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सिद्ध अरहन्त
आचार्य
उपाध्याय
साधु
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品
品
鹽
प्रसिद्धकर्ता
मोदी अचलमल सोहनमलजी, सिरोही ।
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जैन विजय " प्रेस-सूरत ।
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श्री योगनिष्ठ शान्तमूर्ति मुनि महाराज श्री शान्तिविजयजी ।
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मुनिमहाराज श्री शांतिविजयजीका परिचय |
3 यथा नाम तथा गुणाः
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आजकल संसार में वेषधारी साधु महात्माओंकी संख्या बहुत ही अधिक होगई है और प्रायः देखा जाता है के यह वेषधारी साधुगण शांती और धर्म फैलाने के बजाए अशांती और क्लेशका प्रचार करते हैं और पुनीत साधु नामको कलंकित करते हैं जिसकी बजह से जैनधर्मकी हेलना भी होरही है ।
प्रत जैसे बादलोंमें सूर्यका प्रकाश छिपा नहिं रहता है उसी तरहसे वे माह पुरुष जो अपने जीवनको एक सच्चे साधुके मुआफिक निर्मलतासे चाहे वे एकांत पहाड़ोंमें निवास करें - व्यतीत करते हैं छिपे नहिं रहते हैं । ऐसे इनेगिने महात्माओं में से शांतमूर्ति मुनी माहराज श्री शांतीविजयजी भी हैं आपका परिचय मुंहपर है फिर भी आपका थोड़ासा परिचय यहांपर देना आवश्यक हैं ।
सिरोही प्रांतके एक एक बच्चेके
आपका जन्म अर्बु देशांतरगत सिरोही राज्यके मणादर ग्राममें संवत् १९४६ के माघ शुक्ला ९ को रेबारी कुलमें भीम तोलाजीके यहां हुआ था - 'पूतके लक्षण पालणेमें ही विदित होजाते हैं ।' अस्तु; आपका बाल्यावस्थासे ही होनहार होना सूचित होता था ।
आपके गुरू तीर्थविजयजी और दादा गुरु धर्मविजयजी माहराजने भी रेबारी कुलमें जन्म लिया था और बड़े महात्मा तथा महान् योगाभ्यासी थे । धर्मविजयजी महाराजने जैन दीक्षा संवत् १९३४ में खण्डाला के घाटेमें मुनि माहराज श्री मणिविजयजी के पास की थी और वहांसे विचरते हुए फिर मारवाड़ में पधारे और सं० १९९० के श्रावण वद ६ को मांडोली ग्राम ( अपने जन्म स्थान ) में काल प्राप्त हुए। आपकी लोकप्रियता, निराडम्बरी स्वच्छ जीवन और अहिंसाका उपदेश इस प्रांत में अभीतक विख्यात है ।
तीर्थविजयजी माहाराज भी रेबारी कुलमें उत्पन्न हुए थे आपका संवत् १९८४ के फाल्गुण कृष्णा ८ को मृडतरा ग्राममें स्वर्गवास हुआ । आप भी पूरे योगी थे । गर्ज तीनों ही पीढियों से योगाभ्यास चला आता है।
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[ २ ] शान्तमूर्ति मुनिमहाराज श्री शान्तीविजयजीको सम्वत् १९६१ के माघ शुक्का ५ को जैन दिक्षा हुई । दिक्षा पाते ही कुछ अर्से बाद विहार करते हुए मालवा प्रांत में पधारे जहांसे सम्वत् १९७६ में फिर इस प्रान्त में पधारे और जबसे आप अपनी जन्मभूमिमें ही संसारके सब प्रपंचोंसे विरक्त रहकर पवित्रता और त्यागकी साक्षात मूर्ति समान, सरल और निराडंबरी जीवनको बिताते हुए विचरते हैं आप अपने देशके कल्याण और उद्धारके उपाय सोचने और जैन समाजमें शान्ती फैलाने में हरदम रत रहते हैं । आप पूरे 'यथा नाम तथा गुणा' ही है । श्रीयुत जीवनचंद धर्मचंद 'परम कल्याण मंत्र ॐ के पुस्तकमें लिखते हैं:1
' सत्पुरुषोंका समागम यह वास्तविक जीवन सागरका प्रकाशस्थम्भ है । ऐसे संत समागमकी शोध में आज तक जीवन में तीन साधु मुनीराजोंका मुझे विशेष परिचय हुआ । प्रथम मुनि माहराज श्री मोहनलालजी माहराज, सं० १९६० से योगनिष्ट आचार्य श्री बुद्धिसागर सुरीजी माहराज और सं० १९७९ परम योगी श्री शान्ती विजयजी माहराजका उत्तरोत्तर लाभ मिला । श्री मोहनलालजी माहराजने श्री बुद्धिसागरजी माहाराजके लिए सुंदर अभिप्राय दिया था । आज संसार में प्रथम दोनों व्यक्ति नहीं है वे कालधर्मको प्राप्त होगए हैं और जीवनके एक चमकते प्रकाश स्थम्भकी भांति आबुके एकान्तमें सतत् आत्मचिंतन करनेवाले मुनीराज श्री शान्तीविजयजी आज एक पूजनीय व्यक्ति तरीके मेरे हृदय में स्थान लेकर बेठे हैं ।
संसारके सर्व प्रपंचोंसे दूर रहकर पवित्रताकी साक्षात् मूर्ति समान श्री शांतिविजयजीका निस्टही, सरल और निराडंबरी जीवन, निरागी और सात्विक आत्माकी सुवास, अडोल शांति और निर्दोष आनन्द पर जमाई हुई सत्ता समागममें आनेवालोंका सोये हुए आत्माको मौन भाषा में मधुर कंठसे जागृत करनेकी कला, आंखके इशारे पर सामनेवाले के हृदयपर शांतिका सिंचन करनेकी सिद्धि और एक चतुर किमियागरकी भांति आकृति सुन्दर सौम्य कोमल भावसे, अपने जीवनको और जीवनके प्रत्येक श्वासको अपनी अद्भूत जीवन कलासे सौरभयुक्त बनानेका तेजस्वी जाने वास्तव में अपने को उनके चरणों में मस्तक नमन करनेको बाध्य करता है ।
बालकके अनुसार निर्दोष जीवन प्रत्येक साधुका होना चाहिए श्री शांतिविजयजी महाराज इस दृष्टिसे महान साधु हैं । एकांतके आवास में, पहाड़ोंके प्रभुत्वयुक्त वायुकी मिठाश और भरचक ताजगीके अन्तर समता और समानत्व भावसे संसारकी प्रत्येक उपाधी से निवृत्त होकर वास्तविक ढंगसे निवृत होकर अष्ट प्रहर आत्मा और परमात्मा के योग साधन में तल्लीन रहते हैं । वही साधु योगी श्री शांतिविजयजीका स्थान योगीकी दृष्टिसे ऊँचा हैं ।
