ तो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । कुछ सचित्र प्रतियों का परिचय प्रस्तुत है ।
जयपुर के श्री दिगम्बर जैन तेरह पंथी बड़ा मन्दिर में संग्रहित 'भक्तामर स्तोत्र' की एक सचित्र पोथी
परिचय : जयपुर के तेरहपंथी बड़े मंदिर में 'भक्तामर स्तोत्र' की एक सचित्र पोथी है। जिसमें चित्रकारों ने स्तोत्र के भाव को चित्र के रूप में उपरोक्त पोथी में व्यक्त किया है। प्रत्येक चित्र में एक-एक पद्य भाग को प्रदर्शित किया गया है इन चित्रों में भक्ति के विभिन्न पहलुओं का सुन्दर उभार प्रदर्शित किया है। इस पोथी में १५६ पत्र हैं। यह प्रति श्री हेमराज हेतु पं. रायमल्ल द्वारा संवत् १६६७ में लिखी गई थी। स्तोत्र का लेखन काल संवत् १६६७ (ई. सन् १६१० ) ई. और चित्रालेखन संवत् १८३० (ई. १७७३) में बनाए गए है। इस तरह से इसके
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अक्तूबर • २०१३ चित्र २३९ वर्ष प्राचीन है। ऐतिहासिक महत्त्व की यह सचित्र पाण्डुलिपि अनुपम है अनूठी है। ___ पोथी में प्रत्येक श्लोक के भाव की रचना चित्र में दी गई है। इसमें ५१ चित्र बने हैं। तीन चित्र प्रारम्भ में बने हैं और ४८ श्लोक के चित्र हैं। ये चित्र राजस्थानी शैली से प्रभावित है। पत्र का परिमाण १२४१४ इंच है। प्रत्येक चित्र में चारों ओर फूल-पत्ती एवं वेल-बुट्टा की आकृति का चित्रण प्राप्त होता है। मध्य में वेदीका के उपर सिंहासन पर श्री आदिनाथ भगवान विराजित हैं। सिंहासन एवं वेदिकाएँ विविध प्रकार की मनोहर चित्रकारी से चित्रित हैं। वेल-बुट्टा एवं फूल-पत्ती के चित्रण में सुवर्ण का उपयोग कीया गया है।
चित्र की विशेषता यह है कि चित्रकारने देव-देवी के चित्र को बड़ी सुंदरता प्रदान की है। साथ ही देव-देवी के चित्रण में उनकी वस्त्रविभूषा, अलंकारो पर बड़ी खूबी से अपनी चित्रकला का प्रयोग किया गया है। खास कर अलंकारो में कंगण की एक-एक मोरी, हार के एक-एक मणि, मुकुट की साज-सज्जा, कलगी में मणि और चारों ओर मुक्ताफल इत्यादि के चित्रण में कलाकारने अपनी कला से चित्र को अत्यधिक प्रभावित किया है।
प्रस्तुत चित्रों का वर्ण-विधान अतीव सजग एवं सशक्त है। मुख्यतः लाल, पीला, हरा, भूरा, आसमानी, नारंगी, गुलाबी, स्लेटी, सफेद, काला, व बैंगनी रंगों की हल्की तथा गहरी तानों का प्रयोग किया गया है। मानव आकृतियों की चित्रित वर्णिका व्यक्तियों के स्तरानुसार संयोजित की गई है। मानवाकृतियों में हल्के भूरे, सफेद रंग का अधिक मिश्रण कर गोरवर्ण व कुछ स्थानो पर हल्का गुलाबी रंग भी मिश्रित किया हुआ नजर आता है।
श्री आदिनाथ भगवान के चित्रण में स्वर्णिम वर्ण का प्रयोग किया गया है। कुछ चित्रों में स्वर्णिम वर्ण में हरा व काला रंग मिलाकर तान में गहरापन लाया गया है। कुछ जगहों पर चटक पीले रंग का प्रयोग भी किया गया है। आकाश में सफेद रंग के घुमावदार बादल चित्रित किये गये हैं। तो कहीं लहरदार रेखाओं के समुह का चित्रण भी चित्र को निखार दे रहा है। रात्रि के चित्रण में काले रंग का मिश्रण कर गगन में चाँद-तारों का अंकन किया गया है।
इस पोथी के सभी चित्रों के चारों ओर लाल रंग की मोटी पट्टी (किनारी) बनाई गई है। उसके पश्चात् काले रंग की महीन दुहरी रेखाएं खींची हुई हैं।
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श्रुतसागर - ३३ प्रत्येक चित्र के चारों ओर फूल-पत्ती का चित्रण किया गया है। उसके पश्चात् फिर से लाल रंग की उससे पतली पट्टी (किनारी) बनाई गई है जिसके दोनों ओर काले रंग की महीन दुहरी रेखाएं खींची हुई है। उसके बाद बीच में शेष स्थान पर चित्र बनाये गये हैं। सभी आकृतियों में महीन काले रंग की सीमांत रेखा द्वारा चित्रों को अलंकृत किया गया है। कला की दृष्टि से यह पाण्डुलिपि अत्यन्त ही उच्च कोटी की है। श्री अगरचन्दजी नाहटा के शब्दों में यह पोथी अपने में निराले ढंग की है।
पशु पक्षियों का विषयनुरूप सजीव चित्रण किया गया है। चित्रण में गति का आभास होता है। शेर के चित्र में कुछ जगह स्लेटी रंग का प्रयोग किया गया है बाकी सभी प्राकृतिक रंगों से ही बनाये गये हैं। प्रकृति (दृश्य-चित्र) वास्तु (भवन) आदि का चित्रण अत्यन्त सुंदर किया गया है। पेड़ की एक-एक पत्ती को दर्शाया गया है तो वहीं वास्तु को फूल पत्तियों व गुम्बजों से अत्यन्त अलंकृत करते हुए बनाया गया है।
यह सचित्र हस्तप्रत में निम्नवत् लिखी गई है - भक्तामर स्तोत्र के एक श्लोक के सामने चित्र पश्चात् रायमल्ल कृत संस्कृत टीका, एवं उसके बाद हेमराज कवि कृत हिन्दी पद्यानुवाद तत्पश्चात् धनदास कवि कृत हिन्दी पद्यानुवाद धनदास कवि द्वारा रचित हिन्दी सवैया का गद्य भाषान्तर भी साथ में दिया गया है। प्रत्येक श्लोक के साथ मंत्रविधि एवं प्रत्येक श्लोक की पूजा एवं मंत्रपाठ के द्वारा प्राप्त फलदर्शक कथा का भी आलेखन कीया गया है। इस अपूर्व ग्रंथ में राजस्थानी शैली से प्रभावित प्रत्येक चित्रो के चित्रकार भरतपुर(राज.) के निवासी थे। चित्रों पर शैली प्रभाव -
कला की दृष्टि से इस प्रति के चित्र उच्चस्तरीय हैं। उन पर मुख्यतः राजस्थानी शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। रेखाओं में शक्ति एवं प्रभाव दर्शनीय है । चित्रों के मध्य प्रकृति की अनुपम छटा लघु-दीर्घ पुष्पों के रूप में बिखरी हुई दृष्टिगोचर होती है।
इन चित्रों का समय वह है जब राजस्थानी व मुगल शैलियाँ अपने पूर्ण यौवन पर थी। इस प्रति के चित्र मुख्यतः मेवाडी शैली के सादृश है। किन्तु मेवाड़ पर उन दिनों मुगलों का अधिकार हो चुका था।' अतः इन पर मेवाड़ चित्र शैली
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१०
अक्तूबर - २०१३ के साथ मुगल एवं फारसी की चित्र शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है।
जयपुर के श्री दिगम्बर जैन मन्दिर में संग्रहित
___ 'भकामर स्तोत्र' की सचित्र पोथी परिचय - सुभगणी द्वारा रचित 'भक्तामर स्तोत्र' की एक सचित्र पोथी जयपुर के श्री चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैनमन्दिर में स्थित है। यह पोथी संस्कृत भाषा में मूल श्लोक, गद्य-पद्य मंत्र यंत्र, कथा सहित संवत् १८४२ (ई. स. १७८५) में लिपिबद्ध है। इसके चित्रों सहित कुल पत्रों की संख्या १०६ है।
चित्रविहीन प्रत्येक पत्र पर सुन्दर अक्षरों में लिपिबद्ध मूलपाठ १३ पंक्तियों में अंकित है। इसमें २४ चित्रों के अतिरिक्त मंत्र यंत्र के चित्र भी समाविष्ट हैं, जिसमें कुछ के मध्य में व उपर आदिनाथ भगवान के चित्र बनाये गये हैं, अन्य चित्र सम्पूर्ण पृष्ठ पर बनाये गये हैं। जिनमें क्षितिज रेखा का पूर्णतः अभाव है यह पोथी मुख्यतः मुगल शैली से प्रभावित है।
गोल चेहरा, कर्ण स्पर्श करते विशाल नेत्र, कन्धो को स्पर्श करते कर्ण, अत्यधिक विशाल उठे हुए वक्ष, क्षीण कटि, पद्मासन की मुद्रा में बैठे हुए आदिनाथ भगवान का चित्रण किया गया है। अन्य आकृतियों में सुन्दर सुगठित मनुष्य एवं देव आकृतिओ का अंकन है 1 देवताओं को घुटनों से हल्का नीचे तक की ऊंची धोती जिसके सम्मुख में एक साथ बहुत सी घुम तथा विस्तृत छोरों वाले लहराते दुपट्टे का अंकन है। तो मनुष्य आकृतियों में विविध प्रकार की पगड़ी, विस्तृत छोरों वाला पटका, विस्तृत छोरों वाले लहराते दुपट्टे का अंकन है चूड़ीदार पायजामा व घुटनों तक लम्बा जामा पहने चित्रित किया गया है।
एक चित्र में घुमेरदार छाया प्रकाश की तान से युक्त घने वृक्ष का अंकन व जिस पर से झड़ते फुल व मंडराते पक्षियों का अंकन बना है । तो एक चित्र में कमल पुष्पों को सौन्दर्य युक्त बहुत ही कलात्मक रूप से अंकित कीया गया है। ___ आकाश में उमड़ते-घुमड़ते लहरदार बादलों का यथार्थ चित्रण किया गया है (राजस्थानी प्रभाव) व सूर्य, चन्द्रमा व तारो का भी अंकन किया गया है । लहरों से युक्त एक पट्टी के रूप में सागर का अंकन किया गया है, जिसमें मगरमच्छ व डुबते मनुष्य का सजीव चित्रण किया प्राप्त होता है । साथ ही इस प्रति में पशु आकृतियों का विषयानुरूप बहुत ही सजीव व यथार्थ चित्रण किया
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श्रुतसागर • ३३ गया है। अश्व, हस्ति एवं सिंह की बलिष्ठ ग्रीवा व गतियुक्त, शरीराकृतियों के अंकन में सूक्ष्मता एवं उत्तम चित्रकला का वैशिष्ट्य प्रदर्शित कीया है। पिओं पर शैली प्रभाव
भक्तामर स्तोत्र की प्रस्तुत सचित्र पोथी ऐसी है जिसमें मूलरुप से मुगल चित्र शैली का प्रभाव है। इन चित्रों में मुगल कलम जैसी सुकुमारता, सम्मोहकता व सुरूचिता प्रकट होती है। पृष्ठभूमि में धुंधले रंगो का प्रयोग व चित्रों में विषयागत आकृतियों का अंकन है। सौंदर्य की दृष्टि से किसी प्रकार का अंकन नहीं किया गया है इन चित्रों में स्त्री आकृति का पूर्णतः अभाव है। इस प्रति के चित्रों में मुगल कलम की सी कोमलता व यर्थातता के साथ-साथ फारसी चित्र शैली के विभिन्न तत्त्वों की झलक भी देखने को मिलती है जो मुगल शैली में समाहित हो गये थे। यह प्रति इस शैली की अन्य सचित्र पोथियों से यह श्रेष्ठ है।
संदर्भ १. भक्तामर स्तोत्र महामण्डल पूजा विधान, हीरालाल जैन, दिल्ली, १९९९, पृ.४ २. 'भक्तामर स्तोत्र' - एक दिव्य दृष्टि, साध्वीजी श्री दिव्यप्रमा, जयपुर, १९९२, पृ.८ ३. भक्तामर स्तोत्र, रायमल, जयपुर, २००५, पृ. ७ ४. भक्तामर स्तोत्र की सचित्र प्रतियाँ, श्री अगरचंदजी नाहटा श्रमण पत्रिका,
फरवरी १९७१, वारणसी. पृ. १६ । ५. यशोधरचरित : सचित्र पाण्डुलिपियाँ, कमला गर्ग, दिल्ली, १९९१, पृ. ८३
अनुसंधान पेज नं. १६नुं कोबातीर्थना धातु प्रतिमा लेखोनी संकेतसूचि भा. = भार्या
सु. = सुदि, सुत व्य. = व्यवहारी
सो. = सोनी प्र., प्रति. = प्रतिष्ठितं
म. = भष्टारक दो. = दोशी
पं. - पंडित सं. = संघवी, संघवण?
