Book Title: Shrutsagar 2017 08 Volume 04 Issue 03
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra RNI:GUJMUL/2014/66126 www.kobatirth.org आचार्य श्री कैलाससागसूरि ज्ञानमंदिर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर | श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) August 2017, Volume : 04, Issue : 03, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/EDITOR: Hiren Kishorbhai Doshi For Private and Personal Use Only ISSN 2454-3705 BOOK-POST / PRINTED MATTER सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय स्थित चामरधारी देव की सौंदर्यमयी प्रतिमा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनिप्रवर श्री पद्मरत्नसागरजी महाराज साहब की प्रथम वार्षिक पुण्यतिथि निमित्त उपकारस्मरणोत्सव की स्मृतियाँ LLL LLLLL व्याख्यान देते हुए प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्यश्री, उनका शिष्य समुदाय व पूज्य गच्छाधिपति आचार्य श्री हेमप्रभसूरीश्वरजी म. सा. के समुदाय के आचार्य श्री ललितप्रभसूरिजी म. सा,. तथा आचार्य श्री रामचन्द्रसूरि समुदाय के मुनि श्री वैराग्यरुचिविजयजी म. सा. आदि गुरु भगवन्त उपकारस्मरण उत्सव के अवसर पर उपस्थित बुद्धिसागरसूरि समुदाय के श्रमणीवृंद व श्राविकाएँ. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI : GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर મૃતસાગર SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-४, अंक-3, कुल अंक-39, अगस्त-२०१७ Year-4, Issue-3, Total Issue-39, August-2017 वार्षिक सदस्यता शुल्क - रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Price per copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक * * सह संपादक * * संपादन सहयोगी * हिरेन किशोरभाई दोशी रामप्रकाश झा भाविन के. पण्ड्या एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ अगस्त, २०१७, वि. सं. २०७३, श्रावण कृष्ण-8 बन आराध बना के हावीर जी श्री मक्ष द्र. को 卐भी असतं त विद्या प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम 1. संपादकीय रामप्रकाश झा 2. कक्कावलि 3. Awakening 4. नवांगीपूजा आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी Acharya Padmasagarsuri गणि सुयशचंद्रविजयजी डॉ. कृपाशंकर शर्मा मुनि श्री न्यायविजयजी 5. पुस्तक समीक्षा 6. गुरुपरंपरा 7. समाचारसार तुझने पूछू हे सखी, मूरख केम जीवंत। पांच-सात भेगा मली धमोधम करंत ॥ हस्तप्रत क्र. ८६०६८ हे सखी, मैं तुमसे पूछती हूँ कि मूर्ख का जीवन किस प्रकार बीतता है? मूर्ख व्यक्ति इकट्ठे होकर कोलाहल और धमाल करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं। तुझने पूछू हे सखी, पंडित केम जीवंत। पांच-सात मिली सांमटा, ग्यानगोष्ठी करंत ॥ हस्तप्रत क्र. ८६०६८ हे सखी, पंडित का जीवन किस प्रकार बीतता है? ज्ञानी व्यक्ति इकट्ठे - होकर ज्ञानगोष्ठी करके अपना जीवन सार्थक करते हैं। * प्राप्तिस्थान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, होटल हेरीटेज़ की गली में डॉ. प्रणव नाणावटी क्लीनिक के पास, पालडी अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संपादकीय रामप्रकाश झा श्रुतसागर का यह नवीन अंक आपके करकमलों में सादर समर्पित करते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक के अन्तर्गत योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. की कृति “कक्कावलि” का अन्तिम भाग प्रकाशित किया जा रहा है। इस कृति में वर्णमाला के अक्षरों के अनुसार मानव-जीवन के कल्याण हेतु सार्थक उपदेश दिए गए हैं, द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों की पुस्तक Awakening' से क्रमबद्ध श्रेणी के अंतर्गत संकलित किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवनोपयोगी प्रसंगों का विवेचन किया गया है। अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में गणिवर्य श्री सुयशचन्द्रविजयजी म. सा. द्वारा संपादित “नवांगी पूजा” प्रकाशित की जा रही है, जो अद्यावधि सम्भवतः अप्रकाशित है। इस कृति के नौ ढालों में नौ प्रकार के द्रव्यों से प्रभु की नवांगी पूजा का विवेचन प्रस्तुत किया गया है, साथ ही नवांगी पूजा से प्राप्त होनेवाली नौ खंडों की ऋद्धि, नवनिधि आदि समृद्धियों का भी वर्णन किया गया है। प्रत्येक ढाल में प्रभु के प्रत्येक अंगों की पूजा के प्रभावों का सुन्दर वर्णन किया गया है। यह कृति सभी आराधकों हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। पुनःप्रकाशन श्रेणी के अन्तर्गत इस अंक में भद्रबाहुस्वामी व चन्द्रगुप्त के विषय में प्रचलित दिगम्बर मान्यताओं का खण्डन करते हुए सातवें पाट पर अवस्थित स्थूलिभद्रजी का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। ____ आशा है, इस अंक में संकलित सामग्रियों के द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे, जिससे अगले अंक को और भी परिष्कृत किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कक्कावलि (गतांकथी आगळ...) __ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी आव्या आव्या शुं कहो छो, आव्या चाल्या जाय; त्रण लोकमां कीर्ति जेनी, आव्या ते सुखदाय. सुणजो०॥५१॥ बेठा बेठा शुं कहो छो, बेठा उठे भ्रात; बेठा क्षायिकभावे सिद्धो, धन तेना अवदात. सुणजो०॥५२॥ उठ्या उठ्या शुं कहो छो, जोने उठे जीव; उठ्या आतमभावे संतो, जाणी जीवने शीव. सुणजो०॥५३॥ जोगी जोगी शुं कहो छो, जोगी साधे जोग; अलख खलकमां सच्चा समजी, भोगवता नहि भोग. सुणजो०॥५४॥ जूठं जूठं शुं कहो छो, जूठी जगझंझाळ; जूठामां मारूं जे माने, ते जन जगमां बाळ. सुणजो०॥५५॥ भक्ति भक्ति सेवो सज्जन, भक्ति सुखनुं मूळ; देवगुरूनी भक्ति विण ते, किरिया जाणो धूळ. सुणजो०॥५६॥ मंगल मंगल जिनवर जापे, गणजो सहु नवकार; चौद पूर्वमां मंगल मोटुं, उतरशो भवपार. सुणजो०॥५७॥ गुर्जर देशे साणंद गामे, ओगणीश त्रेसठ साल; अषाड सुदि सातम सांजे, स्तवना मंगल माल. सुणजो०॥५॥ समजी गणजो श्रीनवकार, तेथी उतरशो भवपार; भणशे गणशे जे जन भावे, तेह लहे सुखसार. सुणजो०॥५९॥ बुद्धिसागर अवसर पामी, धर्म हृदयमां धार; समजी गणजो श्रीनवकार, तेथी उतरशो भवपार. सुणजो०॥६०॥ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Awakening Acharya Padmasagarsuri The Place of Dharma According to Lord Mahavira, the last thirthankar, Jiva i.e, man does not think clearly when he is in the bondage of Karma; hence, he gets entangled in a perverse hunt of puerile sensual pleasures. Throughout his existence, he remains in the grip of attachment. He does not hesitate to do any evil action in order to acquire wealth. Even old age does not prevent this. Though the body grows weak, desire does not. While the hair grows grey, the mind continues to be black. Though the teeth fall, avarice keeps increasing. What a strange thing this is! King Kumarpal picked up some gold coins belonging to a rat and it, afflicted by the loss, broke its head and died. From this, we learn that desire has its evil effect even upon animals. When that is so what should its effect be on man with stronger passions? It is said that a certain man stole five hundred rupees belonging to somebody. On account of this action of his, he was so profoundly afflicted with grief and repentance that he committed suicide. This is called Atmahatya. Atma means soul; hatya means slaying. But atma or soul is immortal and imperishable. Such an entity cannot be killed. Some people who believe that the body is the soul have given currency to this expression; and so it is in usage. This idiom of the language cannot be done away with. Let it remain so. Shankaracharya said; अर्थमनर्थं भवाय