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[३] विश्वके प्रत्येक रजकणमें आलिप्त दिव्यता और मनुष्यत्वको जाननेका उनका आस्मिक तेज आज बहुत कम देखा गया है। प्रेमके ही देवी प्रेमके संदेश प्रकाशक उनके भवयुक्त हास्य, अतिशय सादगी और निर्दोषता, आंखकी नमृता और उसके कोनेमें विराजित विश्व वात्सल्य देखकर खूनीकी आंखमें भी प्रेमके अश्रु भर आवें ऐसा जादू उनमें दिखता है । एकांतमें बैठकर आज वे सचे तत्वका चितवन करते हैं। जगदकल्याणकी भावना भावते हैं । पुस्तकोंको पढ़कर पुस्तकोंमें रखनेके योग्य ज्ञानका त्याग कर सरलता युक्त जीवन व्यतीत कर उसमें से सहज प्रकट आत्मज्ञानको ग्रहण करनेको कूच करना शरू किया है।
और इन सर्व मनोहर दृश्योंमें उन्होंने मात्र ॐ अहम्के पवित्र मंत्रको स्थापित किया है। इस मंत्रकी शक्ति बहुत है। आश्चर्य युक्त है। आत्माको आनन्दके शिखरपर स्थापित करनेवाला मंत्र यही है । यह उनका पूरा मंतव्य हैं। उनके समागममें आनेवाले प्रत्येक राजा माहरान, विद्वान या कृषक, गरीब या अमीर सर्वको उनका एक ही संदेश है ।
"प्रमाद न सेवो, जीवनमेंसे जितनी पल तुम ॐ अहम्के उच्चार जापमें व्यतीत करोगे वे तुम्हारे अमोल पल हैं । यही तुम्हारे जीवनका भाता है । अतएव जितना होसके उतनी निवृती लेकर आत्म-चिन्तनमें और ॐकारके जापमें तल्लीन बनो ।"
यह उनका आदेश है । जीवनका सार है।
शांतमूर्ति मुनी माहराज श्रीमद शांतीविजयजी माहरामके परिचयमें अनेक अजैन महाशय आते हैं उनमें से थोड़ोंके आपके विषयके उद्गार यहांपर पाठकोंके जानने योग्य होनेसे दिये जाते हैं।
"शांतीविजयजीके नेत्र अदभुत और कुदरती बड़े और विशाल हैं । वे किसीकी तरफ इस तरहसे नजर डालते हैं मानो वे हृदयके अन्दरके ख्यालातको पढ़ते हैं। उनका • रंग काला है लेकिन यह अद्भुत है के ध्यानमें उनका रंग कई गुणा अच्छा होनाता है। मैंने इस चमतकारको स्वयं देखा है। एक प्रकाशका छोटासा बिन्दु जिसको संस्कृतमें 'तारक बिंदु' कहते हैं नाकके ऊपर चक्षुसे चक्षुमें चमकता हुआ तथा दो पतियों का योगका कमल जिसे अग्नचक्र कहते हैं पेशानी (ललाट)के ऊपर साफ नजर आता है ।
मिस एलिजीबेथशाप-मुपरिन्टेन्डेन्ट एज्यूकेशन,
लीमड़ीस्टेटके अंगरेजी लेखका अनुवाद ।
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'परम योगी माहरान श्री शांतीविनयनी, मारा धारवा प्रमाणे एक महान योगी छे, योगनो मार्ग तेमना हाथर्मा सारो आव्यों छे. मारे तेमनी साथे जे वात थई छे, तेमा एक
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[४] मुद्दानी वात जे योगमां जरुरियातवाळी छे, ते तेओश्री बराबर जाणे छे, एम मने खातरी थई छे, बाकीतो ते एक त्यागी उच्च वैरागी, एकांत सेवनार, निस्टही सर्व जीवो तरफ प्रेम राखनार, पोताना शुभ संकल्पथी विश्वनुं भलं इच्छनार, विनयी, नम्रतावाळा अने मायाळु स्वभावना छे ते गुणो मारा बे दिवसना परिचयमा जणाया छे. क्रिया मार्ग जे अत्यारे साधु समुदायमा प्रचलित छे, तेमां तेओ थोडी प्रवृत्ति करता होय ते बनवा योग्य छे. केमके तेओनो स्वरूपस्थिरता, जाप अने ध्याननो अभ्यास सतत चालु होय तेने लई आ कार्यथी पोतानी विशेष विशुद्धि मेळवे छे. एटले बाह्य क्रियानो अंतरक्रियामा समावेश थई जाय छे. जेम पांचमी चोपडी भणनारे चोथी चोपडी छोडवी जोईए ते न्याये ते योग्य लागे छे. तेमनुं दर्शन आनंद प्रेरक छे.
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में मारी जिंदगीमां कोई भभुत वस्तु जोई होय तो ते योगनिष्ट महात्मा शांतिविज, यनीज छे. तेओ बाह्यतः केवा मामूली देखाय छे, अने ज्यारे पोते वातो करे छे त्यारे एक साधारणमा साधारण माणस बोलतो न होय एम लागे छे ? देखाव पण तेओश्रीनो कुदरती एवोज छे, एटले जगत् सहजमां भुल थाप खाई जाय छे. एमां कोई नवाई नथी, पण मने तो एम लाग्युं के आ तो कोई उच्च कोटीनो महान् अध्यात्मिक ज्ञाननो भंडार छे. एवा महान पुरुषोने आपणे स्हेजे ओलखी शकीए नहीं. कारणके तेओ पोते योगमा तेमन अध्यात्मिक ज्ञानमां, एटला बधा झंडा उतरेला छे के अढार अढार मास सुघी तेओनी पासे रहीने एक विद्वान् माणस पण संपूर्ण समजी शकतो नहि. हालना आटला बधा साधुओमां एओ पोतेज योगक्रिया तथा अध्यात्मिक ज्ञाननी बाबतमा मोखरे छे. एवा महान् योगिश्वरने समनवा माटे महान शक्तिवालो आत्मा घणा लांबा टाइमेज काइक सहन समजी शके छे.
[ योगनिष्ट आचार्य श्री विजय केसरसूरीजी महाराजके जैन जीवनमें प्रगट हुए लेखमेसे उदृत । ]
माहराज श्री शान्तिविजयजी महाराजना समागममां भाववाने तथा तेओश्रीनो उपदेश सांभलवाने हुं पण भाग्यशाली थयो छु. तेओश्री एक उत्तम योगीपुरुष छे, अने तेमन चारित्र घणी उंची कोटीनुं छे । एवा महर्षिनां प्रवचनो समुदाय सांभलवाथी जेम औषधिथी शरीरनुं दर्द अने मलीनता दुर थई आरोग्य अने निर्मल बने छे, तेम जनसमाजनी मानसीक मलीनता दुर थई जीवन आरोग्य अने निर्मल बने छे, तेम जनसमाननी मानसीक मलीनता दुर थई जीवन आरोग्य भने सुखी बने छे. एका महान् पुरुषो मापणामां वषारे
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अने वधारे थाओ अने तेमना पवित्र जीवन अने आदर्श उपदेशथी जन समुदायतुं जीवन वधारे नीतिमान अने सुखमय बनो एवी मारी चाहना छे.
हिज हाइनेस माहराजा लाखाधीरजी .
___माहराजा साहब बहादुर-मोरबी.
योगनिष्ट मुनी माहराज श्री शान्तीविजयजीना समागममा हुं छेल्ला छः सात वर्षथी आव्यो छु ते ऊपरथी हु जोई शक्यो छु के तेओश्री एक उच्चकोटीना महापुरुष छे. योगाभ्यासथी प्राप्त थती विश्व दृष्टि ( Clair Boyance ) तेओश्रीए मेलवी छे अने तेना बे दाखला मारा अंगत अनुभवथी में जोया छे. तेओ श्री सरल प्रकृतिना एक योगपरायण संतपुरुष छे. हुं इच्छु छु के अधिकारी सज्जनो तेमना पवित्र संबंधमां आवी तेमनी आत्मिक उच्चता लाभ मेळवे.
हिज हाइनेस सर दोलतसिंहजी,
महाराज साहब, लींबडी.