ऊ. = ऊपकेशगच्छे सि. = सिद्धाचार्य?
ज्ञा. = ज्ञातीय
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જૈન ગ્રંથકાએ કહેલો નામ-નિર્દેશ
શ્રી હીરાલાલ રવિદાસ કાપડિયા દરેક ગ્રંથનું નામ એના કર્તાએ સૂચવવું જ જોઇએ એવો કંઇ નિયમ નથી; એથી કરીને આજે પણ આપણા ભારતીય સાહિત્યમાં એવા અનેક ગ્રંથો મળી આવે છે કે જેમાં એ ગ્રંથનું નામ એના કર્તાએ સૂચવેલું જણાતું નથી કિન્તુ પાછળથી કોઇએ એનું નામ પાડ્યું હોય એમ જણાય છે. આવી પરિસ્થિતિમાં ગ્રંથકાર પોતાનું નામ સ્પષ્ટ કે અસ્પષ્ટ રીતે પોતાની કૃતિમાં ન સૂચવે તો તેમાં કિંઈ નવાઈ જેવું નથી.
નામ નહિ સૂચવવાનું એક કારણ એમ બતાવાય છે કે આપણા દેશના તત્ત્વજ્ઞાનીઓ અને ગ્રંથકારો પોતપોતાના શાસન કે સંપ્રદાયની સેવા કરનારા હતા એટલે તેમને પોતાના નામ કરતાં એ શાસન કે સંપ્રદાયની કિંમત વધારે હતી. વિશેષમાં તેમનું માનવું એમ હતું કે પોતાની કૃતિ કંઇ સ્વતંત્ર નથી, પરંતુ એ તો પ્રાચીન ઋષિઓ ને મુનિઓ તરફથી વારસા તરીકે જે જ્ઞાન સમૃદ્ધિ મળી છે તેનું એ યત્કિંચિત્ પ્રકાશન છે.
અસલના વખતમાં ગ્રંથકારો આ સારું પોતાનું નામ નહિ જણાવતા હશે તેનાં કારણોમાં ઊંડા ઉતરવા માટે આ લેખમાં સ્થાન નથી એટલે પ્રસ્તતમાં જે જૈન ગ્રંથકારોએ પોતાનાં નામો મોટે ભાગે આડકતરી રીતે સૂચવ્યાં છે તેમાંના કેટલાકનો અહીં ઉલ્લેખ કરવામાં આવે છે.
સૌથી પ્રથમ આપણે પ્રાકૃત સાહિત્ય તરફ નજર કરીશું તો જણાશે કે નિસીહસુર (નિશીથસૂત્ર) નામના છેવસુર (દસૂત્ર)ની વિસેકચણિ (વિશેષચૂર્ણિ)ના રચનારા શ્રી જિજ્ઞાસ (જિનદાસ) ગણિ મહત્તરે પોતાનું નામ એ કૃતિના અંતમાં આડકતરી રીતે દર્શાવ્યું છે. આ રહ્યાં છે પદ્યો :
"ति-चउ-पण-अट्ठमवग्गा ति-पण-ति-तिगअक्खरा व ते तेर्सि। पठम-तितिएहिं ति-दुसरजुएहिं णाम कयं जस्स ।। गुरुदिण्णं च गणित्तं महत्तरत्तं च तस्स तुठेहिं ।। तेण कएसा चुण्णी; विसेसनामा णिसीहस्स ।।"
આ પદ્યમાં કેવી રીતે “જિણદાસ' નામ સૂચવાયું છે તે અત્રે બતાવવું અનાવશ્યક નહિ ગણાય. અ, ક, ચ, ટ, ત, ૫, ૭ ને શ. એમ આઠ વર્ગો છે. એમાંના ત્રીજા, ચોથા, પાંચમાં અને આઠમા વર્ગના અનુક્રમે ત્રીજા, પાંચમાં, બીજા અને ત્રીજા
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श्रुतसागर - ३३
१३
અક્ષરો એટલે કે જ, ણ, દ, ને સ. એ અક્ષરો લઇ એમાંના પહેલા ‘જ' અને બીજા ‘દ’ સાથે પહેલા વર્ગના ત્રીજા અને બીજા અક્ષર એટલે કે ‘ઇ' ને 'આ' ઉમેરવા. આમ કરતાં જિણદાસ એવું નામ બને છે.
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પુષ્પમાલાપ્રકરણ એ નામથી પણ ઓળખાતી અને શ્રીઅભયદેવસૂરિના શિષ્યે (આ. શ્રી હેમચંદ્રસૂરિ) રચેલી ઉપદેશમાલાના નીચે મુજબના
'हेममणिचंददप्पणसूरिरिसीपढमवननामेहिं ।
सिरिअभयसूरिसीसेहिं विरइयं पगरणं इणमो ।। ५०१ ।। "
- ૫૦૧માં પદ્યમાં રહેલા કર્તાએ પોતાનું નામ દર્શાવ્યું છે. આ હકીકત ઉપર્યુક્ત પદ્યના પૂર્વાર્ધગત હેમ, મણિ, ચંદ, દુપ્પણ, સૂરિ ને રિસી શબ્દનો પ્રાથમિક અક્ષર લેતાં જણાઇ આવે છે.
શ્રી જિનવલ્લભસૂરિએ સંઘપટ્ટકના નિમ્નાવતારિત - " विभ्राजिष्णुभगर्व्वसस्मरमनासादं श्रुतोल्लंघने सज्ज्ञानद्युमणि जिनं वरवपुः श्रीचन्द्रिकाभेश्वरम् । वन्दे वर्णमनेकधा सुरनरैः शक्रेण चेनश्छिदं
दम्भारिं विदुषां सदा सुवचसाऽनेकान्तरङ्गप्रदम् ।। ३८ ।।"
-
૩૮મા પદ્યમાં ચક્રબંધ' દ્વારા પોતાનું નામ દર્શાવ્યું છે. આ કૃતિની ટીકામાં એવો ઉલ્લેખ છે કે આ ચક્રબંધ કવિરાજ માઘકૃત શિશુપાલવધ (સ. ૧૯, શ્લો, ૧૩૦)ને મળતો આવે છે અને એમાં જેમ “માથકાવ્યામિĒ” એવા અક્ષરો ઉપલબ્ધ થાય છે તેમ અહીં ‘જિનવલ્લભન' એમ પ્રાપ્ત થાય છે. આ હકીકત ઉપર આપેલા પદ્યના પહેલાં ત્રણ ચરણોમાંથી દરેકની ત્રીજા અને ૧૮માં અક્ષરો મેળવતાં જણાઇ આવે છે.
શ્રી સોમતિલકસૂરિએ ‘શ્રી સોમતિલકસૂરિવિરચિત' એવો ઉલ્લેખ પોતે રચેલ એક સ્તોત્રના નિમ્નલિખિત
૧. મુંબઇ સરકારની માલિકીની જે હસ્તલિખિત પ્રતિઓ અહીંના “ભાંડારકર પ્રાચ્ય વિદ્યા સંશોધન મંદિર”માં છે તેમાંની જૈન પ્રતિઓનાં વિસ્તૃત ને વર્ણનાત્મક સૂચિપત્ર તૈયાર કરતી વેળા આ ચક્રબંધ તૈયાર કરાયો હતો. તે હાલમાં આ ભાંડરકર સંસ્થા તરફથી ટૂંક સમયમાં પ્રસિદ્ધ થનાર ત્રૈમાસિક (વ. ૧૭, અં. ૧) ગત મારા લેખમાં ૮૫માં પૃષ્ઠની સામે આપેલો છે.)
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૧૪
अक्तूबर - २०१३ "यस्त्वां श्रीजिन! सूदितोत्मदमनश्चोरः प्रणौति श्रमं जित्वा सोठगरिष्टकष्टदहनं शोचिण्णुभालद्युतम् । दत्ताऽमत्यपवित्रसंमद्! पठन् कान्तं विशङ्कः स्तवं वन्द्यान्हाय भवान् जिनः प्रददतामन्येऽपि तस्मै शिवम् ।। १२ ।।"
- પદ્યમાં કરેલો છે. આ હકીકત આ પઘનાં પહેલાં ત્રણ ચરણો પૈકી પ્રત્યેકના ત્રીજા, સત્તરમા, છઠ્ઠા અને ચૌદમા અક્ષરો એકત્રિત કરતાં સ્પષ્ટ થાય છે.