नित्यम् नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् Arthamanartham Bhavaya nityam Nasthi thathah sukhalesah satyam (Think that wealth always brings misery. Truly in this (wealth, there is no happiness). An illustration would make this point more clear. While two friends were walking by a road, a holy man came running from the opposite direction. They stopped him and asked him why he was running thus. The holy man said, "I saw Death beneath a tree on the way. I am running away to escape from him." For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6 श्रुतसागर अगस्त-२०१७ The holy man went away. The two friends walked on. When they approached the tree, they saw a brick of gold beneath it. One friend told the other that the holy man had planned to frighten them and make them go in a different direction, so that they might not get the brick, and so that he might take possession of it on his way back; but that his plan had failed. The other said, "We left our village only with the object of acquiring money. Fortunately, we have found this brick in the very beginning of our search. So, our desire has been fulfilled. Now, we can return to our village. After going to our village, we shall share the brick equally." The friends agreed upon this plan. They began walking towards their village. On the way, they came to another village. They halted beneath a huge tree outside that village. They felt hungry. One friend entrusting the responsibility of taking care of the brick to the other, went to the village to fetch food. On the way, he thought that if he mixed some poison with the food, his friend would eat it and die; and he could get the entire brick. Accordingly, with poisoned food, he returned to the tree. Now, they needed water. The friend said, "You begin eating food, I will fetch water from the nearby well." Having said this, he took up a pail and a rope; and went to the well to fetch water. An evil idea flashed to the friend who sat under the tree. He thought that if he pushed the other man into the well, he would get possession of the brick. In consequence, leaving the brick there, he went running to the well. He said, "Oh, friend! you brought the food and now you have come to fetch water also. You need rest. Give it here. I will draw the water." Saying this, suddenly, he pushed him into the well. Returning to the tree. He ate the food and died because of the effect of the poison. After some time, the holy man returned by the same road. He saw that sight under the tree; and burst out: "Really this brick of gold is Death." Again, he ran away from the place. People while accumulating wealth for their children do not realize the truth of what is said by a great poet in these words : पूत सपूत तो का धन संचय ? पूत कपूत तो का धन संचय ? For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 7 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir August-2017 Pooth sapooth tho ka dhana sanchay? Pooth kapooth tho ka dhan sanchay? If he is a worthy son, he will earn money himself; and if he is an unworthy son, he would waste the accumulated wealth. In both the cases, the accumulation of wealth is useless. Why only sons? All the members of your family are share-holders in "the company of your body" i.e., they claim a share in the proceeds of your labour. But, the punishments for your actions should be borne by yourself alone. When the dacoit, Ratnakar realised this truth from the words of the great sages, he gave up his career of violence, murder and robbery and became a great sage after performing severe penances and austerities. He is none other than the famous poet, Valmiki. Man earns money by undergoing countless hardships and spends it on luxuries and pleasures. Dharma (Duty), Artha (Wealth), Kama (fulfilment of Desires), Moksha (Salvation) are the four purusharthas or objectives to be attained by man. Of these, Artha and Kama constitute a pair and Dharma and Moksha constitute another pair. The first pair entangles the Jiva in the worldy life; and the second pair releases him from the bondage of Karma. Ninety nine percent of the people in the world are caught in the cycle of the first pair; and they cannot get out of it. The way of worldly life is the Preyomarg (the inferior path) and the way of salvation is the Shreyomarg (the superior path) He whose inner eyes are blinded and who lacks farsightedness, runs on the preyomarg. Man may lose his craze for money and utilize it for the welfare of others but it is not easy to discard lust. Lust keeps fascinating people endlessly. We cannot know when the latent lust of a man, who has performed penances and gives the impression of being peaceful, manifests itself in a terrible form. For Private and Personal Use Only A great saint, Rathanemi sat in solitude in the cave of a mountain; and when he saw a naked nun by name, Rajul, the fire of lust in him blazed out. All his spiritual attainments were ruined. In absolute helplessness, he begged for union with that lady. (Continue...) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवांगीपूजा गणि सुयशचंद्रविजयजी नवांगी पूजा परिचय जिनेश्वर भगवाननी पूजा मुख्यतया बे प्रकारे वर्णवाइ छे (१) द्रव्यपूजा, (२) भावपूजा तेमां प्रथम द्रव्यपूजा एटले द्रव्यथी थती पूजा जेमके फळ, फूलादि वडे कराती पूजा, ज्यारे बीजी भाव पूजा एटले प्रभुना गुणोनी स्तवनारूप पूजा. आ पूजामां प्रभुजीनी स्तुति, स्तोत्रादिनो समावेश करी शकाय. आपणे त्यां आ बन्ने प्रकारनी पूजाओ परापूर्वथी चालती आवी छे. जो के छल्ला १००० वर्षथी आपणे द्रव्यपूजाने विशेष प्रकारे करीए छीए जेमके स्नात्रपूजा, पंचकल्याणक पूजा, पांचतीर्थनी पूजा विगेरे. आमांनी घणी पूजाना नामथी आपणे परिचित पण छीए तेथी तेनुं अहीं पुनरावर्तन न करतां प्रभुना नव अंगनी प्रस्तुत पूजा अंगे अमे वाचकोनुं ध्यान दोरीशुं. __ प्रस्तुत कृति तपागच्छीय लघुपोशाळना कवि उदयसूरिजीनी रचना छे. तेमणे मुनि(?) राजसोमनी आज्ञामां रही वि.