में दुनीयाना दरेके दरेक देशनी मुसाफरी करी, अने हुँ घणा घणा महान् पुरुषोने मळी छु, अने छेवटमा पुज्य गुरुदेव महाराज शान्तीविजयजीने पण मळी. हमारा पाश्चिमात्य लोकोमा एटलं तो ठीक छे के, हमो बराबर समजीनेन मानीये छीये. हमो हमारा मनने पुछीए छीए के (Doubt ) दरेक वस्तुमां शुं छे. मिस मेओए मधर इन्डीया नामनी जे बुक लखी छे तेमां एणे मोटी भुल खाधी छे; कारणके हिंदमां हनीए आवा देव रत्नो छे तो पछी एणे शं बुद्धिथी ए पुस्तक लख्यु हशे. हवे तो हुं एने बराबर जवाब आपीश एटले एनी भूल समजाशे अने जगत सत्य बस्तु सारी रीते समजी शकशे.
Guruji is a God no doubt. (गुरुजी परमेश्वर छे, तेमां शक नथी)
मिस माईकल पीम, - तंत्री, ट्रीब्यूट हेरल्ड, न्यूयोर्क (अमेरिका).
दुनिया में जो कोई पवित्रमा पवित्र वस्तुमें जोई होय तो फक्त 'शांतिविनयनीज छे.
धर्माचार्य शिष्ट दर्शननिधी स्वामी रामदास,
एम० ए० साउथ-नैरा ।
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अरे मने ज्यारे लाखो साधुओ बावाओ फकीरो छपन्न लाख याद आव्या त्यारे मने विचार थयो के का ए मांहोमांहे चीसकारी पाडता अने गुरकी गुरकी करता अने हरामनी रोटी खानारीओ ए क्या ? आत्मानी साक्षीए कह्यु छे के, में मारी जिंदगीमां खरेखरो आनंद मेलव्यो होय तो आ महान पुरुष शांतिविजयनीनां चरणोना ज्यारे में दर्शन कर्या त्यारेज मने आनन्द थयो छे-भूतकालमा जे महान् पुरुषो थई गया छे ते कोटीमा पोते अत्यारे शहजमां आवी ऊभा छे, एमनो जे भोलो देखाव जे ऊपरनो देखाय छे के आतो कोई छोकरा जेवा बाबा भोला देखाय छे, पण ए महान पुरुषनां अंदरना तत्वो घणाज उत्तम अने जेनी गति पण गहन छे, ए महान् पुरुषने ओलखवा माटे महान शक्तिवाळो होय तो पण काईक अंशेज लांबा टाइमने समजी शके छे, कोण कहे छे के भारतमा अमृतगंगा नथी? कोण हे छे के दुनियामां कल्पवृक्ष नथी? में तो एम मान्यु हतुं के ए तो कोई मंत्रवादी देवी उपासक हशे, पण ए तो कलीकालमा अलौकिक योगनो खरेखरो अनुभव मेलवेला महान पुरुष छे. अरे ! में तो भाटला वरस सुधी भुलज खाधी, कारणके मारी मति कल्पनाए तो मने खरेखरो दगो दीधो कारणके मने ओलखतां आटला वरस लागी गयां, हुं ए महान पुरुषनी तारीफ नथी करतो, पण ए सत्यनो संदेशो जगत्ने अन्धकारमाथी अजवालामां आववा माटे कहुं छं, ए महान् पुरुषना गुणो तो घणा छे, पण केटलुं लखी शकाय ? मने तो लाग्युं के पोते बीजाना मनना विचारो बहु सारी रीते जाणी शके छे. अरे ! कहेवू न कहेवू तो एमनी मरजीनी वात छे, एमने माटे मारे शु शब्दों संबोधवा ते काई हुं समजी शकतो नथी. ..
प्रभुदास अमृतलाल महेता. दुनियामां महान आदर्शमां आदर्श पुरुष होय तो ते शांतीविजयजी छे.
xxxx कुदरती शक्तिओ खरेखर पुज्य गुरुदेव शांतीविजयजीनेज प्राप्त थई छे.
जो मनुष्य गुरुजीनो खरेखरो दावो करी शके तो शांतीविजयजी खरेखरा गुरुजी कही शकाय.
स्वर्गीय पंजाबकेशरी लाला लजपतरायके,
उर्दू वन्देमातरम्पत्र लाहोरमेंसे.
ज्यारे इंदोरथी हमो आबु जवा माटे नीकळया, त्यारे टाइम्स आफ इन्डीया वांचता तेमा आबुमां महात्मा श्री शान्तीविजयजी रहे छे अने ते एक (वंडरफुल) अनवशक्ति धरावे छे; कारण के तेओश्रीने युरोपीय, पारसी, जैन, मोहमे इन अने हिंदु, दरेके दरेक पुज्य माने छे, त्यारे हमारा मनमां पण विचार अंओं के हारे पा र मोनोने अj नोईर,
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[७. हमो पण त्यां गया, गुरुदेव शान्तिविजयजीमे जोया, त्यारे हमोने मनमां थयुं के ए कोई सारा माणस तो छेज, हमो काई पुननिक आदर्श तरीके मानता नहिं-( लांबा टाइमें अनुभवथी वंडरफुल लखेखें ) पण हवे हमो तो कोई अजब देवरत्न समज्या छीए, अने जेम जेम अनुभव वधतो गयो, तेम तेम हमोने विचार थयो के, ए तो कोई अजब पुरुष छे, आ तो देवरत्न पुरुष छे मनुष्य रूपमां देव पुरुष छे. ए महान् पुरुषने ज्यारे आपणे जेवी जेवी भावनामां जोईए छीए तेवी रीते तेओ पोते देखाय छे. प्रथमथीन दुनियाने अंध विश्वासमा बीजा साधुओ मळेल छे. एटले आपणे आवा महान् देवपुरुषने ओळखी शक्या नहिं; कारण के आने साधुओ माटे जगत् अविश्वास करे छे ए वात बरोबर छे; दुनियामां डोल करनाराओ अने पंडिताई अने वाक्य चातुर्यता बतावनारा घणा पुरुषो साधु वेषमां जगतने भरमावे छ; अने एवाओने पण अंधश्रधालु माननारा अने पूजनाराओ दुनियामां मळी जाय छे. ___एमनो ऊपरनो देखाव तदन भोलो अने सादो छे, ज्यां सुधी आपणने पूर्ण अनुभव नहि थायं त्यां सुधी एमज लागशे के ए तो तदन मामुली साधारण माणस छे. गुरुश्री शान्तिविजयजीनो ऊपरनो देखाव जुदो अने अंदरना गुरुदेव शान्तिविजयजी जुदा छे; आजे दुनियां तो ऊपरनो डोळ डमाक जोईने अंधश्रद्धामा फसाई जाय छे, अने ज्यारे पाछळथी अनुभव थाय छे त्यारे श्रद्धा हीन बनी जाय छे. साधुनुं नाम जे पवित्र छ एनाथी पोते काई पवित्र थतो नथी. धारो के कोईन नाम रामकृष्ण, रिखब, जरथोस्त, महमद अने कोईनुं नाम इशु छे. हवे एवां नाम धारण करवाथी काई पोते तेवा महान पुरुष थई शकता नथी. धारो के सघळा साधुओना वेषन पुननिक गणाता होय तो पछी नाटकमां जेम राजा राणी थाय छे तेवीन रीते तेमज बकराना ऊपर सिंहन चामडू चढाववाथी कांई बकरो सिंह थतो नथी, तेवीज रीते सिंह जेवो आत्मा ( जीव ) बलवान होय तोज खरेखरो सिंह बनी शके छे. . धारो के नाटकमां एक श्रीमंत माणस ज्यारे फारसमां उतरे छे त्यारे मामूली माणस थाय छे, तेथी ते कांई मामुली न कहेवाय तेवीन रीते दुनियाना धर्माचार्योए साचा संत बनावी जाण्या होत तो आजे दुनिया मुक्तिपुरी बनी होत अने दुनियाना महान् पुरुषोने ओलखाया होत. ए महान् आत्माओ ओलखवा माटे पण महान् विचारक थवानी जरूर छे, ज्यारे ए महान् पुरुषमा (ब्लेसिंग) आशीर्वाद पडे तो दुनियाना मोटा मोटा नामी नामी डाक्टरोए पण जेने माटे आशा छोडावी दीधी हती तथा ज्योतिषोए पण जेने माटे हाथ खंखेरी नखाव्या हता, तेवाओ पण एमना आशीर्वाद वडे सारा थई गया छे. जेने आपणे साधु कहिए जेना दर्शन वडे आपणुं पाप नष्ट थई जाय, ए साधुता काई जुदीन वस्तु छे. गुरुदेव शांतिविजयजीने तो बधा ओळखे छे, पण आपणी कोई महान् पुन्याई हशे तोज अदरना गुरुदेव शांतिविजयजीने ओळखी शकीशं. ते दीवसे आपणे ( ब्लेसींग ) खरेखलं
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[ ] माण्युं कहेवाशे. विशेष शुं कहुं ? एमनो आशीर्वाद एटलो बधो बळवान छे के जे केसने माटे दरेके दरेक माणसोए आशा छोडी दीधी हती, तेनो महान् रोग पण मुक्त थयो, ए मारो पोतानो खुद अनुभव छे, हुं तो दुनियामां महान योगीश्वर तेने समजुं छु. अहाहा! दुनियामां आजे एवा देवरत्नो छे जेने कोई ओळखी शक्या नथी, कारणके एमनी पासे सिंह भने वाघ जेवा क्रुर जानवरो पण पाळेला माफक आवी बेसी जाय छे.