કેટલાક ગ્રંથકાર પોતાનું નામ લેપ દ્વારા જણાવે છે. દાખલા તરીકે પરમાતું ધનપાલ (ધણહાલ) કવિએ ઋષભપંચાશિકાના અંતિમ પદ્યમાં એ પ્રમાણે કર્યું છે, આ રહ્યું છે પદ્ય :
"इय ज्झाणग्गिपलीवियकम्मिंधण बालबुद्धिणावि मए। માંડ શુગ મનમયમુકવોશિયલોષ્ટિનો || ૫૦ II"
પોતાનું આખું નામ પદ્યમાં બરાબર સૂચવાય તેમ ન હોય ત્યારે તેને વિભક્ત કરી સૂચવવામાં આવે છે. જેમકે શ્રી સમયસુંદર ઉપાધ્યાયે કપત્ત (કલ્પસૂત્ર)ની કલ્પલતા નામની ટીકાના પ્રત્યેક વ્યાખ્યાનના અંતમાં એ પ્રમાણે કર્યું છે, પ્રસ્તુતમાં આપણે અહીં પહેલા વ્યાખ્યાનની પૂર્ણાહુતિરૂપ પદ્યની નોંધ લઈશું. એ પદ્ય નીચે મુજબ છે :
"व्याख्यानं कल्पसूत्रस्य प्रथमं सुगम स्फुटम् । शिष्यार्थं पाठकाश्चक्रुः समयादिमसुन्दराः ।।" ।
પોતે અજ્ઞાત રહેવા ઇચ્છતા હોય તેથી કે પછી અન્ય કોઇ કારણસર કેટલાક ગ્રંથકાર પોતાનું નામ ન સૂચવતાં પોતાના ગુરુનું નામ સૂચવે છે. આવું એક ઉદાહરણ શ્રીજિનપ્રભસૂરિફત જિનાગમસ્તવની અવચૂરિનું નીચે મુજબનું પદ્ય પૂરું પાડે છે
"ध्यायन्ति श्रीविशेषाय गता वेशालयेन यम्। स्तुतिद्वाराजयोदः श्रीवीरगुरुगोरवः ।।"
આ પઘમાં “શ્રીવિશાલરાજગુરુ” એમ પોતાના ગુરુનું નામ ગુપ્ત રીતે સૂચવાયેલાની હકીકત એ જ અવચેરિકારે નીચે મુજબના
"आदिगुप्तामिधानस्य गुरोः पादप्रसादतः। પાવવિજેતપેય વિવૃત્તિલિંરિકતા મયા |*
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श्रुतसागर • ३३
- પદ્ય દ્વારા રજુ કરી છે, પરંતુ દરેક ચરાના ચોથા અને પાંચમા અક્ષર એકત્રિત કરવાનું ત્યાં સુચન નથી. એ તરફ મારું ધ્યાન વિકલ્લભ મુનિરાજ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ સૂચવ્યું હતું જે બદલ હું એમનો આભારી છું.
વિવેકવિલાસના નીચે લખેલા"जीववत् प्रतिमा यस्य वचो मधुरिमाञ्चितम्। देहं गेहं श्रियस्त्वं स्वं वन्दे सूरिवरं गुरुम् ।।"
- પદ્યમાંના પ્રત્યેક ચરણનો પ્રથમ અક્ષર લેવાથી “જીવદેવ” એવું નામ બને છે. આ પ્રમાણે આપણા જૈન સાહિત્યની અનેકવિધ વિશિષ્ટતાઓમાંથી એકનો ઉલ્લેખ કરી હું રાલ તો વિરમું છું, જો કે સાથે સાથે એટલું ઉમેરું છું કે બીજી વિશિષ્ટતાઓનો હવે પછી નિર્દેશ કરવા વિચાર રાખું છું.
(જન સત્યપ્રકાશ વર્ષ-૧, અંક નં.જાંથી સાભાર)
સુવાક્યો
મહેનતનો રંગ મંદીના રંગ કરતાં વધારે લાંબો ટકે છે. અને વધારે ઊજળો ઊપસે છે. છે જ્યાં આપવાનું વધારે છે અને લેવાનું ઓછું છે ત્યાં
સંબંધોને જામતાં બહુ વાર નથી લાગતી. જ પરિસ્થિતિ વાદળ જેવી છે, સૂર્યને ઢાંકી દે છે પરંતુ વાદળો વરસી જાય છે કે હટી જાય છે પછી સચ્ચાઈનો સૂર્ય પ્રગટે છે. આવું ઘર્ષ એ આપણી સમજણ છે. રસ્તો ક્યાંય જતો નથી. એના પર ચાલનારા જ ક્યાંક પહોંચતા હોય છે. અડચણને આત્મવિશ્વાસથી પાર કરવામાં માણસાઈનું મહત્ત્વ છે. જિગરનું જોમ સાચા અને સારા પ્રારબ્ધની નિશાની છે.
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કોબાતીર્થના ઘાતુપ્રતિમા લેખો
હિરેન કે. દોશી પરમપૂજ્ય ગુરુદેવશ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા.ની પાવન પ્રેરણાથી નિર્મિત શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર સાધકો માટે આરાધના અને ઉપાસનાનું સુંદર સ્થાન બની રહ્યું છે. નૈસર્ગિક વાતાવરણના ખોળામાં પથરાયેલી લીલીછમ હરિયાળી, પક્ષીઓના મધુર કલરવ, ચોમેર છવાયેલી શાંતિને માણતા જ ભાવિકો પોતાની મનોદશામાં શુભત્વનો અનુભવ કરે છે. આ જ પરિસરમાં આવેલ ચરમતીર્થપતિ શ્રી મહાવીર મહારાજાનો દરબાર એટલે મહાવીરાલય
પરમાત્મા મહાવીરની પાવન કરુણાધારાનો અનુભવ મળી શકે એવું સ્થાન એટલે મહાવીરાલય
જ્યાં આજે પણ સૂર્ય પોતાના કિરણ દ્વારા પરમાત્માને નમસ્કાર કરી ધન્યતા અને સાર્થકતાનો અનુભવ કરે છે. એ સ્થાન એટલે મહાવીરાલય
શુભ અને શુદ્ધના જ્યાં ધોધ છલકાય છે એવા મહાવીરાલયમાં બિરાજમાન કેટલાક પ્રાચીન ધાતુપ્રતિમાના લેખો અત્રે પ્રસ્તુત કર્યા છે. જગ્યાના અભાવે લેખની સંકેતસૂચિ પેજ નં. ૧૧ ઉપર આપેલ છે. શ્રી રમણભાઇ મળવાય, જોdiet
।। सं. १५१२ वर्षे फागुण सुदि ८ शनी श्री हुंबडज्ञातौ बुधमात्रै दि. नरपाल भार्या पवी तत्पुत्र वि...सी व्य, तेजा भार्या गुरी एतेषां श्रेयोर्थ सं. नाकर नाम्ना भार्या सं. डाही सुत स. हरपति सहसाप्रमुख स्वकुटुंबसहितेन श्रीविमलनाथबिंब कारितं श्रीबृहत्तपागच्छे भ. श्रीजिनतिलकसरि भ. श्रीज्ञानकलससूरि भ. श्रीविजयतिलकसूरिपट्टे श्री विजयधर्मसूरिभिः प्रतिष्ठितं ।।श्रीः।। श्री संभवनाथ भगवान, पंचतीर्थी ___सं. १५२८ वर्षे का. शु. २ गुरौ सोनी श्रीमालज्ञा. सो. कडुआ भा. हीमी सुत सो. वीराकेन भा. सुंदरि सुत सिवदास-जेठा-गंगदा-जिणदासादि कुटुंबयुतेन श्रीशंभवनाथ बिबं कारापितं । प्र. तपा श्रीसोमसुंदरसूरिसंताने श्रीलक्ष्मीसागरसूरिभिः श्री।। श्री अजितनाथ भगवाब, पंचतीर्थी
सं. १४८७ वर्ष माघ सु. ५ गुरौ प्रा. ज्ञातीय श्रे. देदा भार्या गुरी पुत्र हरपालेन
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श्रुतसागर - ३३
१७ भार्या गोमतीयुतेन मातृपितृश्रेयोर्थ श्रीअजितनाथर्बिबं कारापितं ऊ. सि. प्रति. श्रीदेवगुप्तसूरिभिः। श्री आदिनाथ भगवान, चोवीशी
संवत १५०४ वर्षे वि(वै)शाख सु. २ श्रीश्रीमालज्ञातीय संघवी मेलग भार्या मेलादे सुत सिवा-सदाभ्यां स्वमातृपितृश्रेयसे श्री आदिनाथ चतुर्विंशति पट्टः कारितट्टे ब्रह्माणगच्छे श्रीमुनिचंद्रसूरिभिः प्रतिष्ठितं गोली वास्तव्य ।। श्री श्री आदिनाथ भगवान, चोवीशी
|| संवत १५३१ वर्षे माह वदि १ सोमे श्रीवायडज्ञातीय दो, चांपा भा. चांपलदे सु. दो. सहिसावार भा. पावी सु. दो. महीया गांगा मेघा वर्धमान स्व पुत्रा-पोत्रादि आत्मश्रेयसे वा. पांची नाम्न्या श्रीआदिनाथ चतुर्विशति पट्टः कारितः प्रतिष्ठितं श्रीवृद्धतपापक्षे श्रीज्ञानसागरसूरिभिः।। श्रीवटपद्रसू(षु) श्री वेगनपुरे पं. जयसुंदर गणिना || बमिनाथ भगवान, पंचतीर्थी
संवत् १६१७ वर्षे जेष्ठ सुदि ५ दिने श्रीपत्तन वासतव्यं । श्री उंसवालज्ञातीया दुरा। जइवंता भार्या बाइ जाणदे सुत पुरा जगपाल। भार्या टबकाइ। पुत्री। बाइ। लालबाई श्री नमिनाथबिंबं कारापितं पुन्यार्थं प्रतिष्ठितं श्री विजयदानसूरिभि श्री तपगच्छेः ।।
रत्नमंदिरमां विराजमान प्रतिमाना लेखो स्फटिकमय, सुमतिनाथ भगवाब, एकलतीर्थी
।। सं. १६८३ जे. सु. ३ थरादरावु. श्रीपति भार्या बा. मंगाईकेन सुमतिबिंब क.(का.) सा. तेजपालेन प्र.। श्शांतिनाथ भगवान, एकलतीर्थी