सं. १८९६मां सुरत(नवापुर)ना श्रीशांतिनाथ प्रभुना प्रासादमां कृति रची छे. कृतिनी लेखनपुष्पिका जोता कर्ताए पोते ज पूजानी आदर्श प्रत(नकल) उतारी होय तेम लागे छे. परंतु कृति साद्यंत तपासतां, कृतिमां प्रवेशेली भाषाकीय अशुद्धि जोतां कृतिकारना प्रतालेखन अंगे शंका थाय छे. बीजो एवो पण विकल्प स्फूरे छे के तत्कालीन बोलीनु ज जाणे काव्यमां प्रतिबिंब पड्यु हशे अने तेथी 'ए'कार ने बदले 'ऐ'कारनो प्रयोग, वधु पडतां अनुस्वारोनो प्रयोग, ‘अनेनी जग्याए 'ने'नो प्रयोग विगेरे भाषाकीय फेरफार प्रतालेखनमां उमेराया हशे. जो के वाचकोनी सरळता माटे अमे कृति आवा घणां स्थानोथी सुधारी अहीं रजू करी छे ते वाचको ध्यानमां ले. कृति परिचय __ शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान तेमज आदिनाथ प्रभुनु स्मरण करवा पूर्वक कविए काव्यनी शरूआत करी छे. कोई प्रभुने आदिनाथना नामथी तो कोई ब्रह्माना नामे, कोइ विष्णुना नामे, तो कोइ अल्लाहना नामे पूजे छे, तेवी घणी वातोनी विगते वर्णना कविए पीठिकाना शरूआतना पद्योमां करी छे. ज्यारे पछीना पद्योमां आवा भगवंतनी पूजाथी मळतां पांच ‘प'कार तथा पांच 'उ'कारनी वात कवि वडे लखाइ छे. जीवाभिगमसूत्रना कथन अनुसार देवो आसो तेमज चैत्र मासनी ओळीमां नंदीश्वर द्वीपे जई शाश्वत चैत्योमां प्रभुनो अठ्ठाइ महोत्सव करे छे. अने तेमां स्नानादि महोत्सव For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir August-2017 SHRUTSAGAR वडे प्रभुनी भक्ति करे छे. तेम श्रावकोए पण आ बन्ने ओळीमां सुदि ८ ना जमीन साफ-सूफ करी, जलादिकना छंटकाव वडे पवित्र करी, निगडामां ऋषभदेव प्रभुनु बिंब पधरावी, आठ स्मात्रीओने भेगा करी नव प्रकारना उत्तम द्रव्य वडे प्रभुना नव अंगनी पूजा करवी जोइए ते बधी वातो कविए प्रथम ढालमां वर्णवी छे. प्रभु ऋषभदेवना राज्याभिषेक अवसरे युगलियाओ वडे करायेलां विनयना अनुकरण रूपे प्रारंभायेली चरणांगुष्ठनी प्रथम पूजामां कविए प्रथम कुलकर विमलवाहनथी मांडी राजा ऋषभना लग्न, राज्याभिषेकादिनी तेमज ते वखतनी 'ह'कारादि दंडनीतिनी प्रासंगिक वर्णना करी छे. अने बीजी पूजामां कविए संयम लइ कर्म निर्जरार्थे देश-विदेशमा विचरी उपसर्गोने सहन करतां प्रभु आदिनाथनी स्तवना करी छे. आ ढाळमां कविए वर्णवेलुं प्रभुनी ध्यानावस्थानुं तेमज ढींचणनी पूजा करतां प्राप्त थती सुख-समृद्धिनुं वर्णन वांचवा योग्य छे. त्यारपछीनी लीजी पूजामां कविए जमणा तथा डाबा हाथनां मीठां संवादनी गुंथणी करी छे. ज्यारे बन्ने हाथ पोतपोतानी वडाइ दर्शावे छे, त्यारे बन्ने संवादीओनां सायुज्यथी थती कार्यसिद्धिओ दर्शावी कविए बन्ने हाथना माहात्म्यने जाळव्यु छे. साथे-साथे तेना उपयोगथी कराती पूजा द्वारा प्राप्त थतां इह-पारलौकिक फळनी पण ढूंकमां वर्णना रजू करी छे. भुजद्वयनी पूजा रजू करती त्यारपछीनी ढाळमां कवि कहे छे के जे भुजाथी प्रभु भवसागर तर्या ते ज भुजा मान(अभिमान)- पण स्थान छे अने ज्यां मान नथी त्यां ज आर्हन्त्य छे, तेनु ज जगतमां मान छे. विशेषमां कविए ते माटे दीप(प्रकाश) अने अंधकारना दृष्टांते करी पोतानी वातनी पुष्टि करी छे. प्रान्ते पूजाना फळनी प्राप्तिनी विगत द्वारा कवि ढाळनुं समापन करे छे पछीनी ढाळनी शरूआत प्रभुना केशकलाप तेमज मस्तक पर रहेली शिखानां वर्णनथी थाय छे. हठयोग संबंधी शास्त्रना मते ज्यारे दशम द्वारे एटले के मस्तक पर तालु स्थाने जो जीव वास करे, तो ते जीव जगतनो स्वामी बने छे अने तेने जगतनी नाना-मोटी बधी ज बाबतो प्रत्यक्ष होय छे. ते भावने वर्णवतां आ ढाळनां पद्यो विशेषे नोंधनीय छे. त्यार पछीनी छठ्ठी ढाळमां कविए सारा भाग्यथी प्रभुसेवा पाम्यानी विधाताना छट्ठीना लेखनी जेम प्रभुजीने करातां लाल टीकानी, चंदन एलची आदि सुगंधी द्रव्योथी प्रभुना कपाळने शोभाव्यानी, त्रण रेखाना प्रतिक रूपे केसरथी त्रण लीटी प्रभुभाले अंकन कर्यानी विगेरे घणी बाबतो आ ढाळमां आलेखी छे. जो के आ ढाळना छेल्लां ३ पद्यो स्पष्ट होवां छतां तेनो संबंध अमे अहीं उतारी शक्यां नथी. ते For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 श्रुतसागर अगस्त-२०१७ बाबत वाचको ध्यानमां ले. प्रभुना वचनातिशयनी वर्णना कवि हवे पछीनी सातमी कंठपूजानी ढाळमां करे छे. कवि कहे छे के जेम १४ राजलोकमां ग्रीवा स्थाने रहेला ग्रैवेयकना देवो जेम समान सुखवाळा होय छे, तेम समवसरणमां पण जीवो समान भावे रह्यां छे. अहीं समान भावनो अर्थ क्रोधादिथी रहितपणे रह्यां छे एम करवानो छे. वळी, बीजी पण कंठनी पूजा करतां गलग्रहनो रोग के मुखेथी दुर्गंध न आवे ते विगत आ ढालनी महत्त्वपूर्ण बाबत छे. ___आठमी हृदयनी पूजा- वर्णन करतां दूहामां कवि सौप्रथम प्रभुना हृदयनी निर्मळताने वर्णवे छे, ज्यारे त्यारपछीना पद्योमां ॐ ह्रीं श्रीं मंत्राक्षरना ध्याननी, श्रीवत्स अंगेनी तेमज बीजी पण घणी विगतो आलेखे छे. जो के आ ढाळमां पण पूर्वनी जेम घणां पद्योनो संबंध अमने अस्पष्ट होवाथी ते अंगे अमे कशुं लखी शक्या नथी. छेल्ली नाभिपूजानी ढाळ काव्यनी महत्त्वनी ढाळ छे. आ ढाळमां कविए नाभिस्थानमा रहेली २४ नाडीओनी, कुंडलिनी शक्तिनी(?), ईडा-पिंगळा-सुषुम्णा नाडी विगेरे यौगिक प्रक्रियानी विगतो आलेखी छे. आ विषयनो अमोने बोध न होवाथी अमे अहीं पण ते अंगे कशो विशेष परिचय लख्यो नथी. आ ज ढाळमां प्रान्तनी कडीओमां कविए नाभिनी केसर, सुखडादि चूर्णोथी अर्चना करवानी अने नाभिनंदनने वधाववानी वात गुंथी छे अने तेम न करतां नाभिमां एटले के निगोदमां फरी विचरवानी संसार भ्रमण करवानी कडक सजा पण फरमावी छे. ___ काव्यनी छेल्ली ढाळमां कविए प्रभुना अतुल बळनी तेमज प्रभुनां अखूट गुणग्रामनी सुंदर वर्णना करी छे. साथे नवांगी पूजाथी मळती नव खंडनी ऋद्धि, नव निधि आदि समृद्धिनी पण रजूआत छे. खास तो ढाळना बीजा पद्यमां ‘सात हाथ गिरि राख्यो' ए पदथी कवि शुं कहेवा मांगे छे, ते अमने समजायु नथी. प्रान्ते पूजा समापनना पद्योमां कविए पोतानी गुरु-परंपरा, संवत् तेमज ग्रंथरचना अंगेनी नोंध आपी काव्य पूर्ण कर्यु छे. प्रत परिचय प्रस्तुत कृतिनी मूळ हस्तप्रत खंभातनां अमरशाळा जैन ज्ञानमंदिरमा रहेली छे. तेना कुल ६ पत्रो छे. ते दरेक पत्रमा १३ थी १४ पंक्तिओ, पंक्तिमा ४५ थी ५० शब्दो छे खास तो संपादन माटे कृतिनी हस्तप्रत(Zerox) आपवा बदल पू. मुनि श्री अविचलेंद्रविजयजी म.सा.नो, ज्ञानमंदिरना व्यवस्थापकोनो, मनुदादानो तेमज प्रो. कीर्तिभाईनो खूब खूब आभार. For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir August-2017 ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ SHRUTSAGAR नवांगी पूजा ॥श्रीपार्श्वदेवाय नमः ॥ श्रीऋषभराजाय नमः॥ अथ नवांगीपूजा प्रारभ्यते ॥ श्रीसरस्वत्यै नमः॥ स्वस्ति श्री शंखेश्वरो, ऋषभ वडो महाराज; जनम-मरण-संसारजल, आदि उतरवा पाज एक आदेई आदि इक, अकलरूप अरिहंत; आदि ब्रह्मा आदिम कहे, सोइ विश्वंभर संत अल्ला अलख अलेस' ए, अगम अगोचर रूप; वृषभांकित प्रभु ऋषभ ए, शंकर तेम स्वरूप सोवन जिम जगि श्रेष्ठ छे, सोवन सरिखी काय; सोवन विण सोवन विषे, रहे घुरजटी जाय धनवंता ते धन दीये, अष्ट सिद्धि नव निद्धि: चक्रवर्तिना घर विषे, चौद रत्ननी ऋद्धि पुत्र भरत चक्री कर्यो, आप आदि भगवान; समरथ ए छे साहिबो, ऋषभ राजराजान जगत-उद्धार जिणेसरू, एह आदि नरपत्ति; प्रथम प्रभु ए पारगत, जांणो ए जगपत्ति शत्रंजय ए स्वामिजी, मक्के ए महाराय; आदि पुरुष ए आदिनो, जग सघलो जस गाय ए प्रभु पूज्या पामीये, संपदा सुख समग्र; ते प्रभु पूजा त्रिहुं विधे, अंग' भाव' ने अग्र उदय उंचपद ऊपमा, उत्तम सत्त्व उदार'; श्रीपरमेश्वर पूजता, पामे पांच ‘उ’कार प्रज्ञा', प्रभुताई वधे, पुण्य पापक्षय प्रीति'; परमेश्वरने पूजता, पांच ‘प’पा लहे नित्य ते माटे प्राणी तुम्हे, पूजो प्रभु धरी प्यार; प्रभु पूज्या सुख इह भवे, पामे परभवे पार ॥६॥ ||७|| ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ 1. दयारहित, 2. शंकर. For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 12 अगस्त-२०१७ सास्वत तीरथंकर सदा, पूजे देवविमान; सास्वत दोइ अट्ठाइमां, गिरिकूटे प्रभु गान ॥१३॥ ॥ढाल-१॥ अनिहां रे वाल्होजी वाये छे वंसली रे- ए देशी॥ अनिहां रे आसो चैत्र अट्ठाहिनमे रे, देव मलीने नंदीसरद्वीप, अरचंता अरिहंतने रे, भरी कलश प्रभुने समीप ॥१॥ न्हवण करे प्रभु वृंदने(?) रे, न्हवण करे नाभिनंदने रे, वाल्हो आदि युगादिनो ईस; तारण ए भवतीर छे रे, एह जोरावर जगदीस ॥२॥ न्हवण० अनिहां० जीवाभिगमथी जाणज्यो रे, मत आणज्यो मनमां जूठ; मारि उपद्रव सब मिटे रे, वलि उपशमे देवता दूठ ॥३॥ न्हवण० अनिहां० तिम तुम्हे करो निज थानिके रे, प्रभु-उत्सव पुण्यने काज; प्रभु पूज्या सुख पामीये रे, रमणी ऋद्धिने राज ॥४॥ न्हवण० अनिहां० आसो चैत्रनी आठिमे रे, उजलिये उज्जले भाव; सुचि धात्री करी जलछटा(वे) रे, करो पूजा ठाठ बणाव ॥५॥ न्हवण० अनिहां० त्रिण गढ रची तिणे थानिके रे, सोहावो सीहासनि स्वामि; दक्षण दीवो धूप डावी दिशे रे, मेलो आठ अरघ' अभिराम ॥६॥ न्हवण० अनिहां० फल जल वासने फूलडां रे, अक्षत नैवेद्य ए आठ; अष्ट मंगल रचो रूयडां रे, ठिक ठाम जोई करो ठाठ ॥७॥ न्हवण० अनिहां० आठ पूजा नव अंग छे रे, तेणे नव नव चीज मिलाय; नव अंगे प्रभु अरचीये रे, एह पूजा नवांग भणाय ॥८॥ न्हवण० अनिहां० आठ स्नात्रीया अति भला रे, न्हाइ धोइ न्हवरावे नाथ; ते अणिमादि आठे सिद्धिने रे, पामे ते कहुं कुण माथ; हेजे पकडो शिववहु-हाथ ।।८।। न्हवण० अनिहां० आसोने चैत्रनी ओलीये रे, नव आंबिल करीये नेम; नव अंग पूजा भणावीये रे, सिद्धचक्र पूजो धरी प्रेम ॥९॥ न्हवण० अनिहां० उर कमले नवपद जपो रे, नव नव परि पूजो नाथ; आगलि रूपानो आंबलो रे, ठवो प्रभु-पे(पय) साजन साथ ॥१०॥ न्हवण०अनिहां० प्रभु पूज्या थकी प्राणीया रे, देवपालादिक थया देव; उत्तम श्रीउदैसूर जे रे, सहु करज्यो प्रभुनी सेव ॥११॥ न्हवण० अनिहां० 1. दूष्ट, 2. चोक्खि/पवित्र, 3. प्रभु ऋषभने रे - पाठांतर, 4. पूजानी सामग्री, 5. (?), 6. (?). For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 ॥१॥ ॥२॥ ॥१॥ ॥२॥ SHRUTSAGAR August-2017 जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं' अक्षतं फलं फूलं धूप दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । ॥ अथ नवाङ्गमध्यात् प्रथमाङ्गुष्ठ पूजा ॥ ॥हा॥ सास्वति दोय अट्ठाहिये, जे पूजे जिनराज; ते प्राणी सास्वत सुखे, कोडि सुधारे काज चरण जान कर अंस सिर', भाल ग्रीवा वली वक्ष'; नाभि नी नवमी कही, पूजा एह प्रत्यक्ष रचस्यं ते प्रभु ऋषभनी, पूजा एह नवांग; पिण पहेलां अंगुष्ठनी, पूजा पछी नव अंग जल भरी संपुट पत्रना(मां), युगलिक नर पूजंत; ऋषभ चरण अंगूठडा, दायक भवजल अंत ॥४॥ श्रीआदेश्वर कल्प परि, वंछितवरदातार; त्रीजारक अंते थया, सग कुलकरथी सार ॥ढाल २॥रे मारी सहि रे समांणी- ए देशी॥ पूरव पश्चिमे महाविदेहे, बिहुं सज्जन ससनेहे रे; सुणो सयण सवेइ एक सरल बीजो वक्र सखाई, चोरथी कन्या रखाई रे, सुणो० ॥१॥ परण्यो सरल ने वक्र छे धीठो, ते त्रिण्यनो भव नीठो रे; सुणो० दंपति-युगल थया गंगामां, वक्र थयो नागामां रे, ॥२॥ सुणो० जातिसमरण हाथी अकोहे', युगलने खंधे आरोहे रे; सुणो० अन्य युगल मिली विमलवाहन कही, हसि हसि बोले उमही हो, ॥३॥ सुणो० एम प्रथम थयो विमलवाहन नृप, चंद्रयशा स्त्री अदर्प रे; सुणो० नवशत धनुष छे कोमल काया, दंड ‘ह’कार ठराया रे, ॥४॥ सुणो० 1. क्रोध वगरनो थइ. ॥३॥ ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 श्रुतसागर अगस्त-२०१७ चक्षुक्ष्मार चंद्रकांता भार्या, आठसे धनुष उपार्या रे; सुणो० त्रीजो यशस्वीउ रूपा रांणी, सातसे धनुष प्रमाणी रे, ॥५।। सुणो० 'च’ ‘म’कार दंडद्वयी नृपनीती(ति), ए वातो वलि वीती रे; सुणो० तूर्य [अभिचंद्र प्रतिरूपा नारी, सार्द्धा षट् तनुधारी रे, ॥६॥ सुणो० 'ह’ ‘म’कार दंड बिहुंथी बिहावे, ए पण जनम गमावे रे; सुणो० जीतप्रसेन चक्षुक्षम दयिता, धनुष छसे तन-प्रमिता रे, ॥७॥ सुणो० तेहनी पुत्र मरुदेव नामा, श्रीकांता शुभ वामा रे; सुणो० साढा पांचसे धनु तनु सोहे, महर्द्धिक न्याये न रोहे रे, ॥८॥ सुणो० सातमे नाभि भूप मरुदेवी, आठमे ऋषभ भणेवी रे; सुणो० प्रभु जनमे पुलकांकित अंगे, अभिषेके सुरगिरि-शृंगेरे, ॥९॥ सुणो० गीत वाजित्र महाडंबरथी, वज्री सकल सचि सुरथी रे; सुणो० ए प्रभु आदिजीने न्हवराव्या, ऋषभ राजा मन भाव्या रे, ॥१०॥ सुणो० युगलनो जुद्ध मिटाववा माटे, इंद्र ठवे प्रभु पाटे रे; सुणो० लाख पूरव षटना थया खेमे, परण्या बिहु बहु प्रेमे रे, ॥११॥ सुणो० माथे मोलियां मुगट बिराजे, जामादिक' पट झाझे रे; सुणो० भूषण दुकुल सर्वांग समारी, सिंघासन स्थितकारी रे, ॥१२॥ सुणो० इंद्र हुकमथी जुगलिया जावे, दडिया भरी जल ल्यावे रे; सुणो० पणि नवि अंग उघाडो ते देखे, करी विचार विवेके रे, ॥१३॥ सुणो० जिमणो पग-अंगुष्ठ पखाले, वज्री विनय निहाले रे; सुणो० प्रथम पूजा प्रभु इणि परे प्रगटी, वासी वनिता सुघाटी रे, ॥१४॥ सुणो० श्रेष्ठी सकल प्रभु आदि उपावी, नव अंग पूजा निपावी रे; सुणो० ए प्रभु रूपाला रंगीला, उदयसूरि संगीला रे, ॥१५।। सुणो० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स ॥१॥ सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं' अक्षतं फलं फूलं धूपं दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । 1. झरीयन वस्त्र(?), 2. (?). For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 15 August-2017 ॥ अथ बीजी पूजा॥ ॥हा॥ ॥१॥ ॥२॥ वीस लाख कुमरपदे, त्रेसट्ठि पूरव राज; लाख पूरव समता वर्या, लेई संजम साज जानुबले काउसग्ग रह्या, विचर्या देश-विदेश; खडा खडा केवल लघु, पूजो जानुनरेस ॥ ढाल ३॥ आपो आपोने लाल मुझने मूंघा मूलना मोती- ए देशी॥ पूजो पूजोने लाल पूरणब्रह्म प्रभुने(टेक) श्रीआदेश्वरजी अलबेला, चारित्र लेइ विचरता; वाचंयमपद' जोगने धरता, पूरवा भवभ्रमगरता ॥१॥ पूजौ० सोवे बेसे नहि ते स्वामी, ढींचणे दृढ तनु धारे; पूरव कर्म प्रयासे प्रजाले, श्रमतापे मन वारे ॥२॥ पूजौ० काया माया मन अवरूंधी, घोरोपसरग घमंडे: द्रव्य क्षेत्रने कालथी भावे, वाल्हो वसे नव खंडे ॥३॥ पूजौ० अप्रतिबद्ध वायु परि विचरे, जाणे जगने झूठो; कोइ कोइनुं नथी इणे संसारे, कुंण रुठो कुंण तूठो ॥४॥ पूजौ० ध्यान धरे ढींचणे कर धारी, नेत्र हृदय दृग निरखी; सहस वरस लगि इम प्रभु विचर्या, नहि मन कोप अमरषी' ॥५॥ पूजौ० जानुबले अघओघ' प्रजाली, केवलकमला पामी; पूरव नव्वाणुं वार पधार्या, श्रीसिद्धाचले स्वामी ॥६॥ पूजौ० जानुबले जीवनजी चढीया, समवसरण सोपाने; ते कारण प्राणी ! तुम्हे पूजो, प्रभु-ढींचण एकध्याने ॥७।। पूजौ० ढींचणथी ढींचण दृढ थावे, ढींचणे उठी धावे; ढींचणथी वयरी वसुधा वसि, ढींचणे तिलक धरावे ॥८॥ पूजौ० इंद्र चंद्र नागेंद्र सरीखा, पूजे प्रभुने भावे; उदयसोमसूरि इणि परि उत्तम, बीजी पूजा बनावे ॥९॥ पूजौ० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहस्स 1. (?), 2. भवमां भ्रमणरूपी खाडो, 3. ईर्ष्या, 4. ओघ = समुदाय. ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 ॥२॥ श्रुतसागर अगस्त-२०१७ सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं' अक्षतं फल फूलं धूपं दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ।। ॥ अथ त्रीजी पूजा॥ ॥दुहो॥ कर-कांडे प्रभु पूजीये, पूजंता बहुमान; लोकांतिक वचने करी, दीधां वरसी दान ॥१॥ ईक्षुवंशी आदि जिन, श्रेयांसने घरे स्वामि; आव्या अब्द-पअंतरै', वाल्हो विहरण जाम ॥ ढाल ॥ जात्रा नव्वांणु करीये विमलगिर जात्रा- ए देशी॥ ईक्षुरस-अधिकारे मेरे प्यारे, त्रीजी पूजा विचारे; अक्षय त्रीज ति वारे मेरे प्यारे, ईक्षुरस अधिकारे (टेक) जिमणो हाथ पसारे हो जिनजी, डावो कर तव वारे; बिहुँमा कुंण ऊछो कुंण अधिको, संपे काज सुधारे ॥१।। मेरे० त्रीजी० जिमणो कर कहे जगमां हुं अधिको, लोकमां लाडिकवाह्यो; वींटी वेढ पणुं(हुं)चा पहेरुं, मूछे वल वलि वाह्यो ॥२॥ मेरे० त्रीजी० मे सो पुत्रने राज्य समढ़ें, भाले तिलक बनाव्यां; सुनंदा सुमंगला केरां, पाणीग्रहण कराव्यां ॥३।। मेरे० त्रीजी० छत्र चामर रेखा कर दक्षण, दक्षणि मस तिलकादि; एक हजारने आठ छे लक्षण, जिमणे ऊपमा जादी (दि) ॥४॥ मेरे० त्रीजी० दान संवत्सरि ते मे दीधां, अम्हे वाले भोजन आपूं; लेखण लेई सरवने हूं लिखु, दीसे नहि तुझ दापूं' ॥५॥ मेरे० त्रीजी० डावो कहे हूं ढाल धरुं जो, तो तूं रहे जीवंतो; धरमध्वज लेई धरम कर्या मे जो, तो तूं लक्षण श्रीवंतो ॥६॥ मेरे० त्रीजी० एक टीको करे एक कंकावटि, भोजने माखी उडावे; एक मूछ तो एक दरपण साहे, एक पकडे एक साहे' ॥७॥ मेरे० त्रीजी० 1. (1 वर्ष) पछी, 2. (?), 3. दक्षिणा, 4. सहाय करे. For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 17 मुझथी हुं तुझी रे भाई, निज निज ठोरे निवास्या'; बिहु मिल्यां मंथन शोभे बिहुं पगि, एकला कोइ न खासा मोटा छोटा सहु कामाला, आप आपणे कारे'; काम पडे ज्यारे सुईनुं, तो कहोने स्यूं सीझे तरुआरे ' लेखण खडिये लेख लिखाये, काठ अगनि परजाले; पांचे पणुंचो संपथी सिद्धि, बे कर पारण का बेकरे सोवन कडला बनावो, भेला भोजन दाने; तिणे प्रभुने बिहुं हाथे तिलक करो, सूकड केसर वाने' प्रभु पूज्याथी प्रभुता पामे, विमला कमला वरषे; आ भवि पर-भवि अमर थईने, पूरण-पद आकरषे ते माटे तुम्हे त्रीजी पूजा, द्रव्यथी भाव बनावो; तो उदैसोमसूरे अलबेला, उत्तम आनंद पाव जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स । बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैर्नपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् मान गरवना ठांम ते, अंस खभा ने खंध; दरप अहंपद एहना, सहुना कहुं संबंध Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खंध भूमिथी जाया भुज ते, भुजबले चारित्र लीधा रे; प्रभुभुज भवभुज-छेदकुठारा, भुजे भवजल तरी सीधा रे 1. जग्याए, 2. कार्यमां, 3. तलवारथी, 4. वस्तु वडे, 5. अविनीतपणुं(?). For Private and Personal Use Only August-2017 ॥