__एवा महान पुरुषोनो भेटो थवो काई साधारण वात नथी. एकवार तो दरेके दरेक मनुष्ये जरूर एमनां दर्शन करवा जोईए, एवी मारी दरेके दरेकने भलामण छे. एमनो जे मार्ग छे ते सत्य छे. मारुं ते सत्य नहिं, पण सत्य तेज मारुं छे, एवो गुरुदेवनो दरेकने एक सरखो उपदेश छे. गुरुदेव पोते जाते रबारी कुलमा जन्मेला अने दरेके दरेक प्राणी उपर समभावना राखवी एवो एओश्रीनो उपदेश छे. अने विश्वनुं कल्याण थाओ एवी मावना छे. जैन जीवन २९-२-२९. श्रीमान् सरदार कीबे साहब डेप्युटी प्राईस मिनिस्टर,
इन्दौरके लेखपरसे।
हालमें ही रोहीड़ा ग्राम (रियासत सिरोही)में योगनिष्ठ आचार्य माहराज श्री विजयकेसरसुरीश्वरजीके शिष्य प्रभावविजयजीके दीक्षा देनेके समयमें शांतमूर्ति योगनिष्ट माहत्मा श्री शांतिविजयनी माहराजको आचार्य पदवी देने के लिये आचार्यश्री विजयकेसरसुरीश्वरजी माहराज, संघ तथा दूसरे भी प्रसिद्ध आचार्यो, उपाध्यायों, साधुओं तथा अन्य संघके आगेवानोंने यह आचार्य पदवी खीकारनेके लिये बहुत आग्रह किया था परन्तु आपश्रीने इस बातको मंजूर नहीं किया और कहा कि ' मेरेको जो पदवी चाहिये वह मुझे कोई देसके ऐसा नहीं है और तुम जो पदवी देते हो उसकी मुझे आवश्यक्ता नहीं।'
पदवीके भूखे जैन साधु ऐसे महात्माका पाठ सीखकर आदर्श साधुतामेंसे झरती सच्ची निस्टहताका दुनियाको भान करानेको मानके भूखिये वेशधारी इस साधुताको मिटाकर भाव साधु बने ऐसी आशा करते हैं।
ऐसे पवित्र जीवनको व्यतीत करनेवाले महात्मा शांतमूर्ति मुनि महाराजश्री शांतिविजयजीके बोध वचन
कंगालमें कंगाल मनुष्यमें भी दिव्यता गुप्तरूपसे विद्यमान है। मैं अंतरको पूजनेवाला हूं।
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वस्तुकी पहछान पुस्तकों द्वारा होसकती है परन्तु पुस्तकोंका ध्येय वही आत्मज्ञानज्ञानकी हद, वही परम पद ।
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तत्त्वको समझा नहीं वहांतक ऊपर २ का ही सव एकटींग है ।
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जो सत्य है वह मेरा धर्म है, बहारकी तकलीफ क्या विशादमें ? अन्दरकी शांति बिना
फिजूल है ।
विवेकानन्द यह पंडित थे और स्वाभिराम यह जवरदस्त आत्मार्थि थे ।
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प्रवृत्तिसे निवृती लो याने निवृतिमय प्रवृत्ति करो ।
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बन सके तो अपने जीवनसे और अन्तमें अपने विचारोंसे दूसरोंको पवित्र करो ।
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महानुभाव मुझको जिसकी आवश्यक्ता है वह तेरे पास नहीं है और तुम कृपाकर मुझे देना चाहते हो उसकी मुझे परवा नहीं ।
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विश्व मेरा मित्र है और मैं सबका मित्र हूं ।
मैं त्यागी हूं यह भावनाका त्याग ही सच्चा त्याग कहा जासक्ता है । शांतिमय जीवन यही सत्य जीवन है एकांत में आनन्द है । ॐ अर्हममें परम सुख है ।
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जैनों का जीवन ऐसा है कि जिसकी देवता भी यात्रा करने आयें, ऐसा जीवन जीओ ।
भांग पीए हुए मनुष्य का जैसे छाश पानेसे नशा उतरता है वैसे ही इस संसार में संसारकी भावना से भीगी हुई आत्माको शुद्ध करनेको ॐकार मंत्र जापकी जरूरत है । उससे आत्माका वातावरण शुद्ध होता है सर्व आत्माको शुद्ध करनेको मथो ।
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[ १..]