संवत् १६८१ वर्षे माह वदि १३ सोमे श्रीश्रीमाल वृद्धसाखायां सा. सं. धूआ भार्या गमनादे तत सुत सा. स्तपा सुत सा. पमराधेन(?) श्रीअंचलगच्छे श्रीतेजरतनसूरिणा उपदेशेन श्री शांतिनाथबिंबं प्रतिष्ठितं श्रीसंघ शुभं भवतु।। पाईनाथ भगवान, एकलतीर्थी । ___ सं. १६८३ जे. सु. ३ सोमे कडूआमती(ति) गच्छे उसवंशे वृद्धशाखायां भ. खीमजी भार्या बाइ जीवी सुत भ. प्रताप सीकेन श्रीपार्श्वनाथर्बिबं ४ तेजपालेन प्रतिष्ठितं ।।
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મ' t 1:
રાષ્ટ્રસંત પ. પૂ. આચાર્ય ભગવંત શ્રી વલસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સા. ની અમૃતવાણી)
ધર્મ ભયથી મુક્ત બનવા માટેના બે મુખ્ય માર્ગો છે: (૧) લૌકિક ઘર્મ, (૨) લોકોત્તર ધર્મ. જે ધર્મકાર્ય માં ફળની ઇચ્છા રહેલી છે તેનાથી સંસારની વૃદ્ધિ થાય છે, પરંતુ તે ધર્મ નથી, ભવોભવની પરંપરા છે. જ્યાં કોઈ આશા રહેતી
નથી, માત્ર નિર્વેદ છે, તે ધર્મ છે. જ મા જ્યારે બાળકને સ્તનપાન કરાવે છે, ત્યારે કપડું ઢાંકી રાખે છે; કેમકે બાળકને નજર ન લાગે તેવી રીતે ધર્મક્રિયાનો દેખાવ ન કરવો, તેમાં ગુપ્તતા જાળવવી, નહીંતર કર્મની નજર લાગી જાય. જીવનમાં ધર્મ ન હોય તો શરીર પડદા સમાન છે. એકલું શરીર પરોપકાર કે કલ્યાણ કરી શકતું નથી. છે જ્યાં મૈત્રીનો અભાવ હોય ત્યાં ધર્મ રક્ષા નથી આપતો. ભવવિરહની
સંપૂર્ણતા જીવનમાં ત્યારે લાગે છે કે જ્યારે સંયમ સિવાય ભવની સંપૂર્ણતા થતી નથી. આથી સાચું જ કહેવાયું છે કે ગૃહસ્થજીવનમાં ધર્મ કર્યા વિના ભવની પૂર્ણતા મળતી નથી. પ્રાણીમાત્ર સાથેની મૈત્રી જ ધર્મ છે. હૃદય અનુકંપાથી ભરાઈ જાય, સમ્યગદર્શન દઢ થાય ત્યારે ધર્મ લોકોત્તર સુખ દેવાવાળો બને છે. ધર્મનું મુખ વિનય છે. તેમાં આગળ વધો, જીવનને સક્રિય બનાવો, ને લક્ષ્ય સુધી પહોંચો. મૈત્રીભાવ, કારુણ્યભાવ, પ્રમોદભાવ, માધ્યસ્થભાવ-એ ચાર ભાવ ધર્મના ચાર આધારસ્તંભ છે. આ ચાર ભાવથી ધર્મનો સંપૂર્ણ પરિચય થાય છે. છે. જો તમારે ધર્મમય લગ્ન બનાવવું હોય તો લગ્ન વખતે ઉદાસીન ભાવ રાખવો, વિકાર જરાપણ થવા દેવો નહીં, ધામધુમ ન કરવી, પરણવા જતી વખતે પરમાત્માનું ચિંતન મનમાં કરવું ને “સર્વ સંસારનો ત્યાગ કરવો છે પણ ન છૂટકે પરણવું પડે છે એવી ભાવના રાખવી.
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श्रुतसागर • ३३ કે દુર્ગતિમાં જતા જીવને રોકી સદ્ગતિમાં મોલે તે ધર્મ. જ બંગલા, મોટર, સ્ત્રી, પુત્રો, ધન–આ બધું જ પર પદાર્થ છે, જે અહીંયાં
મૂકીને જ જવાનું છે. તે બધું સાથે નહીં આવે, ધર્મ જ સાથે આવશે. જીવનથી મૃત્યુ સુધીનો સંપૂર્ણ પરિચય ધર્મતત્ત્વની વ્યાખ્યામાંથી મળશે. બીજે
ક્યાંય નહીં મળે, જ ધર્મ કરવા માટે ભગવાને બે માર્ગ બતાવ્યા છે. એક તો સર્વથી પાપરહિત
સાધુધર્મ અને બીજો અલ્પ પળોમાં વધુ ધર્મ કરી શકે તેવો ગૃહસ્થ ધર્મ, જે
સર્વથા સંસારનો ત્યાગ કરી ન શકે ને ઘરે બેસીને પણ ધર્મ કરી શકે. જ ધર્મ કોઈ સંપ્રદાય કે વાડામાં નહીં મળે, પરંતુ ધર્મ આત્માની શુદ્ધતામાંથી
પ્રાપ્ત થશે, અંત:કરણની શુદ્ધતા-પવિત્રતા હશે ત્યાં ધર્મનો વાસ હશે. જ ધર્મના બે પ્રકારો છેઃ સાધુ ધર્મ અને ગૃહસ્થ ધર્મ. ગૃહસ્થ ધર્મના પણ બે પ્રકાર
છે: સામાન્ય ગૃહસ્થ ધર્મ અને વિશેષ ગૃહસ્થ ધર્મ. જ જે પોતાનાં સંતાનોને ધર્મના સંસ્કાર આપે છે, તે જ સાચા માતા-પિતા છે. તે સિવાય તે માતા-પિતા નથી પણ દુશમન છે. પોતાનાં બાળકોને ધર્મમાં વાળવા
એ માતા-પિતાની ફરજ છે. જ જો નાનપણથી જ ધર્મનાં સંસ્કારો પડ્યા હોય તો જ ઘડપણમાં ધર્મ થઈ શકે
છે. તે સિવાય ધર્મ ઘડપણમાં થઈ શકતો નથી. જેમ કે નાનપણમાં વાંચતાં લખતાં ન શીખાયું હોય તો પછી ઘડપણમાં કશું જ શીખી શકાતું નથી. છે અહિંસા, સંયમ અને તપનો ત્રિવેણી સંગમ જ ધર્મ. જ ધર્મના શિખરે પહોંચવા અહિંસા, સંયમ, તપ સાથે સેવાનાં પગથિયાં ચડતાં
શીખવું પડશે. છે આત્મા, ધર્મ અને કર્મ તેવા ત્રણ વિભાગ જીવનમાં છે. આત્મા એક છે, ધર્મ
એક છે, પરંતુ કર્મો ૧૫૮ છે. પણ જો આત્મા અને ધર્મ એક બની જાય તો ૧૫૮ કર્મોનો નાશ કરી દે. પણ જ્યાં સુધી આત્મા અને ધર્મ એક નહીં થાય ત્યાં સુધી કર્મની સત્તા રહેશે. ધર્મની ઉત્પત્તિ કેવી રીતે થાય છે?” તેવા અર્જુનના પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં શ્રી કૃષ્ણ કહ્યું છે કે “સત્યથી ધર્મનું પ્રાગટ્ય થાય છે.”
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२०
દૂર - ર૦૧૩ જીવનને પરિપૂર્ણ કરવા માટે ધર્મ કરવાનો છે. ધર્મ કરવાની યોગ્યતા નમ્રતામાં રહેલી છે. જેમ કે વરસાદ નીચે પડે છે, ઝરણું નીચે વહે છે. બધાં ઝરણાં મળીને નદી બને છે. નદી પણ નમીને વહે છે, સમુદ્રને મળીને મહાન સાગર બને છે. એવી જ રીતે આપણે પણ નમ્રતા રાખી સૌની સાથે મળીને મહાન
બનવું જોઇએ. જ ધર્મમાર્ગ અનુસાર બાર વ્રત, પાંચ મહાવ્રત, ચાર ભાવના સાથે લઈને જીવન માર્ગે ચાલવું. આખું જીવન પાપ કર્યું હોય અને છેલ્લે ધર્મ કરવા જાય તો ક્યાંથી બને? આગ લાગ્યા પછી કૂવો ખોદીએ તો? આપણે પહેલેથી જ જાતિ પ્રમાણે ધન ઉપાર્જન કરી ધર્મના સંસ્કાર આત્મામાં પાડીએ તો આવી સ્થિતિ ન થાય. ધર્મક્રિયા આચરવામાં આવતી અનીતિ પ્રાણઘાતક હોય છે. જ માનવભવ મળવો અતિ દુર્લભ છે, તેમાં પણ દેવ, ગુરુ અને ધર્મની પ્રાપ્તિ
થવી અતિ દુર્લભ છે. તમને ધર્મ કરવાના આ બધાય સંજોગો પ્રાપ્ત થયા છે.
હવે ધર્મ કરી લો, કારણ કે જીવનનો ભરોસો નથી. છે જો અનાચારથી બચશો તો જ ધર્મ કરવાની પાત્રતા પ્રગટશે. ધર્મ પણ પાત્રની યોગ્યતા વિના ટકતો નથી. જેમ દૂધ વાસણ-પાત્ર વિના ટકતું નથી, ઢોળાઈ
જાય છે તેમ ધર્મ પણ પાત્ર વિના ટકે જ નહીં. ક પ્રકાશની આડે અહમ્ની દીવાલ આવે છે. તે દીવાલને તોડી નાખવા માટે
પુરુષાર્થ કરવામાં આવે તો પ્રકાશનો ધોધ વહી રહે છે ને ત્યાંથી ધર્મ પ્રગટે
જ પૈસા ઘર સુધી સાથે રહેશે, કટુંબીઓ સ્મશાન સુધી અને ધર્મ પરભવમાં પણ તમારી સાથે આવશે. જે પરભવમાં સાથે આવશે તેની ખરી મિત્રતા રાખો, બધું જ છોડીને ચાલ્યા જવાનું છે, કશું જ સાથે નથી આવવાનું. માણસને ધર્મથી મળતું સુખ જોઈએ છે, પરંતુ અધર્મથી મળતું દુઃખ જોઈતું નથી. પણ ધર્મ કરવો નથી અને અધર્મને છોડવો નથી, તો ક્યાંથી દુઃખ ટળવાનું હતું ને સુખ મળવાનું હતું? કાંટા પાથરીને ગુલાબનાં ફૂલોની લહેજત લેવી છે તે કેવી રીતે મળે?