८॥ मेरे० त्रीजी० ॥९॥ मेरे० त्रीजी० ॥१०॥ मेरे० त्रीजी ० ॥११॥ मेरे० त्रीजी० ॥१२॥ मेरे० त्रीजी० ॥१३॥ मेरे० त्रीजी० ॐ ह्रीँ श्रीँ परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय ] जलं' चन्दनं` अक्षतं फल फूल' धूप दीप नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥ ॥अथ चतुर्थ पूजा प्रारंभ ॥ ॥ दुहा ॥ ।। ढाल । आज गइति हुं समवसरणमां- ए देशी ।। चतुर कहुं हिवे च्यारमि पूजा, च्यारमुं अंग छे अंसा रे; ऊंचे वंशे वंश छे ऊंचो, इम खंधे अवनीसा' रे ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) 11211 11211 ॥१॥ चतुर० ॥२॥ चतुर० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 श्रुतसागर अगस्त-२०१७ मान विना भगवान कहीजे, मान विगर जग माने रे: दोष अढार रहित देव पांचमा, देवाधिदेव वखाने रे ॥३॥ चतुर० मान गुमाननु ठांम खभा छे, वलि खभे वीर्य अनंत रे; वीर्य अनंते मान नसाडवो, दीपक-तम दृष्टांते रे । ॥४॥ चतुर० दीवो तिहां अंधार न होवे, जो तम तो नहि दीवो रे; तिम बिहुं मान ते भेला न भले, नागर अंतक जेहवो रे ॥५॥ चतुर० अंतकमान ते नरकनुं आपक, छे निज निज मने मोटा रे; एक मानीने जग सहु माने, एक मानी जगि खोटा रे ॥६॥ चतुर० माने दुरजोधन चरमी(?) मू(र)ख, रावण मानथी रोल्यो रे; मानी बाहूबल मतवालो, माने मल्ल झझोल्यो' रे ॥७॥ चतुर० धुर-ध्येयी अन्य हेयी पूजो, प्रभुजीना अंस बे आछा रे; अंसने पूज्या अंस पूजाये, पुनरावरत न पाछा रे ॥८॥ चतुर० चित्तथी चेतन च्यार निवारी, प्रभु चिहुं अंगे पूजो रे; चिहुं कापो तो पंचमु थापो, स्युं भरमे भाइ मुंझो रे ॥९॥ चतुर० कनगरि अगरे कनकगिरि तोले, बल अनंत भुजमूले रे; तेणे भुजमूल ते पूजो प्रांणी, अरिहाने अनुकूले रे ॥१०॥ चतुर० प्रभु तन टोचे पूज्या परभवि, उदयसूर लगि उंचे रे गाले भाले भाव प्रमाणे, पकडे शिववहु पोहचे रे ॥११॥ चतुर० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीँ श्री परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं अक्षतं फलं फूलं धूपं दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ।। ॥१॥ 1. हराव्यो, 2. अग्र, मुख्य, 3. (?), 4. मेरु. For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR 19 ॥ अथ पंचमी पूजा ॥ ॥ दुहा मुग धरो प्रभु मस्तके, करि परि मस्तक जास; इंद्राग्रहे इक चोटली, राखी सिरे रहे वा गजमस्तकि गजपति हुवे, मोटे माथे राज; प्रभुजीने माथे पूजता, देव देवी सिरताज www.kobatirth.org 11 1. वच्चे, 2. कोईक. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौली-न -नमत-पति नाकी, नमत-पति-नाकी, इक शिखा प्रभुने सीस; पूजौ ० ऊंची बार अंगुल परिमाणे, अंगुल परिमाणे, दीपे माथे रे जगदीश दसमो द्वार ए तालु'विचाले, [तालु विचाले] द्वारे जीव जगपत्ति; पूजौ ० होवे जे जगना स्वामि, जगना स्वामि, ते ए लक्षणे उतपत्ति August-2017 ॥ ढाल - छठ्ठी ॥ लींबुऐकि नींचि नींचि डालिया हो नींचि नींचि डालिया कैरबौ - ए देशी ॥ पांचमी हवे मस्तक पूजा, मस्तक पूजा, कीजीये गुणना जिहांज; पूजो रे जिणंदा प्यारा, पूजो रे जिणंदा भवपाज, पूजो रे मुणींदा प्यारा (टेक) लोकांते भगवंत बिराजे, भगवंत बिराजे, तालु पूजा तिणे काल ॥१॥ पूजौ ० For Private and Personal Use Only 11311 अखंड ए ब्रह्मांड कहावे, ब्रह्मांड कहावे, आखिजे एह अलोक; पूजौ ० रह्यो तिहां जीव ते खेल रचावे, खेल रचावे, के वलि न लहे ते कोक जगठाकुर ए सघलुं जाणे, सघलुं जाणे, सचराचर विनिवेस; पूजौ० कीडीने पगे झांझर वागे, झांझर वागे, लहे ते सांई लेस लेस तिणे ठांमे तुमे तिलक बनावो, तिलक बनावो, गावो प्रभुना गुण गान; पूजौ ० ताल मृदंग` सरोद सकज्जे, सरोद सकज्जे, त्रिण्य करीने एक तान धी ध्रीकट ध्रु कट, धुंनि धिधि कर ध्रु, ततथेइ तान नचाय; पूजौ० उतम उदयसूरे प्रभु पूज्या, सूरे प्रभु पूज्या, दिन दिन सुजस सवाय जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स । बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, , भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैर्नपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् 11211 ॥२॥ पूजौ ० ॥३॥ पूजौ ० ॥४॥ पूजौ ० ॥५॥ पूजौ ० ॥६॥ पूजौ ० ॥७॥ पूजौ ० 11211 ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 20 श्रुतसागर अगस्त २०१७ ॐ ह्रीँ श्रीँ परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय ] जलं' चन्दनं` अक्षतं फलॆ फूल' धूप दीप नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ।। ॥ अथ छठी पूजा ॥ ॥ दुहा ॥ तिरथंकरपदपुण्यथी, त्रिभुवनजनसेवंत; त्रिभुवनतिलक समा प्रभु, भालतिलक जयवंत भाले भाग्यकला भली, भाले तेज भनंक'; ते प्रभुजीना भालमां, कीजे तिलक तनंक' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हां रे अध्यातम रंग-महेलमां हो लाल, हां रे अनुभव गोखे बेठे देव; प्यारे० ते रूप मूरति छे इहां हो लाल, हां रे साहिबनी करस्यां सखरी" सेव 11211 ।। ढाल ।। रमवा जावा दे पना मने रमवा जावा दे, मारी सहियर जोवे वाट पना मने खेलवा जावा दे - ए देशी ॥ पूजने जावादे प्यारे मोकु पूजने जावादे; मेरो साहिब ए सुलतान, प्यारे० (टेक) भणस्युं पूजा रे, छट्ठी भालनी हो लाल, हां रे भलेरा भाग्य भले रे लाल प्यारे० लिखे विधि-लेख छट्ठी रातडी हो लाल, हां रे रातडियो टीको लाख लाल ॥१॥ प्यारे ० मे चांदलो चंदने चरचियो हो लाल, हां रे ओपावो सिद्धसिल्ला सीआडि; प्यारे ० लिखमी वहु रे जिहां लाडकी हो लाल, हां रे कांइ नीला' जास निलाड' ॥२॥ प्यारे० भलो होय ते भलो करे आपणो हो लाल, हां रे करावे लीलावालो लील; प्यारे ० रसियो जांणे रे रसनी वातडी हो लाल, हां रे केसरियो रसियो वीर वकील ||३|| प्यारे० ऊंचा ऊंचा भाल प्रभु आदिनाजी लाल, हां रे कांइ नीची नीची भ्रूह-कबांन'; प्यारे० एलची चंदन चूआ चापडो' जी लाल, हां रे सोभावो भाल भले रेवांन ॥४॥ प्यारे ० तीन रेखा छे जेहना भालमां हो लाल, हां रे करिस्यां केसरलीटी तीन; प्यारे० तीन रोम तन्न एक ठोर ै छे जी लाल, हां रे तीनुंथी तीनुं लोकाधिन इंद्र चंद्र रवि गिरिइंद्रना जी लाल, हां रे लेईने गुण घड्यं जेहनुं अंग; प्यारे० भाग्य लाव्या छे प्रभु किहां थकी हो लाल, हां रे कपालमां अक्षर राते रंग ॥ ६ ॥ प्यारे० भरी पिचकारि पतंगनी हो लाल, हां रे प्रभुने भाले छांटे छेल; प्यारे० ठकुराइ ऋषभनी ठाउकी हो लाल, हां रे रेहवाने शिव किलासी' - महेल ॥७॥ प्यारे० ॥५॥ प्यारे० For Private and Personal Use Only ॥२॥ ॥८॥ प्यारे ० 1. घणुं(?), 2. ताणीने-सारी रीते, 3. (?), 4. आर्द्र, 5. ललाट, कपाळ, 6. धनुष्य, 7. (?), 8. स्थान, 9. कैलासी-मोक्षरूपी(?), 10. सुंदर. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१॥ ॥१॥ SHRUTSAGAR August-2017 हां रे धपमव मादल दूक्कडां' रे लाल, हां रे बजावो गावो घुमर घेर; प्यारे० हां रे लेख छट्ठी पूजा छट्ठी भालनी हो लाल, हां रे पूजोने उदये सूरज मेर ॥९॥ प्यारे० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं' अक्षतं फल फूलं धूप दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा । ॥अथ पूजा सप्तम॥ ॥दुहा॥ सोल पंहोर प्रभ देशना, कंठे अमृत तूल्य; मधुर वचन सुर नर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल्य कायापुर गोपुर कह्यो, जीजिये जीव निवास; तिणे तिलक तिहां कीजिये, प्रभु कंठामृतवास ॥ ढाल ॥ भगति हृदयमां भावज्यो रे- ए देशी ॥ त्रिण गढमां बेसी प्रभुरे, ये भविने उपदेस; अखंड धुनि' ऊठे तिहां रे, समझे सुर तिरि सेस ॥१॥ हो जिनजी ! ऋषभ रमइया रामना रे, कंठकलित त्रिण ग्रामना रे, रागी वसि वीतराग चिहुं मुखे ब्रह्मा जिम भणे रे, बावो आदिम एह; वाणी जोजनगामिनी रे, गुण पांत्रीस ज्युं मेह ॥