'ॐकार' संसारमें सुख और शांति किसको नहीं चाहिये ? संसारके सभी जीव सुख और शांति प्राप्त करने के लिए, अपनी २ शक्तिके अनुसार प्रयत्न किया ही करते हैं:। समस्त संसारी जीवोंको सुख एवं शांतिकी कामना होती है। हमारे प्राचीन अनेक विद्वान मुनियोंने अपने विरचित पुस्तकोंमें, जनता उनसे यथाशक्ति लाभ प्राप्त करती रहे, इसलिये कई मंत्रोंका उल्लेख किया है । उन मंत्रोंमेंसे कुछ२ तो खासकर अमुक अमुक अभ्यासियों, मुमुक्षुओं और साधकोंके लिये उपर्युक्त हैं । उसकी साधना आदिक प्रक्रिया गुरुगम्यके तौरपर गुप्त ही रखी गई हैं । परंतु कितनेक मंत्र और जप उन्होंने मुमुक्षुननो एवं जनताके कल्याणके लिए अपनी पुस्तकोंमें लिखे हैं । उनका उपयोग हरएक मुमुक्षुजन व जनता हर समय करके अपना अभीष्ट कल्याण सिद्ध कर सकते हैं । उन विद्वान् मुनि महोदयोंके वे मंत्र तंत्रादि. साधकका आन्तरिक और बाह्यिक कल्याण करनेवाले हैं महान् परोपकारी पुण्य पुरुषोंके उच्चारित साधारण शब्दोंमें भी अद्भुत सामर्थ्य होती है । ऐसा होते हुए खास विशिष्ट उद्देश या अभिप्रायको लेकर, विशिष्ट अक्षरोंकी योजना द्वारा नियोजित मंत्रयुक्त पदोंकी सामर्थ्यके विषयमें क्या कहा जावे ? उनका फल हरेकके लिये कल्याणकारक होता ही है । ऐसे २ मंत्र-पदों, उनके योजक महर्षि-महानुभावोंके अलौकिक तप, त्याग और तेजके त्रिविध शक्तिके सपुष्टद्वारा परिवेष्टित हुए होते हैं और उसी शक्तिको लेकर उनमें अद्भुत सामर्थ्य उत्पन्न होजाता है । जिस प्रकार जड जैसी गिनी जानेवाली रसायन विद्याके एक सामान्य नियमके अनुसार, नेगेटिव और पोजीटिव खभावकी दो धातुओंके टुकडोंको, जब तज्झ योजक यथोचित प्रकारसे जोड देता है, तो उसमें अद्भुत एवं अलौकिक शक्तिका आश्चर्यजनक संचार होजाता है । उस शक्तिके द्वारा या उसके बलपर, लाखों मनुष्योंके शारीरिक बलसे एवं दीर्घकालीन परिश्रमसे-उद्योगसे भी नहीं होसकता वही कार्य, बहुत ही सरलतासे और क्षणमात्रमें भली भांति, बन जाता है इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है । इसी प्रकार आध्यात्मिक विद्याके नियमानुसार, पृथक् पृथक् स्वभाववाले वर्णों अथवा अक्षरोंको, उनकी सामर्थ्यको, भलीभांति जाननेवाले योगीजन विशिष्ट रीतिसे, जोड़ देते हैं तो उनमें विद्युत्-शक्तिके अनुसार किसी अगम्य शक्तिका संचार होजाता है । उसी शक्तिके द्वारा साधक जन अपना अभिष्ट कार्य सरलतासे सिद्ध कर सकते हैं।
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[ ११ ]
संसार परिवर्तनशील है । आज हमारे इस भारतवर्षमेंसे तपश्चर्या, त्याग और तेजकी त्रिविध शक्ति धारणा करनेवाले आध्यात्मिक पुरुष बहुधा अद्रश्य होगए हैं । अतएव हम लोगों को इस अध्यात्मिक सामर्थ्य की कल्पना तक होना असंभव होगया है । दूसरी ओर देखते दिखाई पड़ता है कि तप और त्यागके मिथ्या आडम्बर के नामपर केवल उदर पूर्ति - की अभिलाशा रखनेवाले दंभी लोगोंके दांभिक जीवनको देख देखकर मुमुक्षुजनोंमें, सज्जनों सत्पुरुषों की सामर्थ्य में अश्रद्धा उत्पन्न होरही है । अतएव ऐसे अनेक साधनों की यथोचित आराधना करनेकी और किसीकी प्रवृत्ति या प्रयत्न नहीं होरहे हैं । कहा जाता है कि जिस प्रकार धर्म बुद्धिका विषय नहीं है पर श्रद्धाका विषय है । इसी प्रकार मंत्र सामर्थ्य भी बुद्धिका विषय नहीं है परन्तु वह श्रद्धाका विषय । श्रद्धाशील आत्मा ( मनुष्य ) ही मंत्रजनित सामर्थ्यका फल प्राप्त कर सकती है । मंत्रोंसे श्रद्धाहीन मनुष्य को उससे कोई लाभ नहीं हो सकता आध्यात्मिक सामर्थ्य की प्राप्तिके लिये संयम और श्रद्धा इन उभय तत्वों की जोड़ी चाहिये । श्रद्धा, सामर्थ्य - शक्तिकी जननी है योग्य समागमसे आत्मिक सामर्थ्य उत्पन्न होजाता है । इस और उसकी सामर्थ्य का विचार करते हैं तो समझ में आता है कि उन मंत्रपदोंका योजक संयमशील होना चाहिये । और उसका ग्राहक भी श्रद्धावान् होना चाहिये । संयमशून्य के द्वारा योजित और श्रद्धा शून्य द्वारा महीत मंत्र कुछ भी सामर्थ्य उत्पन्न नहीं कर सकता, यह सर्वथा सब प्रकार सही है । हमारे पूर्वके प्राचीन पवित्र परोपकारी पुण्यवान् पुरुष, महामना महर्षि लोग, मुमुक्षुजनोंके हितार्थ कितनेक मंत्रपदोकी योजना कर गए हैं 1 उनमें संयमका ओजस् तो अन्तर्निहित है ही । परन्तु यदि साधक जनों में श्रद्धाकी पात्रता यथेष्ट न हो तो इच्छित फलकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती । कहा भी है कि
। श्रद्धा और संयम, दोनों सिद्धान्त के अनुसार मंत्र पद
श्रद्धा फलति सर्वत्र ।
( सर्वत्र श्रद्धा ही फलिभूत होती है ) ॐ क्या हैं ?
मंत्र शास्त्रोंमें ॐकारको प्रणव कहा जाता है सबके सब मंत्र पदों में यह ॐ आद्यपद है । सभी वर्णों का यह आद्यजनक है इसका स्वरूप अनादि व अनन्त गुणोंसे युक्त है । शब्दसृष्टिका यह मूल बीज है । ज्ञानरूप उज्वल धवल ज्योतिका यह केन्द्र है । अनाहत वादका यह प्रतिघोष है । परब्रह्मका द्योतक और परमेष्ठीका वाचक है । सभी दर्शनों में और सभी तंत्रों में यह समान भावसे व्यापक हैं । योगीजनों का यह आराध्य अधिष्ठान है, काम उपासकों को यह अभिलाषित इच्छित फल देता है और निष्काम उपासकों को आध्या
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[RR]
त्मिक भीक्षा प्रदान करता है। हृदयकी धड़कनके जैसे यह निरंतर योगीजनोंके अंतःकरणमै स्फुरायमान होता है ।
निम्नलिखित श्लोक के स्थूल स्वरूपका यथार्थ वर्णन बताता है-
ॐकार बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥
अर्थ - बिन्दु संयुक्त जो ॐ हैं, वह सब काम तथा मोक्ष देनेवाला है । इसीसे योगीअन इसीका ध्यान करते रहते है और इसीका वंदन ( नमस्कार ) किया करते हैं । ज्ञानार्णव शास्त्र कर्ता श्री शुभचन्द्राचार्य अपने ग्रन्थ में ३८वें प्रकरणमें इस प्रणवाक्षरका महात्म्यका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि:
स्मरदुःखानलज्वाला प्रशान्तेर्नवनीरदम् । प्रणवं वाङ्मयज्ञानप्रदीपं पुण्यशासनम् ॥
अर्थ :- हे मुने । तु प्रणव नामक अक्षरका स्मरण कर । कारण कि यह प्रणवाक्षर दुःखरूपी अग्निकी ज्वालाको शान्त करनेके लिए नए मेघोंके समान है । तथा वाङ्गमय याने शास्त्रिय - ज्ञानको प्रकाशित करनेके लिये प्रदीप है और पुण्यका पवित्र शासन है । यस्माच्छब्दात्मकं ज्योतिः प्रसूतमतिनिर्मलम् ।
वाच्य - वाचकसम्बन्धस्तेनैव परमेष्ठिनः ॥
अर्थ - इस प्रणवाक्षरसे ही अतिशय निर्मल ऐसी ज्योति याने ज्ञानशक्ति उत्पन्न हुई है । इसीसे इसका परमेष्टीके साथ वाच्य वाचक सम्बन्ध है । इसका वाच्य है परमेष्टी और यह है परमेष्टीका वाचक |