(જીવનનો અરૂણોદય ભાગ-૧માંથી સાભાર)
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प. पू. गुरुदेव आचार्य भगवंतश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के ७९ जन्मदिन पर पठित दो कविताएँ
जितेन्द्र शाह हीम से उज्जवल शशिसे शीतल, है गुरूवर ये रूप तुम्हारा, दर्शन पाकर आप के हमने, पलपल अपना जीवन सवारा, पूज्य गुरूवर बुद्धिसागर की, आप पर बरसी कृपा अपार, गुरू कैलाशसागर के चरणों मे, आपने कीया जीवन शृंगार.
हीम से उज्जवल... नेतृत्व मे आपके महुडी तीर्थने, स्वयं को है खूब निखारा, कोबा तीर्थमें बीराजीत कीये है, प्यारे प्रभु महावीरा, संग्रहालय और पुस्तकालय, तो जगमे एक अनोखा न्यारा, आंगन आंबावाडी का हर्षाया, जब चातुर्मास को स्वीकारा.
हीम से उज्जवल... शिष्य-प्रशिष्यों का सागर छलके, एसा उभरता प्यार तुम्हारा, नवकार मंत्र आराधक अमृतसागर, व्यवहार करते प्यारा-प्यारा, शिष्य अरूणोदय और अरविंदसागर, पंचांग बनाकर धर्मध्वज लहराया, शिष्य विमलसागरजी ने बदली, वक्तव्य से वक्त की धारा.
हीम से उज्जवल.... क्या नेता क्या प्रणेता, चरणो में सब शीष जकाते, जो भी गुरूभक्ति मे डूबे, सबके कष्ट खतम हो जाते, जिनसासन के सजग प्रहरी, चरणो में कोटि-कोटि वंदन, जन्मदिन पर करते है हम, सब दिल से आपका अभिनंदन.
हीम से उज्जवल... रजकण मस्तक पर लगाने, उमड़ पड़ा है जनसागर सारा, भाग्य हमारे चमके गुरूवर, जो सांनिध्य आपका पाया,
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अक्तूबर - २०१३ आशिष आपकी पाकर हमने, भाग्य अपना चमक चमकाया, दिन बीते-बरसो बीते याद रहेगा जो पल संग-संग गुजारा.
ज्जवल...
माँ शारदा का भी मिला आपको, अनुग - गजब वरदान, हर शब्द जुबाँ से आपकी, निकलता बनकर ग्रंथ महान, आंबावाडी मंदिर की प्रतिष्ठा, है कैलाशसागर का उपहार, रजत महोत्सव को दिया आपने, प्रकाश अपरंपार.
हीम से उज्जवल...
करजोड जितेन्द्र आज आपसे, करता अंतर मनसे प्रार्थना, उमर सारे भक्तो की आपको, लग जाये ये है हमारी भावना, कृपा सदा ही बरसाते रहना, ताकी जीवन बने उजीयारा, हीम से उज्जवल शशि से शीतल, है गुरूवर रूप तुम्हारा.
गुरुवर। शत शत प्रणाम...
मुकेश शाह
हे पद्मसागर! तू आया है, मेरे जीवनमें मंगल बनकर तेरी दुआओं को सराहूं मैं, प्रमुकी इनायत समझ कर तेरे हाथ मेरे सर पर है, इसे मैं समजूं खुदा की महेर तेरा सहारा ही एक मेरी जीवननैया को करा दे पार करा दे पार और तूटे संसार हे गुरुवर! तुझे हो हमारे शत शत प्रणाम! तुझे हो हमारे कोटि कोटि प्रणाम! हे पद्मसागर तू है खेवैया हमारा काबिलेदाद! हमारी जीवन पतवार का तु है सुकानी और ना खुदा हमें है एतबार की तू पहुँचायेगा हमें मंझिले पार और लाजम ही होगा जल्द ही हमारा बेडा पार जल्द ही हमारा बेड़ा पार
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કૈલાસશ્રુતસાગર ગ્રંથસૂચિ ભાગ-૧નું સંક્ષિપ્ત અવલોક્ન
તન ડી. શાહ
૫૨મ પૂજ્ય ગુરુદેવ આચાર્યભગવંત શ્રી પદ્મસાગરસુરીશ્વરજી મ. સા. ના ૭૯માં જન્મદિવસ નિમિત્તે આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિશાનમંદિર પરિવાર દ્વારા કેટલાંક ગ્રંથોનું વિમોચન કરવામાં આવ્યું. એ ગ્રંથોમાં કૈલાસશ્રુતસાગર ગ્રંથસૂચિનો ૧૯મો ભાગ પ્રકાશિત કરવામાં આવ્યો.
સૂચિપત્રની ઉપાદેયતા વધે અને શાનમંદિરના વૈભવનો આછેરો પરિચય મળી શકે એ હેતુથી પ્રસ્તુત લેખમાં કૈલાસશ્રુતસાગર ગ્રંથસૂચિના ૧૭માં ભાગમાં પ્રકાશિત થયેલ કેટલીક કૃતિ અને પ્રતની વિશિષ્ટ માહિતીઓને અત્રે પ્રકાશિત કરવામાં આવી છે.
જ્ઞાનમંદિરમાં સંગૃહીત હસ્તપ્રતોના કુલ ૧૫ ભાગ અત્યારસુધી પ્રકાશિત થઈ ગયા છે. આગામી ૫૫ ભાગો સુધી સૂચિપત્રો પ્રકાશિત થવાની સંભાવના છે. આ સૂચિપત્રનો ૧૬મો ભાગ છે. આ ભાગમાં કુલ ૨૧૯૫ હસ્તપ્રતો સાથે સંક્ળાયેલી ૪૨૧૬ કૃતિઓની માહિતી અપાઈ છે. આ ભાગમાં પ્રકાશિત ૨૧૯૫ હસ્તપ્રતોની માહિતીમાં સૌથી પ્રાચીન હસ્તપ્રત વિ. સં. ૧૪૮૪ના મહા વદ ૧ના લખાયેલી છે.
આ સૂચિપત્રમાં કુલ ૪૨૧૯ અપ્રકાશિત પ્રકાશિત કૃતિઓની માહિતી આપવામાં આવી છે. એમાંથી સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, અને અપભ્રંશ ભાષામાં ૯૧૩ અને જૂની ગુજરાતી એટલે મારુગુર્જર ભાષામાં ૩૩૦૩ જેટલી રચાયેલી કૃતિઓ આ સૂચિપત્રમાં ઉપલબ્ધ છે. આ સૂચિપત્રમાં ઉપલબ્ધ ૪૨૧૬ કૃતિઓમાંથી ૨૭૯૮ કૃતિઓ પ્રાયઃ અપ્રકાશિત છે. જેમાંથી ૪૫૧ કૃતિઓ સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, અને અપભ્રંશ ભાષામાં રચાયેલી છે. જ્યારે ૨૩૪૭ જેટલી કૃતિઓ દેશી ભાષામાં નિબદ્ધ છે.
આ સૂચિપત્રમાં પ્રતની નાનામાં નાની વિગતોને આવરી લેવામાં આવી છે. તો સાથે-સાથે એ પ્રતમાં આલેખાયેલી કૃતિની વિગતોનો પણ સમાવેશ કરવામાં આવ્યો છે. કૃતિની સાથે કર્તા, અને રચના સંબંધી કેટલીક ઐતિહાસિક વિગતો પણ સૂચિપત્રમાં પ્રકાશિત કરવામાં આવી છે. આમ એકંદરે પ્રત અને કૃતિની યોગ્ય માહિતીઓનો સમાવેશ કરતું આ સૂચિપત્ર વિદ્વાનોના સંપાદન અને સંશોધનકાર્યમાં ઉપયોગી નિવડશે જ એ આશા અસ્થાને નથી.
શ્રી વિજયદેવસુરસંઘ શ્રી ગોડીજી મહારાજ જૈન ટેમ્પલ એન્ડ ચેરીટીઝ પાયધુની દ્વારા આ સૂચિપત્રના પ્રકાશનનો લાભ લેવામાં આવ્યો છે. શ્રુતભક્તિ બદલ શ્રી સંઘની ખૂબ ખૂબ અનુમોદના.
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શ્રી નાગેશ્વર તીર્થ એક પથિથી
નુભાઈ લ. શાહ - ભારત દેશ વિવિધ ધર્મોનો, વિવિધ શાતિઓનો, વિવિઘ સંસ્કૃતિઓના મિલનનો દેશ છે. ભારતમાં ધાર્મિક સહિષ્ણુતાનો જોટો નથી. ભારત ભૂમિના વિશાલ પટ પર અનેક તીર્થો વસેલાં છે. તીર્થ શબ્દની વ્યાખ્યા : “તને સંરક્ષરો યેન તીર્થનું અર્થાત્ તારે તે તીર્થ.
ભારતની ધન્ય ધરા પર શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાનના ૧૦૮ થી પણ વધારે તીર્થો આવેલાં છે. આ બધા તીર્થો પૈકી રાજસ્થાનના ઝાલાવાડ જિલ્લાના ગંગાધર તાલુકામાં ઉન્હેલ ગામે મધ્યપ્રદેશ અને રાજસ્થાનની સીમા પર આવેલું શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ ભગવાનનું તીર્થ પોતાની ઐતિહાસિકતા અને પ્રાચીનતાથી પોતાની ખ્યાતિ પ્રસરાવી રહ્યું છે. જૈન અને જૈનેતર લોકોની અપૂર્વ શ્રદ્ધા આ તીર્થ પર છે. નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ તીર્થમાં પ્રતિષ્ઠિત પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પ્રતિમા લગભગ ૨૫૦૦ વર્ષ પ્રાચીન હોય એવું અનુમાન છે.
પ્રતિમાના નિર્માણ માટે પાષાણના સ્થાને રત્નોનો ઉપયોગ વધારે શ્રેષ્ઠ મનાય છે. એ કારણસર આ પ્રતિમા મરકત માિની સમાન છે. મરકત મહિણની બનેલી આટલી વિશાળ પ્રતિમાનું નિર્માણ હજારો વર્ષ પૂર્વે જ સંભવી શકે. આજે પણ કુલપાકજી તીર્થમાં(આંધ્રપ્રદેશ) બિરાજમાન મૂળનાયક શ્રી આદિશ્વર ભગવાન માણિક્યરત્ન નિર્મિત છે.