२॥ हो जिनजी० सेलडि साकर ध्रा(द्रा)खथी रे, मीठो साद-सवाद; रोमोद्गम सुणता लसे रे, भांजे भवि विखवाद ॥३॥ हो जिनजी० अब्धो विधो वलि वधु-मुखे' रे, अमृतवास अनृत्य; सरप मुखे वलि विबुधमां रे, अमृतवास असत्य ॥४॥ हो जिनजी० खार खंडित रंडित रत्य, विष-मरण विबुधने विपत्य; सहु माने सत्यासत्य, विण प्रभुजीने कंठे अमृत्य ॥५॥ हो जिनजी० ॥२॥ 1. (?), 2. (?), 3. (?), 4. धरि, 5. मेघ, 6. चंद्र, 7. (?), 8. सांप. For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अगस्त-२०१७ दस चउ पुरुषाकारमा रे, ग्रीवा ग्रैवेक ठांम; सहु सरिखा तिहां इंम इहां रे, प्रभु-परखद अभिरांम ॥६॥ हो जिनजी० वेर मिटे वाणी सुण्यां रे, जोता सीह सारंग; ग्रीवा-निनाद गंभीर छे रे, रंग प्रभुजीने रंग ॥७॥ हो जिनजी० कंठ तिलक तिण कारणे रे, करीये भविजन भाव; गलग्रह' रोग गुदे नहीं रे, मुखे दुरगंध न दाव ॥८॥ हो जिनजी० वांसलि वीणा पिक-रवे रे, काने सुण्यां मिटे क्रोध; उदयसोमसूरि सुर-नरा रे, आणंदे लहे बोध ॥९॥ हो जिनजी० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्सय वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स ॥१॥ सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं अक्षतं फलं फूल धूपं दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ।। ॥अथाष्टम पूजा॥ ॥ दुहा॥ पूजा उरनी आठमी, अष्ट सिद्धि आपंत; प्रभु हृदये पूजा कर्या, करम आठ कापंत ॥१॥ हृदयसरोस(ज ?)थी उपसम्या, बाल्या रागने रोस; ऋण पावकथी रहित छे, हृदयतिलक निरदोस ॥२॥ ॥ ढाल ॥नेक निजर करो नाथजी, तथा वेमलो रहेने वरणागिया- ए देशी॥ हवे आठमि पूजा प्रकासीये रे, लीधि आठमि गति अविनासीये वाल्हो ऋषभ हृदयमां वासीये जी रे ॥१॥ पूजो ऋषभजीने प्राणीया, जेहने सुर-नर-असुरे जाणीया जी रे (टेक) उरे प्रणव अक्षर धुरे थापीने रे, संगे मायाबीज समाने रे श्रीये सिद्धनुं ध्यान समावीने जी रे ॥२॥ पूजो० 1. एक रोगनु नाम, 2. (?). For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 23 SHRUTSAGAR August-2017 बिहुं धाई उपडता बोबला रे, विचे लाल बीटडली सोभलारे; नस लीली लीटडली लोभला जी रे ॥३॥ पूजो० प्रभुने श्रीवत्स सुंदर हृदयामां, प्रभु सचर अचर छे सदयामां; __अरिहंतअतिसै उदयमां जी रे ॥४॥ पूजो० उर विस्तीर्ण नगर कपाट छे रे, जेहने खावा पीवा धन खाट छे रे; जेहने ठकुराइना घणा ठाठ छे जी रे ॥५॥ पूजो० उरे वसिया ते अंतरजामि(मी) छे रे, नाथ आदि जिणंद वड नामि(मी) छे रे; इला आदि जुगादि ए स्वामि(मी) छे जी रे ॥६।। पूजो० खरं हृदय छे खासा तन्नमा रे, मन होय तो मिलिये वन्नमांरे; दिल वसीया सो वार ते दिन्नमां जी रे ।।७।। पूजो० उरे शास्त्र पूरव मित पाठवे रे, उरे सूर रणे अरिहा ठवे रे; __ प्रभुना उरनी ओपम कुंण आठवे जी रे ॥८॥ पूजो० उर-ल्याई प्रभु जो पूजीये रे, कोइ दिन हृदये किम मुंझीये रे; पूजी सघला काज सुलूझीये' जी रे ॥९।। पूजो० प्रभु पूज्याथी प्रभुता धारीये रे, घनघाति विरुद्ध अघ वारीये रे; उदयसूरे प्रभुने संभारीये जी रे ॥१०॥ पूजो० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्सय वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ (इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं' अक्षतं फल फूलं धूपं दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥ ॥अथ नवमी पूजा॥ ॥हा॥ नाभिनी पूजा नवमि, नाभि नवमुं अंग; नाभिनंदन पूजीये, नाभि जीव तरंग ना भीति भय सप्तनी, नाभिथी सुखवास; नाभिनंदन पूजीये, केसर कपूर बरास 1. पलंग, 2. विचारी शके, 3. सलटाववा. ॥१॥ ॥१॥ ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अगस्त-२०१७ ॥ ढाल १०मी॥ वन्नमां वन्नमां वन्नमां रे, वाल्हो वसे छे वृंदावन्नमां-ए देशी॥ कीजीये कीजीये कीजीये रे नवमि नाभिनी पूजा कीजीये (रे) लीजीये लीजीये लीजीये रे नवमि नाभिनी पूजा[थी फल] लीजीये (टेक) नाभिए ब्रह्मा विष्णु महेसर, नाभिए नारिथी रीझीये रे; नवमि० नाभि-विचार ते निश्चय जाणो, नाभिथी नवरस बूझीये ॥१॥ नवमि० नाडी चोवीस छे नाभि ठेकांणे, त्रीछी च्यार भणिजीये रे; नवमि० दस ऊरध वहे नाडी-नलिका, दस वलि अध जाणिजीये रे ॥२॥ नवमि० नाभिअस्थांन कुंडली आकारे, नागिण रूप नाणिजीये रे; नवमि० तिहांथी हज्जार वहे झडिलाई', नल बिहुं नाक जाणिजीये रे ॥३॥ नवमि० प्रेरे पवन ते पींड सकलमे, कोइ विरला जाणिजीये रे; नवमि० अढी अढि घडी एक स्वास रहे सांसे, अरटनी रीति आणिजीये रे ॥४॥ नवमि० वामे ऐं(इं)डा चंद्रनी नाडी, मध्य सुखमा माणिजीये रे; नवमि० दक्षिणे पे(पिं)डा सूर्यनी नाडी, वडी ए त्रिण्य वदिजीये रे ॥५॥ नवमि० हर हेठे [ ने] ऊपरि भवांनी, शक्ति शंकर जे णिजिजीये रे; नवमि० ज्यारे नाभिए जीव त्यारे परम सुख, नाभि-पूज्या न मरिजीये रे ॥६॥ नवमि० डंटी पेटोचि(पेचोटी) मबारखि नाभि, धरणीथी रे थिर रीजीये रे; नवमि० नाभिनंदनने डुंटी तिलक करो, तो थिर ठामे ठरिजीये रे ॥७॥ नवमि० नाभि-मरगने मेले केसरथी, सूकड बरास भरिजीये रे; नवमि० नाभि पूजोने नाभिनंदन वधावो, नहि तो नाभि विचरिजीये रे ॥८॥ नवमि० नाभि-पूज्याथी कमलाकामी, पूरण सुख पामिजीये रे; नवमि० उदयसोम सूर लगि अलबेला, प्याला अमृतना पीजिये रे ॥९॥ नवमि० जिणस्स णाणीजगणायगस्स, जगप्पईवस्स य बोहगस्स। बुद्धस्स मुत्तस्स य वच्छलस्स, भिसिंचयामो उसहप्पहूस्स सुरपतैनपितं प्रभुपत्कजं, यदि युगेश युगादीश जन्मितः । यदि च राज्यपदे प्रभु संस्थितः, नतसुरेन्द्रनरेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२॥ __(इम कही कलश ढालवो) ॐ ह्रीं श्रीं परमपरमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय [श्रीमज्जिनेन्द्राय] जलं चन्दनं अक्षतं फलं फूल धूपं दीपं नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥ ॥१॥ 1. (?), 2. (?), 3. (?). For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१॥ ॥२॥ SHRUTSAGAR August-2017 इम कही कलश ढाली, पूजा करी, आरती-मंगल दीवो करी, लूण-पाणी उतारी, स्नात्रियाओने खमासमण नव-नव देवरावीये। पछी हाथ जोडी, उभा रही प्रभु साहमा भावना भावीये पूजाना भणावनार राग रंग रीझे तान बाजा बजावते ॥ छेहली ढाल || हर्षनी भावना भावे तिहां प्रथम दुहा कहीये । ते दुहा लिखीये छे | ॥हा॥ चरण जानु कर अंस बे, सिर' भाल ग्रीव वक्ष'; नाभि इम नव अंगनी, पूजा कही प्रत्यक्ष आदि पूजा ए आदिथी, उपनी इक इके(क) अंग; तिम वरणवी गुण प्रगट करी, जांण मतिने जंग ॥ ढाल ११मी ॥ मारे दीवाली थइ आज जिनमुख जोवाने- ए देशी॥ पूजो पूजो रे प्रभु नव अंग प्रेमे पूजो रे; ए सरिखो अटल अभंग देव न दूजो रे; कल्पांतकाल-प्रलयने काले, सप्त हाथ गिरि राख्यो रे; एहवा अटल ए आदि जिणेसर, देव थूणीने दाख्यो ॥१॥ प्रेमे० जे जिनराजने तीन जगतजन, भाव भगति मन भाया रे; सास्वत ठांमे ठवि जिन डाढा, वज्री ढोक धराया ॥२॥ प्रेमे० कोसेराम कहे छे एहना, पग धोइ सहु पीवे छे रे; प्रभु आधारे जगत ए आखो, आलंबने जीवे छे ॥३॥ प्रेमे० धरती कागले स्याहि समुद्रे, जो लिखे प्रभु-गुण धाता' रे; तो पिण पार न कोई पामे, दान अभयना दाता ॥४॥ प्रेमे० नवपद प्रथम प्रथम नव पूजा, नवांक नव खंड भाया रे; नव निधि वली कमल नव काया, नव गोपुर निपजाया ॥५॥ प्रेमे० नाभिनंदन प्रभुनी पूजा, नव अंगी ए कहीये रे; नवरात्र्यो नव ओली दिन धुर, नव आंबिल निरवहीये ॥६॥ प्रेमे० पूजा नवांगी रचो प्रभुनी, शुदि आठिमे भले भावे रे; विध विधनां वाजा वगडावी, प्रथम स्नात्र भणावे ॥७॥ प्रेमे० रोग उपद्रव रौरव नावे, जिहां प्रभु ऊत्सव थावेरे; घर(?) रज रहित देव गुरु भक्ति, पूरण लिखमी आवे ॥८॥ प्रेमे० 1. ब्रह्मा. For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगस्त-२०१७ ॥९॥ प्रेमे० प्रेमे०॥१०॥ श्रुतसागर संवत रसनवआठने एके(१८९६), आसो शुदिनी बीजे रे; पूजा उत्तम पूरण कीधी, राग महोत्सव रंगे लधु पोषधशालेस तपागण, आणंदसोमसूरिराया रे; तस पाटे श्रीउदयसूरि कहे, दिन दिन सुजस सवाया सूरति बिंदरे नवापरामां, राजसोमजी राजे रे; शांतिनाथ साहिब देहरामां, पूजा उत्सव काजे ॥ इति नवांगीपूजा संपूर्णम् ॥ सं० १८९६ना आसो शुदि २ स्वकृत लेख ॥ भद्रम् ॥ प्रेमे०॥११॥ प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनुरोध श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं या किसी पूर्वप्रकाशित कृति का संशोधनपूर्वक पुनः प्रकाशन कर रहे हैं अथवा महत्त्वपूर्ण कृति का | अनुवाद या नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, इसे हम श्रुतसागर के माध्यम से सभी विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? यदि अन्य कोई विद्वान समान कृति पर कार्य कर रहे हों तो वे वैसा न कर अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों का सम्पादन कर सकेंगे. निवेदक- सम्पादक (श्रुतसागर) For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुस्तक समीक्षा डॉ. कृपाशंकर शर्मा पुस्तक नाम : भारतीय पुरालिपि मञ्जूषा संपादक/लेखक : डॉ. उत्तमसिंह प्रकाशक : श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा पृष्ठसंख्या : २१६ प्रकाशनवर्ष : वि.सं. २०७२ (ई.स. २०१६) मूल्य : ३६०/विषय : भारतीय संस्कृति की पुरातन लिपिशास्त्र में से ब्राह्मी, शारदा, ग्रंथ व नागरी लिपि के अध्ययन-अभ्यास हेतु व लिपिप्रवेशिका रूप उपयोगी ग्रंथ. भारतीय पुरालिपि मंजूषा प्राच्यविद्या परंपरा में एक उपादेय ग्रंथ है। प्राच्यविद्या के आदिस्रोतों को अपने पुष्ट प्रमाणों के साथ अनुसंधाताओं और सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना असाधारण ही नहीं अपितु दुरूहतर कार्य है। इसी असाधारण कार्य को उपादेय एवं बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से प्राच्यविद्या के मार्मिक अध्ययनकर्ता डॉ. उत्तमसिंहजी ने प्रस्तुत ग्रंथ का प्रणयन किया है। वे कई वर्षों से भारतीय प्राचीन लिपियों के अध्ययन-अध्यापन कार्य में संलग्न हैं, जो सराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक उनके सुदीर्घ अनुभव और कठिन परिश्रम का सफल एवं सुखद परिणाम है। इसके प्रकाशन से भावी पीढ़ी को नई प्रेरणा के साथ-साथ उत्साहवर्धक जागरुकता एवं ज्ञानार्जन का सुनहरा अवसर प्राप्त होगा। ग्रंथ की विषयवस्तु को २१६ पृष्ठों में समाहित किया गया है। ग्रंथ का मुद्रण और वस्तुविन्यास पाठकों को सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करता है। इस ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर प्रस्तुत शिल्पाङ्कन का चित्र ग्रन्थ की विषयवस्तु को उद्घाटित करता है। ग्रंथनिर्माता डॉ. उत्तमसिंह ने इस ग्रंथ में लेखनकला के प्राचीन स्वरूप, उसके उद्भव व विकास को प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है। जिसमें भारतीय सांस्कृतिक निधि और इतिहास के सशक्त स्रोत पाण्डुलिपियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अगस्त-२०१७ पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने के लिए लिपियों का ज्ञान महत्त्वपूर्ण और आवश्यक होता है। लिपिज्ञान के अभाव में पाण्डुलिपि का वांचन तथा अन्वेषण संभव नहीं हो सकता। प्राच्यविद्या के अनुसन्धानकर्ताओं की इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर डॉ. सिंह ने अपने इस ग्रंथ में ब्राह्मी, शारदा, ग्रंथ और प्राचीन देवनागरी लिपियों का ऐतिहासिक अध्ययन वर्णमालाओं के साथ शिलालेख ताम्रपट्ट आदि अन्यान्य साधनसामग्रियों के रूप में प्रस्तुत किया है। लिपियों के नामकरण का इतिहास और उसकी उपयोगिता को भी ग्रंथकार ने प्रासंगिक रूप से प्रकाशित करने का महनीय उद्यम किया है। पाण्डुलिपियों के अनुसन्धाता को पाठसंशोधन करते समय अनेक प्रकार की भ्रान्तियों का भी साक्षात्कार होता है, जैसे शब्दगत भ्रान्ति, अक्षरों की अस्पष्टता आदि। इन समस्त भ्रान्तियों का अनुसन्धानदृष्टि से समाधान भी ग्रंथ में स्थापित किया गया है। जो प्राच्यविद्या के सुधी अनुसन्धानकर्ताओं के लिए सहायक सिद्ध होगा। संयुक्ताक्षर, हलन्तचिन्ह, अवग्रह, मात्राएँ, रेफयुक्त अक्षर आदि लिखने की पद्धति के साथ-साथ देवनागरी लिपिबद्ध काष्ठपट्टिका भी दी गई है। साथ ही संख्यासूचक शब्दों की लेखन परम्परा का भी विस्तृत परिचय दिया गया है। ग्रंथ की भाषा सहज, सरल व बोधगम्य है तथा अन्त में प्रणयनकर्ता ने पाण्डुलिपि तथा अन्यान्य उपयोगी स्रोतों का भी चित्राङ्कन किया है। ग्रंथ के प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा गुजरात जो कि भारतीय विद्या के सारस्वत-उपासकों को सदैव प्रोत्साहित करने का कार्य करते हैं, इस ग्रंथ का प्रकाशनोद्यम कर अपने सारस्वत प्रोत्साहनकर्ता का परिचय प्रस्तुत किया है, जो अभिनन्दनीय तथा स्तुत्य है। प्रस्तुत ग्रंथ के प्रणेता डॉ. उत्तमसिंह सारस्वत उपासना में सदैव तत्पर रहें, इस प्रकार की वाग्देवी से प्रार्थना । इति शम् ॥ धनी पुरुष ये जगत में करैजु आतमकाज। मिथ्यामतकु छांडिकै पूजत है जिनराज ॥१॥ हस्तप्रत सं. ८७०७३ इस संसार में धनी पुरुष वही है, जो आत्मा के उद्धार के लिए मिथ्यामत को त्याग कर जिनराज का पूजन करता है। For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रमण भगवान महावीरस्वामी पछीना एक हजार वर्षनी गुरु परंपरा (गतांकथी आगळ...) मुनिश्री न्यायविजयजी दिगंबर मान्यतानो जवाब भद्रबाहुस्वामी माटे दिगंबर ग्रंथोमां तेमनां वखते श्वेतांबर दिगंबरनां भेद पड्या; मौर्य सम्राट चंद्रगुप्ते तेमनी पासे दीक्षा लीधी वगेरे वातो मळे छे. परन्तु वीर नि.सं. १५०मां चद्रगुप्त राजा हतो ज नहिं. वळी भद्रबाहुस्वामी पोतानां स्वर्गगमन वखते दक्षिणमां गया ज नथी. आ रह्यां ए संबंधी दिगंबर विद्वानोनां मतोः १. श्रवणबेलगोलना चंद्रगिरि पर्वतमांना एक शिलालेखमां भद्रबाहु अने चंद्रगुप्तनो उल्लेख छे. आ लेख शक सं. ५७२ आसपासनो होवानुं अनुमान छे. आ उपरथी एटलो निर्णय थाय छे के विक्रमनी आठमी सदीना प्रारंभमां दिगंबरोमां ए मान्यता हती के मौर्य सम्राट चंद्रगुप्ते भद्रबाहु पासे दीक्षा लीधी हती. पण ए लेखमां भद्रबाहुने न तो श्रुतकेवली लख्या छे के न तो चंद्रगुप्तने मौर्य लख्यो छे. २. हरिषेणकृत 'बृहत्कथा कोश'मां मळे छे के उज्जयिनीनां राजा चंद्रगुप्ते भद्रबाहु पासे दीक्षा लीधी हती. आ उपरथी स्पष्ट सिद्ध थाय छे के पाटलीपुत्रनां मौर्य चंद्रगुप्ते दीक्षा नहोती लीधी. किन्तु उज्जयिनीनां चंद्रगुप्ते दीक्षा लीधी हती. अर्थात् आ चंद्रगुप्त पण जुदो अने भद्रभाहु पण जुदा. वळी आ ग्रंथ शक सं. ८५३ नो बनेलो छे एटले प्राचीन पण न गणाय. ३. पार्श्वनाथ वसतीमां शक सं. ५२२ नी आसपासनो एक शिलालेख मळे छे, तेमां साफ लख्यु छ के- “श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामीनी परंपरामां थयेल निमित्तवेत्ता भद्रबाहुए दुकाल संबंधी भविष्यवाणी करी.” अर्थात् आ निमित्तवेत्ता भद्रबाहु जुदा अने श्रुतकेवली भद्रभाहु जुदा समजवा. ४. भट्टारक रत्ननंदीकृत “भद्रबाहु चरित्र” जे १६मां सैकानां प्रारंभर्नु छे, तेमां तो चंद्रगुप्तने अवन्ति देशने जीतनार अने उज्जयिनीनां राजा तरीके संबोध्यो छे. अर्थात् जेणे दीक्षा लीधी हती ते राजा चंद्रगुप्त मौर्य चंद्रगुप्त न हतो. ५. भट्टारक शुभचंद्रजी तो प्रथमांगधर भद्रबाहुने ज संबोधे छे. अर्थात् श्रुतकेवली भद्रबाहु साथे मौर्यसम्राट चंद्रगुप्तने कशी संबंध नथी. ६. सरस्वती गच्छनी नंदीपट्टावलीनो जेमनाथी प्रारंभ थाय छे ते बीजा भद्रबाहु For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अगस्त-२०१७ छे अने तेमनां शिष्य गुप्तिगुप्त छे. डॉ. फ्लीटर्नु मानतुं छे के आ बीजा भद्रबाहुए दक्षिणनी यात्रा करी हती अने चंद्रगुप्त ए एमनां शिष्य गुप्तिगुप्तनुं ज बीजं नाम छे. अर्थात् आ बीजा भद्रबाहु विक्रमनां बीजा सैकामां थयां छे. ___ दिगंबर ग्रथोनी जेम श्वेतांबर ग्रंथोमां श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी पासे मौर्यसम्राट चंद्रगुप्ते दीक्षा लीधानो क्यांय उल्लेख नथी. एक तो ए बन्ने समकालीन नथी, वळी जेम चाणक्य मंत्रीनां अंतिम अनशननो उल्लेख मळे छे तेम जो मौर्यसम्राट चंद्रगुप्ते दीक्षा लीधी होत तो तेनो उल्लेख पण जरूर मळत. आवो महाप्रतापी सम्राट दीक्षा ले अने तेनो उल्लेख सुधां न मळे ए वात संभवित नथी लागती. ____ आ माटे विशेष जिज्ञासुए “वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना” तथा “दिगंबर