ॐका चिंतन किस प्रकारसे करना । हृत्कंजकर्णिकासीनं स्वरव्यंजनवेष्टितम् । स्फीतमसंतदुर्धर्ष देवदैत्येन्द्रपूजितमः ॥ प्रक्षरन्मूध्निसंक्रान्तचंद्रलेखामृतप्लुतम् । महाप्रभावसम्पन्नं कर्मकक्ष हुताशनम् ॥ महातत्त्वं महाबीजं महामंत्रं महत्पदम् । शरश्चंद्रनिमंध्यानी कुम्भकेन विचिन्तयेत् ।
अर्थ - ध्यान करनेवाले संयमीको, हृदयकमलकी कर्णिकामें विराजमान, स्वर और व्यंजनोंसे परिवेष्टित, उज्वलाकार, अत्यन्त दुर्धर्ष, देवताओं, असुरों, इन्द्र द्वारा पुजित, सिरपर
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[१३] रही हुई और चंद्रमाकी लेखाके अमृतसे सिंचित, महा प्रभावसम्पन्न, कर्मरूप बनको जला डालने में अग्निके समान, ऐसा यह महातत्त्व, महा बीज, महा मंत्र और महान् पद स्वरूप तथा शरत्कालके चंद्रमाके समान गौर वरण धारण करनेवाले, ॐकारका ध्यान कुंभक प्राणयामके द्वारा करना चाहिये।
ॐके चिंतनसे फल प्राप्ति । सान्द्रसिदुरवर्णान्तं यदि वा विद्रुमपत्रम् । चिन्त्यमानं जगत्सर्वं क्षोभयसर्भिसंगतम् ॥ जाम्बूनदनिभं स्तम्भे विद्वेषे कज्जलविषम् ।
ध्येयं वश्यादिके रक्तं चंद्रायं कर्मशातने ॥ अर्थ-इस प्रणवाक्षरका गाढे सेंदुरके रंग जैसे रूपमें अथवा मुंगके जैसे स्वरूपमें ध्यान करनेसे समूचे संसारको शामिल किया जा सकता है । स्वर्णके समान पीले स्वरूपमें ध्यान करनेसे चाहे जिसे स्तंभित किया जासकता है । काजल जैसे श्याम (काले) स्वरूपमें ध्यान करनेसे चाहे जिसे व चाहे जैसे शत्रुका नाश किया जासकता है। लाल वर्णमें ध्यान करनेसे चाहे जिसे वशीभूत किया जा सकता है। चंद्रमाके जैसे शुक्ल स्वरूपमें ध्यान करनेसे चाहे जैसे दुष्ट कर्मोका नाश किया जा सकता है ।
ॐका स्वरूप । जैन मंत्रवेत्ता महात्मा पुरुषोंक मतानुसार इस महान् मंत्रके " अ अ आ उ म्" इन पंच अद्याक्षरोंके संयोजनसे इस ॐ प्रणवाक्षरका स्वरूप बना है। अतएव इस मंत्रपदका जप ध्यान करनेसे नमस्कार महा मंत्रका जप करने जितना ही फल प्राप्त होता है।
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[१४]
इसमें जो पांच बिन्दु हैं, वे पांचों बिन्दु परमेष्ठीके पांच स्थानोंके सूचक हैं । चंद्रलेखाके ऊपर जो बिन्दु है वह सिद्धोंका स्थान हैं। चंद्रकलागत बिन्दु अरिहंतका स्थान है ! उसके नीचेका बिन्दु आचार्यकारस्थान है । मध्य रेखाका बिन्दु उपाध्यायका स्थान सूचित करता है और निम्नरेखागत बिन्दु साधुके स्थानका दर्शक है। सिद्ध संसारके सर्वोच्च स्थानपर परम शून्यमें विलीन हुए हैं । अर्हत् संसारमें अलिप्त ऐसे ऊर्ध्व अध्यात्मिक आकाशमें विराजमान हैं और वह अपने तेजसे पृथ्वीतलको प्रकाशित करता है। ज्ञानामृतकी शीतल किरणोंसे उत्तम हुई आत्माओंको अन्तरात्माओंको शांत करता है । सदाचारके उपदेष्टा आचार्य, तत्त्वज्ञानी जनताके अग्रभागमें हैं और वे अपने आदर्श आचारों एवं विचारोंसे जनताको सन्मार्गपर, चलाते हैं । सम्यग्ज्ञानके अध्यापक उपाध्याय जनताके बीचमें रहकर निष्काम भावसे उसे अपने ज्ञानका अक्षय ज्ञानदान करते हैं। स्वपरके कल्याणकी साधनामें तल्लीन हुए साधु-पुरुष-संतजन एकांत स्थानमें रहकर अपने साधु स्वभावसे संसारको नीचेसे ऊपरको चढ़ानेके लिये अदृश्य प्रेरणाकी शक्ति प्रदान करते रहते हैं । इस प्रकार इन पांच स्थानोंका सूक्ष्म रहस्य है।
इसका दूसरा क्रम । ॐकारके इस सूक्ष्म-रहस्यको दूसरे क्रमसे भी बताया जा सकता है और वह इस प्रकार है:
सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट स्थान प्राप्त करनेवाली मुमुक्षु आत्मा कौनसे क्रमसे उत्क्रान्तिके सोपानपर आरूढ़ होकर उच्चपद प्राप्त करती जाती है उसका भी ॐकारकी इस आकृतिमें सूक्ष्म सूचन रहा हुआ है । मुक्ति प्राप्त करनेके अभिलाषियोंको सबसे पहले साधु याने साधक होना पड़ता है। साधक अवस्थामें रहते हुए अमुक एक प्रकारकी संसारका कल्याण करनेवाली भावनाओंको मुसंस्कृत बनाकर फिर उसे जनताका अध्यापक बनना होता है । अर्थात् सम्यज्ञानका अध्ययन करानेवाला अध्यापक का पद गृहण करना पड़ता है। इस प्रकार जनताके शिक्षा प्रदान करते हुए आनेको जो कुछ विशेष अनुभव प्राप्त होनाय, मनकत्याग का जो सत्य मार्ग सूझ पड़े, तदनुसार फिर उसे माने
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[१५] माचारके अनुकूल जनताको उच्च स्थानपर पहुंचानेवाले मार्गदर्शक याने आचार्यके पदका स्वीकार करना होता है । आचार्यके नाते अपने कर्तव्य कर्म, जो पूरे पूरे किये करते हैं वे ही फिर अहेतु-जगतपूज्यके पदपर, वह आत्मा, पहुंच सकता है और अन्तमें परमात्मा दशा स्वरूप सिद्ध स्वरूपमें विलीन हो जाती है । इस प्रकार पंच परमेष्टीपदमें अध्यात्मिक विकास क्रमका जो विचार तत्त्व गर्भितरूपमें रहा है, उसका इस ॐकी आकृतिमें सूचन किया गया है।
ॐकारमें क्या क्या सूचित होता है। ॐकार तीनों लोकका बीज है ।
ॐकार पंचपरमेष्टी है और उसीमें अरिहंत, सिध, आचार्य उपाध्याय और सबके सब साधु हैं।
ॐकारको हरेक धर्मानुयायि मुख्य मानते है । कोई ॐ कहते हैं तो कोई आमीन - और आमेन कहकर पुकारते हैं।
ॐकार सभी मंगलोंमें प्रथम मंगल है । शांतिको देनेवाला है इसका ध्यान करनेसे रोग, शोक, क्लेश, आधि, व्याधि और उपाधि आदिकका नाश होता है और मुक्ति प्राप्त होती है।
ॐकार तीनों लोकोंका एक नकशा है जिस प्रकार एक ही नक्शेमें समूचे संसारका समावेश होजाता है उसी प्रकार इस ॐकारमें तीनों लोकका समावेश होजाता है । अतएव हरएक प्राणीको ॐकारका ध्यान करना चाहिए ।
ॐकारके महात्म्यपर एक कथा । : एकवार मालवपति महाराजा भोजराजने अपने ५०० पंडितोंसे कहा कि-'मेरी आयु तो थोड़ी है, कर्म तो अनादिकालसे लगे हुए हैं । अतएव यह अनादिकालके कर्म थोड़े ही समयमें नष्ट होजायें, इसका उपाय क्या है ? और वह देववाणीमें मिल आवे, ऐसी तजवीज यदि आप लोग कर सकें तो हमारी आर्त आत्माको अत्यन्त आनन्दका अनुपम एवं अद्वितीय अनुभव हो।"
राजाकी यह बात सुनकर महाकवि माघ तथा कालिदासने देवी सरस्वतीका ध्यान किया तब सरस्वतीदेवीने २००० पुस्तकोंसे लदे हुए बैल दिखाए । तब कवि कालिदासने पूछा कि - माता ! इन बैलों पर क्या लदा हुआ है।'
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[१६] इसपर सरस्वतीदेवीने कहा कि-" इन बैलोंपर ॐकारपदकी व्याख्याके किये हुए भोंकी पुस्तकें लदी हुई हैं।"
कालीदासने पूछा-'माताजी क्या एक ही अक्षरकी इतनी महिमा है । ......