સૌ પ્રથમ આ પ્રતિમા અહિછા નામની નગરીના સુવર્ણમંદિરમાં સ્થાપિત થઈ હતી. તે નગરી પ્રભુના જીવનકાળ દરમ્યાન વસેલી હતી. આ નગરી કોણ અને શા માટે વસાવી તેનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ નીચે પ્રમાણે છે.
પાર્શ્વકુમાર કમઠ નામના એક પ્રભાવશાળી તાપસના તપની પ્રસંશા સાંભળી જોવા ગયા હતા. તાપસ ચારે દિશામાં ચાર અગ્નિકુંડોના તાપને સહન કરવાની કળા જનમેદની સમક્ષ પ્રત્યક્ષ કરી રહ્યો હતો. આ સમયે પાર્શ્વકમારે પોતાની દિવ્ય દૃષ્ટિથી એક લાકડામાં નાગ બળી રહ્યો છે જાણી તે લાકડું અલગ કઢાવી અર્ધજલિત લાકડામાંથી લાકડું ફડાવીને નાગને બહાર કઢાવ્યો. તે નાગને નમસ્કાર મહામંત્ર સંભળાવ્યો. નાગ મરીને ધરણેન્દ્રના રૂપમાં ઉત્પન્ન થયો. પાર્થકુમારે તાપસને જણાવ્યું કે સાચી તપસ્યા જયણામાં છે. જયણા જ ધર્મ છે. જ્યાં જયણા ન હોય ત્યાં ધર્મ કે તપ સંભવી ન શકે. જેના કારણે તાપસનો અહમ્ ઘવાયો અને વેરની તીવ્ર ભાવનાની સાથે મરીને તે અસુર યોનિમાં મેઘકુમાર નિકાયમાં
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श्रुतसागर - ३३ મેઘમાલી નામના દેવ સ્વરૂપે ઉત્પન્ન થયો.
પાર્શ્વપ્રભુ દીક્ષિત થઇને ત્યારે એક વખત કૌસ્તુભ વનમાં ઊભા ઊભા કિાઉસગ કરી રહ્યા હતા. મેઘકુમારે આ સમયે પોતાનું વેર વાળવા પ્રભુ ઉપર અનેક અસહ્ય ઉપસર્ગોની ઝડીઓ વરસાવી. નાગ જે મરીને ધરણેન્દ્રના રૂપમાં ઉત્પન્ન થયો હતો તેને આ પરિસ્થિતિમાં પોતાના ઉપકારી પ્રભુ પ્રત્યે કૃતજ્ઞતા વ્યક્ત કરવા સહસ્ત્રફણાવાળા સર્પનું રૂપ ધારણ કરીને પ્રભુના મસ્તક ઉપર કણાઓને છત્રની જેમ ધરીને ત્રણ દિવસ સુધી અવિચળ રીતે મેઘમાલીના ઉપસર્ગો બંધ થતાં સુધી ધરણેન્દ્ર ભક્તિના રૂપમાં રહ્યા. આ ઉપસર્ગ શાંત થયા પછી આ ઘટનાની સ્મૃતિમાં તેઓએ અહિચ્છત્રા (અહિઅછત્રા, અહિ એટલે સર્પ, છત્રા એટલે છત્ર) નામની નગરી વસાવી.
પંડિત શ્રી વીરવિજયજીએ પાર્શ્વનાથ પંચકલ્યાણક પૂજા' માં લખ્યું છે : વલિ કૌસ્તુભ વન આણાંદે, ધરણેન્દ્ર વિનય ધરી વળે ત્રણ દિન ફિણિ છત્ર ધરાવે, અહિછા નગરી વસાવે'
નાગેશ્વર તીર્થમાં શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથની પ્રતિમા અતિ પ્રાચીન છે. મથુરાની કંકાલી ટેકરી પાસે બીજી શતાબ્દીમાં બનાવેલા જૈન સ્તુપમાંથી એક શિલાલેખ પ્રાપ્ત થયો છે. તેમાં તે સમયથી અગિયારસો વર્ષ પૂર્વે નિર્માણ થયેલી જૈન ઇમારતો અને મૂર્તિઓનો ઉલ્લેખ થયેલો છે. તે અનુસાર પાર્શ્વનાથ પ્રભુના દેહના પરિમાણ જેટલી મરકતમણિની એક પ્રતિમાજી ધરણેન્દ્ર દ્વારા અપાઇ હતી. વિદ્વાનોના મતે ધરણેન્દ્ર દ્વારા અપાયેલી મૂર્તિ તે જ આ શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ છે. તેથી આ મૂર્તિ પ્રાચીન છે તેમ અનુમાની શકાય. ' લોકકથા અનુસાર આ પ્રતિમાજી મૂળ મરકતમરિની હતી. આ મૂર્તિને ઉપાડી જવાના પ્રયત્નો વારંવાર થયા હતા. પરંતુ અધિષ્ઠાયક દેવે તે ધૂર્ત લોકોની ઇચ્છા પૂર્ણ થવા દીધી નહિ, ત્યારબાદ એક જૈનાચાર્ય તપારાધના દ્વારા ધરણેન્દ્ર દેવને પ્રત્યક્ષ કરી મરકતમણિની મૂર્તિની ચોરી ન થાય તે માટે રત્નમય પ્રતિમાને પત્થરમય બનાવી દેવા વિનંતી કરી. તે માગણીનો સ્વીકાર કરી દેવે રત્નમય પ્રતિમાને પત્થરમય બનાવી દીધી.
દેવદ્વારા નિર્મિત આ પ્રતિમાજી અહિચ્છત્રા નગરીમાં સ્થાપિત કરાઇ હતી. પરંતુ સમય પસાર થતાં અહિચ્છત્રા નગરીનું અસ્તિત્વ ન રહેવાથી સુરક્ષાની દષ્ટિએ અધિષ્ઠાયક દેવ દ્વારા આ પ્રતિમા ઉડેલ લાવવામાં આવી. શતાબ્દીઓ પૂર્વે જ્યારે આ સ્થાનાંતર થયું ત્યારે અહીંયાં પારસપુર અથવા પારસનગર વસેલું
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अक्तूबर - २०१३ હતું. આ નગરનો કારભાર મહારાજા અજિતસેન સંભાળતા હતા. તેમની રાણીનું નામ પદ્માવતી હતું. રાજા-રાણીને સંતાનપ્રાપ્તિની અદમ્ય ઝંખના હતી. એકવાર ગામોગામ વિચરતા જૈન સાધુઓનું આગમન થયું. રાજા-રાણીએ સંતાન પ્રાપ્તિ માટે પ્રાર્થના કરી. વિરક્ત સાધુ મહાત્માઓ આનો ઉપાય કેવી રીતે બતાવી શકે? સાધુ મહાત્માઓએ જણાવ્યું કે “પ્રભુ પ્રાર્થનાની ભક્તિથી બધા જ કષ્ટો દૂર થશે.” આવો ઉપદેશ આપીને તેઓ અન્યત્ર વિહાર કરી ગયા. રાજા-રાણીએ સાધુઓના વચન ઉપર વિશ્વાસ રાખ્યો તેના કારણે પુત્રરત્નની પ્રાપ્તિ થઈ. તેઓને પ્રભુ પાર્શ્વનાથની ભક્તિ ફળી તેના કારણે તેમનું ભવ્ય દેરાસર નિર્માણ કરવાનો સંકલ્પ કર્યો. સ્વપ્નમાં અધિષ્ઠાયક દેવે રાજાને કહ્યું, “રાજન, નગરની બહાર અશોકવૃક્ષ અને આમ્રવૃક્ષથી આચ્છાદિત ઝરણાની પાસે આવેલી ટેકરીની ભૂમિ ખોદવાથી તમારા શુભ સંકલ્પની સિદ્ધિ થશે.”
આ ટેકરી પર ખોદકામ કરતાં માત્ર પાંચ હાથની ભૂમિની ઊંડાઈ પર ૧૪ ફૂટની સુવિશાળ આછા લીલા રંગની પ્રસ્તરી (પત્થર) પ્રતિમાના દર્શન થયાં. રાજાએ નગરમાં એ ભવ્ય દેરાસર નિર્માણ કરીને ભગવાન પાર્શ્વનાથની આ પ્રતિમાની નાગેન્દ્રગચ્છના જૈનાચાર્ય દ્વારા તેમાં પ્રતિષ્ઠા કરાવી. દેરાસરની સ્થાયી આર્થિક વ્યવસ્થા માટે બસો વિઘા જમીન પણ ભેટ આપી.
મોગલકાળમાં આ નગર ઘણીવાર લૂંટાયું અને દેરાસર પણ ધ્વસ્ત કરાયું. આ દેરાસરનો જિર્ણોદ્ધાર પ્રાયઃ વિ.સં. ૧૨૯૪ માં નાગેન્દ્રગચ્છના જૈનાચાર્ય શ્રીઅભયદેવસૂરિજીના પ્રયત્નોથી થયો. ધીરે ધીરે આ પાટનગરનું નામ પણ “પારસ નાગેશ્વર”, “નાગેશ્વર પારસપુર' અને પાછળથી “નાગેશ્વર” જ રહી ગયું. તેવી જ રીતે નાગેન્દ્ર (નાગ + ઇન્દ્રો અને નાગેશ્વર (નાગ + ઇશ્વર) નો અર્થ એક જ થાય છે. આ નાગેશ્વર ગામનું નામ પાર્શ્વનાથની સાથે જોડાઇને ‘નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ' નામનું તીર્થ પ્રસિદ્ધ થયું. પાર્શ્વનાથ પ્રભુના અનેક તીર્થોના નામ આ જ પ્રકારે બન્યાં છે. દા. ત. “અવંતિ પાર્શ્વનાથ', “મગસિયા પાર્શ્વનાથ', “શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથ' વગેરે.
નાગેશ્વર તીર્થની આસપાસ નગરીની પ્રાચીનતા દર્શાવતાં અનેક ખંડેરો અને અવશેષો આજે પણ વિદ્યમાન છે. શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથની પૂજાનો અધિકાર વંશ-વારસાગત રીતે ચાલ્યો આવતો હતો. પૂજારીઓ દેરાસરના માલિક બની બેઠા હતા. અનેક વર્ષો સુધી શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથની પ્રતિમાજી પુજારીઓના હાથમાં રહી. થોડાક દશકાઓ પહેલાં ઉપાધ્યાય શ્રી ધર્મસાગરજી મહારાજે આ પ્રતિમા પાછી મેળવવા અનેક પ્રયત્નો કર્યા. છેવટે કોર્ટ દ્વારા શ્વેતાંબર જેનોએ
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श्रुतसागर - ३३ આ પ્રતિમાજી પર પોતાનો હક્ક સ્થાપિત કર્યો અને ધરણેન્દ્રદેવ નિર્મિત શ્રી પાર્શ્વપ્રભુની આ દિવ્ય પ્રતિમાજી પુનઃ જેનો હસ્તક આવી.