शास्त्र कैसे बने” शीर्षक निबंधो जोवां. में पण अहीं तेनो ज उपयोग कर्यो छे. ७. स्थूलिभद्रजी मगध देशनां पाटलीपुत्र(हाल- पटणा) नगरमां, ब्राह्मण ज्ञातिनां गौतम गोत्रवाळां शकडाळ मंत्रीने त्यां तेमनो जन्म थयो हतो. तेमनी मातानुं नाम लक्ष्मीदेवी हतुं. तेमनां पिता कुलपरंपरागत मंत्री पदे हतां अने ए बधां जैनधर्मी हतां. प्रथम नंदनां वखतथी तेमनां कुंटुबमां मंत्रीपदुं चाल्यु आवतुं हतुं. शकडाळ नवमा नंदनां मंत्री हतां. स्थूलभद्रजीने सिरियक(श्रीयक) नामे भाई अने जख्खा, जख्खदिन्ना, भूया, भूयदिन्ना, सेणा, वेणा अने रेणा नामनी सात बहेनो हती. युवावस्थामां स्थूलभद्र कोशा नामक वेश्यानां अनुरागमां पड्यां हता. तेमनां पिता मंत्री शकडाळ वररूचिनामक ब्राह्मणनां षडयंत्रनां भोग बनी राजकोपथी बचवा पोतानां पुत्रनां हाथे ज भरराजसभामां मरण पाम्यां हता. तेमनां मरण पछी वररूचिर्नु कावतुं फूटी गयु अने सिरियकनां कहेवाथी राजाए स्थूलभद्ने मंत्रीपद माटे निमंत्रण मोकल्यु. बार वर्षे कोशानु घर छोडी स्थूलभद्र राजसभामां गयां अने मत्रीपदनां स्वीकारनो जवाब विचार करीने आपवानुं का. उद्यानमां विचार करतां करतां तेमने साधुपणुं लेवू योग्य जणायु अने त्यां ज वेशपरिवर्तन करी राजसभामां जई ‘धर्मलाभ' पूर्वक बोल्याः हस्ते मुद्रा मुखे मुद्रा मुद्रा स्यात् पादयोर्द्वयोः । तत्पश्चात् गृहे मुद्रा व्यापारं पंचमुद्रिकम् ॥१॥ पछी संभूतिविजयसूरि पासे जई सविधि दीक्षा लीधी अने शास्त्रोनो अभ्यास को. आ अरसामां भयंकर बार दुकाळी पडी तेथी श्रुतज्ञान घटवा लाग्यु हतुं. For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 31 SHRUTSAGAR August-2017 स्थूलभद्रजीए अन्तिम श्रुतकेवळी भद्रबाहु स्वामी पासे जई पूर्वनो अभ्यास कर्यो. एक वखत तेमनी सात बहेनो तेमने वंदन करवा आवी. ते वखते पोतानुं ज्ञान बताववा सिंहनुं रूप कर्यु. आ वातनी भद्रबाहुस्वामीने खबर पडतां तेमणे स्थूलभद्रजीने वधु विद्या माटे अयोग्य जाणी पूर्व- ज्ञान आगळ आपवानी ना पाडी, पण श्रीसंघनां आग्रहथी छेल्लां बाकी रहेलां साडात्रण पूर्व मूळमात्र शिखव्यां. आ रीते स्थूलभद्रजी १०॥ पूर्व अर्थ सहित अने ३॥ पूर्व मूळ शीख्या. तेओ अंतिम चौद पूर्वधर थया, तेमणे कोशा वेश्याने प्रतिबोधी श्राविका बनावी हती. तेमने माटे कयुं छे केः केवली चरमो जंबूस्वाम्यथ प्रभवः प्रभुः । शय्यंभवो यशोभद्रः संभूतिविजयस्तथा। भद्रबाहुः स्थूलिभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् । जंबुस्वामी छेल्लां केवळी थयां अने स्थूलिभद्र सुधीनां छ आचार्यो श्रुतकेवळी थयां. स्थूलिभद्रजीनां समयमां एक महान् राज्यक्रान्ति थई: नंद वंशनो विनाश थयो अने महापंडित चाणक्य मंत्रीश्वरे मौर्य साम्राज्यनी स्थापना करी. आ अरसामां ज जैनसंघमां अव्यक्त' नामनो लीजो निह्नव' थयो. (क्रमशः) क्या आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं ? पुस्तकें भेंट में दी जाती हैं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में आगम, प्रकीर्णक, औपदेशिक, आध्यात्मिक, प्रवचन, कथा, स्तवन-स्तुति संग्रह आदि विविध प्रकार के साहित्य तथा प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी, पुरानी हिन्दी, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं की भेंट में आई बहुमूल्य पुस्तकों की अधिक नकलों का अतिविशाल संग्रह है, जो हम किसी भी ज्ञानभंडार को भेंट में देते हैं. यदि आप अपने ज्ञानभंडार को समृद्ध करना चाहते हैं तो यथाशीघ्र संपर्क करें. पहले आने वाले आवेदन को प्राथमिकता दी जाएगी. 1 वीर नि.सं.६०९ सुधीमां ७ निह्नवो थया. निह्नव एटले सत्यने गोपववं. भ.महावीरना अविभक्त संघमां निह्नवोए सिद्धांतभेद अने क्रियाभेदथी नवा मतो काढया छे. प्रथमना बे निह्नवो जमाली अने तिष्यगुप्त भ. महावीरना निर्वाण पूर्वे अनुक्रमे १४ अने १६ वर्षे थया छे. तेथी तेमनो विशेष परिचय नथी आप्यो. बाकीनानो पण विषयांतरना भयथी नथी आप्यो. जिज्ञासुओए ए वस्तु आवश्यक नियुक्ति तथा विशेषावश्यक भाष्यमांथी जोवी. For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समाचार सार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महेसाणातीर्थ में राष्ट्रसन्त के शिष्यमुनिप्रवर श्री पद्मरत्नसागरजी महाराज साहब की प्रथम वार्षिक पुण्यतिथि का भव्य आयोजन सीमंधरतीर्थ, महेसाणा के प्रांगण में चातुर्मासार्थ विराजमान राष्ट्रसन्त परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में उनके शिष्य सौम्य स्वभावी मुनि प्रवर श्री पद्मरत्नसागरजी महाराज साहब की प्रथम वार्षिक पुण्यतिथि के निमित्त त्रिदिवसीय उपकारस्मरण उत्सव का आयोजन किया गया। जिसमें १४ जुलाई के दिन प्रातः ८.०० बजे सीमन्धरतीर्थ परिसर में श्री पार्श्वपंचकल्याणक पूजन का आयोजन किया गया। महेसाणा शहर के समस्त जैन महिला मंडल ने इस पूजन में भाग लिया । १५ जुलाई के दिन प्रातः ८.३० बजे सीमंधरतीर्थ-कैलाससागरसूरि आराधना भवन में संगीत के साथ नवकार महामन्त्र के सामूहिक जाप का आयोजन किया गया, १५०० से अधिक आराधकों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया था, शंखेश्वरतीर्थ के ट्रस्टी श्री श्रेयकभाई तथा समाजसेवी श्री कल्पेशभाई शाह के द्वारा इस कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया । महामन्त्र के आराधक श्री जयंतभाई राही ने मुम्बई से पधारकर इस आयोजन की शोभा बढ़ाई थी । महेसाणा शहर में विराजमान साधुसाध्वीजी भगवन्त तथा बहुत बड़ी संख्या में नगरजनों ने इस अनुष्ठान में भाग लिया । रविवार १६ जुलाई को प्रातः ९.०० बजे गुणानुवाद सभा का भव्य आयोजन किया गया। तीर्थ के ट्रस्टी श्री ने बताया कि मुनि श्री पद्मरत्नसागरजी महाराज का महेसाणा जिले के कडी गाँव में १८ सितम्बर १९६७ के दिन जन्म हुआ था । उनके छोटे भाई गणिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी महाराज साहब की बड़ी दीक्षा के प्रसंग पर उनके मन में भी दीक्षा का भाव उत्पन्न हुआ । ११ फरवरी १९८७ को उन्होंने कोबा (गांधीनगर) में आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में दीक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने श्रमणवर्ग हेतु अत्यन्त उपयोगी स्वाध्याय, स्तोत्र तथा भक्तियोग की साधना से सम्बन्धित पुस्तिकाओं का सम्पादन कार्य भी किया था । उन्होंने गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश तथा नेपाल में भी गुरुसान्निध्य में रहकर पदयात्रापूर्वक विहार किया था। गुणानुवाद के इस प्रसंग पर पूज्य मुनिश्री के सांसारिक परिजन, बाहर से आए हुए अतिथि तथा जैनश्रेष्ठी भी बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित थे। For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनिप्रवर श्री पद्मरत्नसागरजी महाराज साहब की प्रथम वार्षिक पुण्यतिथि निमित्त उपकारस्मरणोत्सव की स्मृतियाँ उपकारस्मरण उत्सव के अवसर पर उपस्थित चतुर्विध श्रीसंघ. उपकारस्मरण उत्सव के अवसर पर मुनि प्रवर श्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. के चित्र पर पुष्पार्पण करते हुए उनके परिवार के सदस्य व गरुकृपा परिवार के भक्त श्री कल्पेशभाई जे. शाह आदि. For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City SO, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-334 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. भारतीय पुरालिपि मजूषा (ब्राह्मी-शारदा-ग्रंथ-नागरी लिपि प्रवेशिका) डॉ. उत्तमसिंह रुग्वयनमामिमकालिम पिण्याकिच ग्याइव चियाकमेमन ल्या भरममा ममिकलालभरमईयावंग भारतीय पुरालिपि मंजूषा पुस्तक का मुखपृष्ठ BOOK-POST / PRINTED MATTER प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्रा आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जि. गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email : gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by : HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.& Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI For Private and Personal Use Only