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श्रुतसागर - ३३ प्रत्येक चित्र के चारों ओर फूल-पत्ती का चित्रण किया गया है। उसके पश्चात् फिर से लाल रंग की उससे पतली पट्टी (किनारी) बनाई गई है जिसके दोनों ओर काले रंग की महीन दुहरी रेखाएं खींची हुई है। उसके बाद बीच में शेष स्थान पर चित्र बनाये गये हैं। सभी आकृतियों में महीन काले रंग की सीमांत रेखा द्वारा चित्रों को अलंकृत किया गया है। कला की दृष्टि से यह पाण्डुलिपि अत्यन्त ही उच्च कोटी की है। श्री अगरचन्दजी नाहटा के शब्दों में यह पोथी अपने में निराले ढंग की है।
पशु पक्षियों का विषयनुरूप सजीव चित्रण किया गया है। चित्रण में गति का आभास होता है। शेर के चित्र में कुछ जगह स्लेटी रंग का प्रयोग किया गया है बाकी सभी प्राकृतिक रंगों से ही बनाये गये हैं। प्रकृति (दृश्य-चित्र) वास्तु (भवन) आदि का चित्रण अत्यन्त सुंदर किया गया है। पेड़ की एक-एक पत्ती को दर्शाया गया है तो वहीं वास्तु को फूल पत्तियों व गुम्बजों से अत्यन्त अलंकृत करते हुए बनाया गया है।
यह सचित्र हस्तप्रत में निम्नवत् लिखी गई है - भक्तामर स्तोत्र के एक श्लोक के सामने चित्र पश्चात् रायमल्ल कृत संस्कृत टीका, एवं उसके बाद हेमराज कवि कृत हिन्दी पद्यानुवाद तत्पश्चात् धनदास कवि कृत हिन्दी पद्यानुवाद धनदास कवि द्वारा रचित हिन्दी सवैया का गद्य भाषान्तर भी साथ में दिया गया है। प्रत्येक श्लोक के साथ मंत्रविधि एवं प्रत्येक श्लोक की पूजा एवं मंत्रपाठ के द्वारा प्राप्त फलदर्शक कथा का भी आलेखन कीया गया है। इस अपूर्व ग्रंथ में राजस्थानी शैली से प्रभावित प्रत्येक चित्रो के चित्रकार भरतपुर(राज.) के निवासी थे। चित्रों पर शैली प्रभाव -
कला की दृष्टि से इस प्रति के चित्र उच्चस्तरीय हैं। उन पर मुख्यतः राजस्थानी शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। रेखाओं में शक्ति एवं प्रभाव दर्शनीय है । चित्रों के मध्य प्रकृति की अनुपम छटा लघु-दीर्घ पुष्पों के रूप में बिखरी हुई दृष्टिगोचर होती है।
इन चित्रों का समय वह है जब राजस्थानी व मुगल शैलियाँ अपने पूर्ण यौवन पर थी। इस प्रति के चित्र मुख्यतः मेवाडी शैली के सादृश है। किन्तु मेवाड़ पर उन दिनों मुगलों का अधिकार हो चुका था।' अतः इन पर मेवाड़ चित्र शैली
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