વિ.સં. ૨૦૨૬ ના વૈશાખ વદ દશમના પંન્યાસશ્રી અભયસાગરજી મહારાજ સાહેબની પાવન નિશ્રામાં પ્રતિમાજીને અઢાર અભિષેક કરવામાં આવ્યા. ત્યારબાદ સેવા-પૂજન નિયમિત રૂપે ચાલુ થઈ.
પ્રતિમા ઃ ભગવાન શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુની ચાર મીટર ઊંચી કાયોત્સર્ગ મુદ્રાધારી આટલી વિશાળ અને પ્રાચીન શ્વેતાંબર પ્રતિમાના દર્શન બીજે અલભ્ય છે. નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ તીર્થની અપૂર્વ, નીલવર્ણ શોભતી, આનંદદાયક આ પ્રતિમાની વિશેષતાઓ નીચે પ્રમાણે છે.
શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ પ્રભુની પ્રતિમાજીનો વર્ણ લીલો છે (જે પ્રભુના દેહનો હતો). પ્રભુ ઊભા ઊભા કાઉસગ્ન કરી રહ્યાં હોય તેવી મુદ્રા છે. પબાસનમાં ધર્મચક્રની લંબાઈ ૧૫ ઈંચ અને પહોળાઈ ૮ઈંચ છે. પગના પંજાની લંબાઈ ૧૫ ઇિંચ અને ૮ ઈંચ પહોળી છે. ઘુંટણથી પગ સુધીની લંબાઈ ૩૫ ઈંચ, કમરથી ઘુંટણ સુધીની લંબાઈ ૪૧ ઈંચ, વક્ષસ્થળની લંબાઈ ૧૫ ઈંચ તથા પહોળાઈ ૩૮ ઈંચ, બન્ને ભુજાઓનું અંતર ૪૩ ઇંચ, ભુજાની લંબાઈ ૨૫ ઈંચ અને પહોળાઈ ૮ ઈંચની છે. હાથની લંબાઈ ૩૫ ઈંચ, પહોળાઈ ૬ ઇંચ, કંઠથી નાભિની લંબાઈ ૩પ ઈંચ, મુખની લંબાઈ ૩૦ ઈંચ, પહોળાઇ ૨૭ ઈંચ, ભામંડળની લંબાઈ ૩૨. ઈંચ, પહોળાઈ ૩૬ ઈંચ, મસ્તક પર ફણાની લંબાઈ ૧૯ ઈંચ તથા પહોળાઈ ૪૨ ઈંચ તથા શિખા અને ફણાના વચ્ચેનું અંતર ૯ ઇંચ લંબાઈનું છે.
સાત કણાનું છત્ર માથા પર સુશોભિત છે. પ્રતિમાની ફણા અને છત્ર સહિતની કુલ ઊંચાઈ ૧૪ ફુટ થાય છે. અને ફણા વિના દેહની ઊંચાઈ સાડા તેર ફૂટ છે. અર્થાત્ નવ હાથ છે જે પ્રભુના શરીરની વાસ્તવિક ઊંચાઈ હતી. પ્રતિમાજીનો પથ્થર કઠણ છે. મૂળનાયકની આસપાસ સાડા ચાર ફૂટ ઊંચી શ્રી શાંતિનાથ ભગવાન તથા શ્રી મહાવીર સ્વામી ભગવાન કાઉસગ્ગ મુદ્રામાં બિરાજમાન
છે.
મૂર્તિમાં યથાસ્થાને લંગોટ-કંદોરો (કરધની) અને ભામંડલ છે. આટલી વિશાળતા હોવા છતાં મૂર્તિ સમતોલ સ્વાભાવિક રીતે પગો ઉપર છે. શ્રેષ્ઠ કારીગરી માટે પણ એક આશ્ચર્ય સમાન છે. ભામંડલ પર સુંદર કલાત્મક ધારીઓ અદભૂત છે.
સંવત ૨૦૨૦થી પોષ વદ ૧૦ના દિવસે પાર્શ્વનાથ ભગવાનનો જન્મકલ્યાણ મહોત્સવ ઉજવવામાં આવે છે. તેમજ આ અવસરે અઠમ તપની આરાધના પણ
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२८
કવર - ૨૦૧૩ કરાવાય છે. પાર્શ્વનાથ પ્રભુની આવી દિવ્ય, ભવ્ય, વિશાળ અને સુંદર પ્રતિમા ભારત વર્ષમાં અન્યત્ર ક્યાંય નથી.
પરમાત્માની સાથે સાથે આ તીર્થભૂમિનું પ્રાકૃતિક સૌંદર્ય પણ યાત્રિકો માટે શાતાનું કેન્દ્રબિન્દુ છે. ચારે બાજુ અનેક વાવડી અને કુવાઓ છે. આ સિવાય એક વિશાળ સુંદર સરોવર પણ છે. ગામના કિનારે એક કલકલ નાદ કરતું ઝરણું વહે છે. તીર્થના પરિસરથી બે માઈલ દૂર પૂર્વ દિશામાં કાલીસીંઘ નામની વિશાળ નદી વહે છે. પશ્ચિમમાં એક માઇલ દૂર કાલિદાસની પ્રિય “ક્ષિપ્રા” નદી વહે છે. બન્ને નદીઓના મધ્યમાં પહાડી ભાગ છે. આ તીર્થમાં આચાર્ય શ્રી જીનકુશલસૂરિજી મ. ની દાદાવાડી પણ છે. જેમાં સાડા પાંચ ફૂટની એક કાઉસગ્ગીયમુદ્રામાં જિનપ્રતિમા બિરાજમાન છે. તેમજ અહીં વિશાળ ૯ માળનું શ્રી ઋષભદેવ જિનાલય, દેવગુરૂ હ્રીંકારધામ' જિન ચૈત્યનું નિર્માણ થયું છે.
શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ અલૌકિક અને ચમત્કારિક છે. આ તીર્થની સાથે અનેક ચમત્કારની ઘટનાઓ સંકળાયેલી છે. મંદિરના સંકુલમાં ધર્મશાળા અને ભોજનશાળાની સુંદર સગવડ છે. આ પાવન તીર્થ અવશ્ય દર્શનીય અને વંદનીય
સંપર્ક શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ જૈન તીર્થ શ્રી જૈન શ્વેતામ્બર નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ તીર્થ પેઢી
સ્ટેશન માલા, મુ. પો. ઉનહેલ - ૩૨૦૫૧૫ જિલ્લો - ઝાલાવાડ (રાજસ્થાન) ફોન – (૭૪૧૦) ૨૪૦૭૧૫
સંદર્ભ સાહિત્ય ૧. શ્રી ૧૦૮ પાર્શ્વનાથ તીર્થ સંપુટ ભા. ૧-૨, મુનિશ્રી પ્રશાંતશેખરવિજય મ.
(સંપા.), મુંબઈ, ઉગમરાજ ભંવરલાલજી શાહજી ૨. શ્રી નાગેશ્વર પાર્શ્વનાથ તીર્થનો સારગર્ભિત ઇતિહાસ, પંન્યાસ શ્રી અભયસાગરજી
મહારાજ સાહેબ ૩. શ્રી જૈન તીર્થની ઝલક, અમદાવાદ, હિંમતલાલ સકરચંદ શાહ ૪. જૈન તીર્થ માર્ગદર્શિકા, શાહ સુભદ્રાબેન નરોત્તમદાસ (સંકલન) ५. जैन तीर्थ परिचायिका, श्रीचन्द सुराना, आगरा, दिवाकर टैक्स्टो ग्राफिक्स
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પ્રાચાર્યશ્રી કલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર, છોબા
સંક્ષિપ્ત કાર્ય અહેવાલ સપ્ટેબર-૧૩ જ્ઞાનમંદિરના વિવિધ વિભાગોના કાર્યોમાંથી સપ્ટેમ્બર-૧૩માં થયેલાં મુખ્યમુખ્ય કાર્યોની ઝલક નીચે પ્રમાણે છે. ૧. હસ્તપ્રત કેટલૉગ પ્રકાશન કાર્ય અંતર્ગત કેટલોગ નં. ૧૭ માટે કુલ ૧૭૫
પ્રતો સાથે ક૨૬ કૃતિલિંક થઇ અને આ માસાંત સુધીમાં કેટલૉગ નં. ૧૭
માટે ૧૧૯૪ લિંકનું કાર્ય પૂર્ણ કરવામાં આવ્યું. ૨. હસ્તપ્રતોના ૯૭૧પ૭ પૃષ્ઠો અને પ્રીન્ટેડ પુસ્તકોના ૪૯૨૧ મળી કુલ
૧૦૨૦૭૭ પૃષ્ઠોનું સ્કેનીંગ કાર્ય કરવામાં આવ્યું. ૩. સાગરસમુદાય ગ્રંથ એન્ટ્રી તથા વિશ્વ કલ્યાણ ગ્રંથ પુનઃ પ્રકાશન પ્રોજેક્ટ
હેઠળ કુલ ૬૧૯ પાનાઓની ડબલ એન્ટ્રી કરવામાં આવી. ૪. લાયબ્રેરી વિભાગમાં પ્રકાશન એન્ટ્રી અંતર્ગત કુલ ૧૩૭ પ્રકાશનો, ૯૫૪ પુસ્તકો, ૩૨૮ કૃતિઓ તથા પ્રકાશનો સાથે ૪૪૪ કૃતિ લિંક કરવામાં આવી. આ સિવાય ડેટા શુદ્ધિકરણ કાર્ય હેઠળ જુદી-જુદી મહિતીઓના રેકોર્સમાં સુધાર કાર્ય કરવામાં આવ્યું. ૫. મેગેઝીન વિભાગમાં ૭૮ મેગેઝીનોના અંકોની એન્ટ્રી કરવામાં આવી. ૯. ૭ વાચકોને ૨૧ ગ્રંથોના ૩ર૭૮ પૃષ્ઠોની ઝેરોક્ષ નકલ ઉપલબ્ધ કરાવવામાં
આવી. આ સિવાય વાચકોને કુલ ૪૨૨ પુસ્તકો ઇશ્ય અને ૪૦૭ પુસ્તકો જમા લેવામાં આવ્યાં. ૭. ભેટકર્તાઓ તરફથી ૮૪૯ પુસ્તકો ભેટ સ્વરૂપે પ્રાપ્ત થયાં તથા રૂ. ર૯૦૩રની
કિંમતના ૧૧૫ પુસ્તકો ખરીદવામાં આવ્યાં. ૮. વાચક સેવા અંતર્ગત પ. પૂ. સાધુ-સાધ્વીજી ભગવંતો, સ્કોલરો, સંસ્થાઓ વિગેરેને ઉપલબ્ધ માહિતીના આધારે જુદી-જુદી ક્વેરીઓ તૈયાર કરી આપવામાં આવી, જેમાંથી તેઓ દ્વારા જરૂરી પુસ્તકો તેમજ હસ્તપ્રતોની
ઝેરોક્ષ તેમના સ્વાધ્યાય માટે ઉપલબ્ધ કરાવવામાં આવી. ૯. સમ્રાટુ સંપ્રતિ સંગ્રહાલયની મુલાકાતે ૪૦૦ યાત્રાળુઓ પધાર્યા. ૧૦. શ્રુતસાગરનો સપ્ટેમ્બર-૨૦૧૩નો વિશિષ્ટ અંક નં-૩ર પ્રસિદ્ધ કરવામાં
આવ્યો. ૧૧. પ. પૂ. રાષ્ટ્રસંત આચાર્યશ્રી પધસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના ૭૯ જન્મદિન
નિમિત્તે કલાસમૃતસાગર ગ્રંથસૂચિ ભાગ-૧૬ તેમજ વિશ્વ કલ્યાણ પ્રકાશન ટ્રસ્ટના ૬ ગ્રંથોનું વિમોચન કરવામાં આવ્યું.