"वत्स ! समुद्रमेंके जलके बिन्दु २ गिन सकें । करोड़ों मेरुपर्वतके जितने सरसोंके प्रचण्ड ढिगके दाने गिन सके, तथा ॐकारकी व्याख्या करने के लिये कोई मैं स्वयं किंबहुना, बृहस्पति भी अतएव तुम राजा भोजसे कहो कि कोई हीरे, पन्ने, मोती और सुवर्णके पहाड़के पहाड़ नित्य सदा देता रहे, तौभी इसकी ॐकारकी बराबरी कोई नहीं कर सकता । यह तो मैंने थोड़ेमें कहा बताया हैं। इस ॐकार मंत्रपदका ध्यान हिलते, चलते, सोते, बैठते, उठते शरीरकी और वस्त्रकी शुद्धि न हो तो भी विना होठ हिलाय, किया जासकता है। इसका ध्यान करनेसे अंतःकरणमें बुरे बुरे विचार नहीं आते, चंचल चित्त इधर उधर भटकता नहीं फिरता । नए २ पापोंका बंधन नहीं हो सकता और पुराने पापों (कर्मों) का नाश हो. जाता है। उपरांत ॐकारका ध्यान करनेसे परमात्माके मार्गमें आगेको बैठा जासकता है और विशुद्ध अंतःकरणसे ध्यान किया जाय, वचन शुद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है । अस्तु अब जब शांतिमें हों तब २ हरेकको ।
ॐ हिं अर्हम् नमः। का नाकके अग्रभागपर, दोनों आंखोंकी पलकोंके बीचमें द्रष्टी रखकर श्वेतवर्णका चिंतन करके उसका एकाग्रचित्तसे ध्यान करना चाहिये । जब हाथसे जप करना हो जब नवकारवाली अर्थात् नवकार याने हाथवाली-याने-नव बार गिनना । अर्थात् नव नव बार बार मिलकर १०८ बार होजाय, इसप्रकार उसका जप-ध्यान करना चाहिये । और भी, दीहिने हाथमें १२ और बाए हाथमें ९ की रखना। ताकि नव बार १२-१२ गिननेसे १०८ होजावेंगे।
___ इस प्रकार हरेक मात्रको “ॐ हिं अहं नमः" इस पदका तन, मनसे शुद्ध होकर श्वेत क्षीरसागर अथवा चंद्रमाके वर्णनको लेकर ध्यान करना चाहिये।
ॐकारके विषयमें बहुत ही संक्षेपमें लिखा है । अब हिं और अहं पर बहुत ही संक्षेपमें कुच्छ लिखते हैं।
'हिं' में मायाबीन (लक्ष्मी बीज) तथा श्री चौबीश तीर्थकर आजाते हैं।
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'अहम्' यह श्री मंत्रराज बीज, सिद्धचक्र और नवपद बीज है ।
मंत्रपदोंमें यह दूसरा पद है। परंतु यह तमाम मंत्रपदोंमें रानाके समान होनेसे इसे 'मंत्राधिराम कहा जाता है। अकारादि हकारान्तं रेफमध्यं सबिंदुकम्, तदेव परमं तत्वं यो जानाति स तत्ववित् । महा तत्त्वमिदं योगी यदैव ध्यायति स्थिरः, तदैवानसंपद् भूर्मुक्ति श्रीरूप तिष्ठते ।
मर्थ-'अ' जिसके आदिमें हैं और 'ह' जिसके अन्तमें हैं, तथा • बिन्दु सहित 'रेफ' जिसके मध्य-बीच में है, ऐसा जो अहं (नामक) मंत्र पद है वही परम तत्त्व है। उसे जो मानता है वही यथार्थमें तत्वज्ञाता है । जब इस महान तत्वका योगीलोग स्थिर होकर ध्यान करते हैं तब आनंद स्वरूप सम्पतिकी भूमिके समान, मोक्षकी विभूति उसके मागे माकर उपस्थित होजाती है ।
कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमान् श्री हेमचंद्राचार्यजी प्रायः अपने हरएक ग्रंथकृतिमें आधमंगलके नाते इसी पद ( अहं) का स्मर्ण करते हैं। तथा 'सिद्धहेम शब्दानुशास' नामक अपने सर्व प्रधान ग्रन्थमें तो, इस मंत्राक्षरको वैयाकरण शास्त्रके खास आद्य सुत्रके गुथ देते हैं और निम्नलिखित उसकी व्याख्या करके उसके रहस्य और महत्वको भी समझा
" अहं" (१-१-२) " अ मित्येक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्टिनो वाचकं सिद्धचक्रस्यादि बीनं सकलागमोपनिषद मूतम शेष विघ्नविघात निघ्नमखिलद्रष्टाद्रष्ट फल संकल्प कल्पद्रुमोपमंशास्त्राध्ययना ध्यापनावधिप्रणिधेयम् ।"
अर्थ-"महं, यह अक्षर परमात्माके स्वरूप परमेष्टीका वाचक है, सिद्धचक्रका आदि बीज है । सकल भागमों याने सभी शास्त्रोंका रहस्यभूत है। सभी विद्या समूहोंका नाश करनेवाला है, सब द्रष्ट ऐसे जो राज्यसुखादि सुख और अद्रष्ट ऐसे जो स्वर्ग सुखादि फक हैं, वह प्रदान करनेके लिए, संकल्प करनेवालों के लिए मनोवांछित फल देनेवाले कल्पतरुके समान है।
सभी भागमोंका सभी शास्त्रोंका ॐ यह रहस्य किस प्रकार है, इसके उत्तरमें न्यासकारने समझाया है कि ज्यों मई पदमें परमेष्टीका परम तत्व समाविष्ट हुमा है त्यों ही
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[ १ ] ब्रह्मा, विष्णु और हर शिवका स्वरूप भी, इस अक्षर में अन्तर्हित हुआ है । कारण कि इस पदमें जो 'अ' – 'र' और 'ह' यह तीन अक्षर हैं वे तीनों अनुक्रमसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर के द्योतक हैं, ऐसा योगीजन मानते हैं। जैसा कि नीचे लिखे गए श्लोक में कहा गया है:एकारेणोच्यते विष्णुरेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तदंते परमं पदम् ॥
अर्थ :- 'अ' अक्षर विष्णुका वाचक कहलाता हैं रेफ याने 'र' अक्षर में ब्रह्माकी स्थिती है और 'ह' अक्षर में 'हर' अर्थात् शंकर - महादेव कहे जाते हैं । इस पदके शब्द के अन्तमें जो ऐसी चंद्रकला है वह परम पद- सिघशिलाकी द्योतक सूचक है । इसप्रकार अर्ह शब्द विष्णु आदिक लौकिक देवताओंका अभिधायक होने से वह रूभी आगम अर्थात् सभी धर्मोके सिद्धान्तोंका यह एक रहस्यभूत है एसा कहा जाता है। इसके उपरांत भर्ह पदकी महिमा और गूढार्थ है जिसका विबचन करने की कोई आवश्यक प्रतीत नहीं होती --