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समाचार सार
परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज का ७९व जम्मवर्धापन महोत्सव सम्पन्न
परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य भगवन्त श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने भाद्रपद शुक्ल एकादशी के दिन अपने जीवन के ७८ वर्ष पूर्ण कर ७९वें वर्ष में प्रवेश किया. इस अवसर पर दिनांक १५ सितम्बर, २०१३ रविवार को श्री आंबावाडी जैन संघ, अहमदाबाद एवं श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा द्वारा भव्य जन्मवर्धापन महोत्सव का आयोजन किया गया.
अहमदाबाद वासियों को उनके पुण्योदय से पूज्यश्री के संयमजीवन के ५९वें वर्ष के वर्षावास का लाभ मिला. पूज्य आचार्यदेव के वर्षावास की अवधि में अनेक मंगलमय कार्यक्रम मनाने का लाभ प्राप्त हुआ है.
पूज्य आचार्य भगवन्त ने जिनशासन के उन्नयन के लिये अनेक कार्य सम्पन्न किये तथा भविष्य में भी यह क्रम निरन्तर चलता रहेगा. अपने संयमजीवन के प्रारम्भ से ही पूज्यश्री का पुण्य इतना प्रबल रहा है कि एक से बढ़कर एक सिद्धियाँ इनके चरणों में आती रहीं और इनका प्रभाव बढ़ता रहा. तीर्थोद्धार का कार्य हो, श्रुतोद्धार का कार्य हो, समाजिक एकता का कार्य हो, सामाजिक मान्यताओं का विरोध हो, हर कार्य में पूज्यश्री ने उतनी ही चतुराई से सभी समस्याओं का समाधान करवाया. इनके निर्णय से सभी पक्ष सहमत हुए और एकमंच पर आये.
पूज्यश्री का जीवन ही ऐसा कि वे जहाँ भी होते हैं, वहाँ चारों ओर आध्यात्मिक वातावरण छा जाता है. आम्बावाडी जैन श्रीसंघ को उनके सौभाग्य से चातुर्मास की अवधि में पूज्य राष्ट्रसन्त का ७९वें जन्मोत्सव मनाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ. पूज्यश्री का जन्मवर्धापन दिवस त्रिवेणी महोत्सव के रूप में आयोजित किया गया.
१५ सितम्बर, २०१३ (रविवार) को अनेक धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. पूज्यश्री के चातुर्मास से धर्ममय बने अहमदाबाद वासियों ने इस अलौकिक महोत्सव को मनाने का सुखद आनन्द प्राप्त किया. जन्मवर्धापन महोत्सव के मंगलमय अवसर पर पूज्य आचार्य भगवन्त के शिष्यप्रशिष्य परिवार के जापमग्न पूज्य आचार्य श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा..
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श्रुतसागर - ३३
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पंन्यास श्री हेमचंद्रसागरजी म.सा., गणिवर्य श्री प्रशांतसागरजी म. सा., मुनि श्री विमलसागरजी म.सा. आदि मुनि भगवन्त एवं आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरि समुदाय की पूज्य साध्वी श्री पुण्यप्रभाश्रीजी म. सा. आदि अनेक साध्वीजी भगवन्त उपस्थित थे.
जिनभक्ति - गुरुभक्ति - श्रुतभक्ति के त्रिवेणी महोत्सव में गुरुभक्ति एवं श्रुतभक्ति का अपूर्व आनन्द प्राप्त करते हुए आम्बावाडी जैनसंघ, अहमदाबाद एवं श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा ने राष्ट्रसंत आचार्य भगवन्त के जन्मोत्सव पर अनुपम उपहार स्वरूप पूज्यश्रीजी की प्रेरणा व मार्गदर्शन में स्थापित सुप्रसिद्ध जैन ज्ञानभंडार आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा के प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों के कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूची भाग-१६, आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरिजी लिखित छः बहुजनोपयोगी पुस्तकों कथादीप, नैन बहे दिन रैन, सबसे ऊँची प्रेमसगाई, जैनधर्म, वार्ताना घाटे, सुलसा एवं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का मुखपत्र श्रुतसागर अंक ३२ का विमोचन कराया.
पंन्यासप्रवर श्री हेमचंद्रसागरजी महाराज साहब, गणिवर्य श्री प्रशांतसागरजी महाराज साहब, मुनिवर्य श्री पुनितपद्मसागरजी महाराज साहब, मुनिवर्य श्री भुवनपद्मसागरजी महाराज साहब आदि ने पूज्य आचार्य भगवन्त के गुणों की अनुमोदना करते हुए उनके दीर्घायु की कामना की.
मुनिवर्य श्री विमलसागरजी महाराज ने पूज्य राष्ट्रसन्त के सम्बन्ध में कहा कि इतना तो सच है कि पूज्यश्री का संसारी जीवन भी अनेक उपलब्धियों से भरा हुआ रहा है और इसी कारण उन्हें प्रेमचन्द के बदले लब्धिचन्द के नाम से पुकारा जाता था.
संयमजीवन में भी इन्होंने ऐसे-ऐसे कार्य कर दिखाए हैं कि इनका नाम जैन परंपरा के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. भारत भर में ही नहीं बलिक विदेशों में भी पूज्यश्री ने जिन मन्दिर निर्माण की प्रेरणा दी है और वहाँ प्रतिमाजी की अंजनशलाका करके स्थापित करने हेतु भिजवाई है.
नेपाल की राजधानी काठमंडु में तो स्वयं पहुँचकर भव्य जिनालय की स्थापना कराकर अंजनशलाका प्रतिष्ठा करवाई. गांधीनगर के बोरिज में विश्वमैत्री धाम की स्थापना कराकर समाज को अनुपम भेंट दी है.
पूज्य आचार्य भगवन्त ने अपने आशीर्वचन में कहा कि भगवान महावीर द्वारा
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३२
अक्तूबर • २०१३ प्रतिपादित सिद्धांतों का पालन एवं उनके विचारों का प्रचार-प्रसार हो, यही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए. उन्होंने कहा कि एक ऐसी संस्था का निर्माण हो, जहाँ जैन साधु-साध्वीजी भगवन्त जैनधर्म-दर्शन एवं व्याकरण-न्याय आदि का अध्ययन करें और अपने संयम जीवन से स्व-पर का योगक्षेम हो सकें
पद्मश्री कुमारपालभाई देसाई ने पूज्यश्री के जन्मवर्धापन महोत्सव पर अपने वक्तव्य में कहा कि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा पूज्यश्री की अमर कृति है, जो जिनशासन के उन्नयन हेतु सदैव अग्रसर है.
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा की आत्मा आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के रूप में पूज्यश्री ने श्रुतज्ञान के विरासतों को संकलित कर संशोधकोंविद्वानों के लिये एक अमूल्य संशोधन केन्द्र प्रदान किया है.
_जैन शिल्प व स्थापत्य कला के अजोड़ पुरातात्विक वस्तुओं का संकलन तो अपने आप में बेमिसाल है. इन्हीं सब बातों को देखते हुए मैं यह कहना चाहूँगा कि कोबातीर्थ में पाँच तीर्थों का संगम हुआ है- धर्मतीर्थ, श्रुततीर्थ, कलातीर्थ, स्वाध्यायतीर्थ और मुमुक्षुतीर्थ. ___ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा के ट्रस्टी श्री मुकेशभाई एन. शाह ने अपने उद्गार में पूज्यश्री को युगपुरुष के रूप में स्थापित करते हुए कहा कि पूज्य आचार्य भगवन्त का सम्पूर्ण जीवन जिनशासन को समर्पित है. इनके उपकारों का वर्णन करना हमारे लिये दुष्कर ही नहीं, अशक्य कार्य है.
त्रिवेणी महोत्सव में जिनमक्ति के कई कार्यक्रम हुए. जिसमें मुंबई से पधारे बाल-कलाकारों ने भावनृत्य प्रस्तुत कर श्रद्धालुओं को भाव विभोर कर दिया.
इस मंगलमय अवसर पर देश के विभिन्न भागों से हजारों गुरुभक्तों ने उपस्थित होकर पूज्यश्री के दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन की कामना की एवं उन्हें महान जैनाचार्यों की परम्परा में देदीप्यमान नक्षत्र की तरह बताया.
पूज्यश्री का विशाल शिष्य-प्रशिष्य परिवार जिनशासन के उन्नयन में चार चाँद लगा रहा है. जिनशासन को समर्पित पूज्यश्री का जीवन स्वयं में एक विशाल संस्था का रूप धारण कर चुका है. ऐसे राष्ट्रसन्त पू. गुरुभगवंत को कोटिशः वन्दन कर उनके दीर्घायु व स्वस्थ जीवन की कामना करें.
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प. पू. गुरुभगवंतश्री के ७९वें जन्म वर्धापन पर्व के अविस्मरणीय क्षण
समारोह वर्धापन जन्म
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आशीर्वचन प्रदान करते परम पूज्य राष्ट्रसंत गुरुदेवश्री प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382007 / फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org BOOK-POST / PRINTED MATTER For Private and Personal Use Only