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सारांश यह है कि जो मनुष्य संयम और श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का यथोचित रीति से जप या ध्यान करते है उनके सभी मनोरथ सफल एवं पूर्ण होते हैं, इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं ।
मंत्र पदों की सहायता से मनुष्य प्राणीके हरेक मनोरथ निःसन्देह सिद्ध होते हैं। मंत्रपदोंके द्वारा इच्छित फल प्राप्तिकी अभिलाषा रखनेवालोंको चाहिये के वे सदा र वेदा ॐ हिं अर्ह नमः
इस मंत्र पदका, शुभ भावनासे, श्रद्धापूर्वक, पवित्र भावसे, एकाग्रचित्त से, ध्यान करें और इह लोक तथा पर लोकमें सुखशांतिके भागी हों । यही हमारी आंतरिक मनो कामना है।
शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषा प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ॥
॥ ॐ श्री शान्ति ॥
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[१९]
ॐकार स्तुति ।
ॐ नमः मंगल सुखकारी जग जयकारी । ॐ नमः मंगल पदनी जगमां बलिहारी ॥
ॐ नमः अजरामर, अनंत शक्ति विलासी । ॐ नमः परमेश्वर, शक्ति सय प्रकाशी ॥ ॐकार ध्याने आत्मशक्ति, प्रगटती जगमां खरी । बुद्धिसागर प्रणव मंगल, ध्यानथी सिद्धि वरी ॥ १ ॥
अगम निगमनो सार, प्रणव ॐकार विचारो । परब्रह्मनी शक्ति, खीलववा मनमां धारो ॥
चित्त दोषनो नाश, करे छे जाप कर्याथी । सात्विक शक्ति प्रगटावेछे, ध्यान धर्याथी ॥ अलख अगोचर रूप, वरवा प्रणव सरखो मंत्र छे । बुद्धिसागर सत्य निर्भय, देश वरवा यंत्र छे ॥ २ ॥ सम्यग् लही वाच्यार्थ, हृदयमां रटना धारो । अनंत कर्म कटाय, प्रणवथी चित्त विचारो ॥
सालंबन छे ध्यान, प्रणवनुं शास्त्रे भांख्युं । धरी प्रणवनुं ध्यान, योगिओए सुख चाख्यं ॥ ॐकार मंगल आद्य छे, जग श्वासोश्वासे ध्यायीए । बुद्धिसागर शिव सनातन, सिद्ध लीला पाइएं ॥ ३ ॥ हृदय कमलमां प्रणब स्थापना प्रेमे करीए । कोटि भवनां पाप, घडीमां क्षणमां हरीए ।
प्रगटे लब्धि चित्र, वचननी सिद्धि पावे | अंतर त्राटक सिद्ध करें ते स्थिरता पावे ॥ आत्मशक्ति खीलववाने, ॐकार अर्थ विवेक छे । बुद्धिसागर प्रणव मंगल, ध्यान साचो टेक छे ॥ ४ ॥
आनंद अपरंपार, हृदयमां झलके ज्योति | असंख्य प्रदेशी चिवन चेन परखे मोती ॥
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[२०]
विकासे ॥
नासे माया दूर, हृदयमां ब्रह्म प्रकाशे । परम भावनी ध्यान, दशामां हंस प्रेम मशाला दिल प्याला, ब्रह्म अमृत बुद्धिसागर ब्रह्मलीला, पामी निशदिन
प्रणव मंत्रथी निंदा, विकथा दोष टले छे । प्रणव मंत्री अष्ट, सिद्धिओ तुर्त मिले छे ||
प्रणव मंत्रथी संयम, शक्ति प्रगटे सारी । प्रणव मंत्रथी झलहल, ज्योति जग जयकारी ॥ प्रणव मंत्र ॐकार दिलमां ध्यावतां सुख भासतुं । बुद्धिसागर प्रणब मंत्रे, सत्य तत्व प्रकाशं ॥ ६ ॥ नाभिकमलमां प्रणव, मंत्रने प्रेमे स्थापो । स्थिरता अंतर्मुहुर्त, थवाथी टले बलापो ।
अखंड ज्योति झलके, झलहल सुरता साधे । बरसे समता नूर, आत्मानी शक्ति वाघे ॥ अखंड स्थिर उपयोग मांहिं, चैतन्य शक्ति दिनमणी । बुद्धिसागर अनुभवे त्यां, देह स्वामि जगधणी ॥ ७ ॥
नाभिकमलमां असंख्य प्रदेशी चेतन ध्यावो । चिदानंद भगवान इशने भावे भावो ॥
पीजीए । रीझीए ॥ ५ ॥
रुचक प्रदेशे अष्ट सिद्धसम निर्मल सारा । अष्टसिद्धि दातार, धरो मनमां सुखकारा ॥ आत्मसिद्धि प्राप्त करवा, ॐकार मनमां ध्याइए । बुद्धिसागर प्रणव मंत्रे, सिद्ध लीला पाइए ॥ ८ ॥
अगम्य शब्दातीत, प्रणवथी सहेजे मलशे । रजस तमोगुण दोष, प्रणवथी सहेजे टलशे ॥
सात्विक गुणनी वृद्धि, परंपर साश्वत लीला | निर्भय शुद्ध स्वरूप, रंगमां भव्य रसीला ॥ देव दानव भूत कोडी, प्रणवधी पाये पडे । बुद्धिसागर अकल निर्भय, तत्व मौक्तिक कर चडे ।। ९ ।।
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[R]
प्रणव मंत्रना अर्थ थकी, चेतनने ध्यावो । पामी नरभव दुर्लभ, लेशो आत्मिक लहावो ॥ परम ईश भगवान, खरेखर चेतन परम मंत्रथी चेतन, ध्याने मनमां परम ईश्वर प्राप्त करवा, प्रणव साचो बुद्धिसागर ध्यान कीला, प्रणव मंत्रे हृदयकमलमां प्रणव, मंत्रने प्रेमे स्थापो । निजगुण शक्ति खीलवी, निजने रहेने आपो ।
परखो । हरखो |
ध्याइए । पाईए ॥ १० ॥
विषय विकारो साग, करी अंतरगुण धारो । विर्विकल्प उपयोग, धरी चेतनने तारो ॥ आत्मजीवन उच्च करवा, प्रणव सखोपाय छे । बुद्धिसागर प्रणव मंत्रे, सहज लीला थाय छे ॥ ११ ॥
प्रणव मंत्रथी चित्त तणा, सौ दोष टले छे । प्रणव मंत्री सात्विक, गुणमां चित्त मले छे ॥
प्रणव मंत्रथी संयमनी, प्रगटे छे प्रणव मंत्रथी आत्यंतिक सुख छे प्रणव मंत्र स्वप्न निर्मल, देव दर्शन थाय छे । मोह ग्रंथी भेद थातां, शक्ति झट परखाय छे ॥ १२ ॥
सिद्धि । रुद्धि ॥
हृदयकमळमां स्थिसेपयोगे ध्यान खुमारी । हृदयकमलमां स्थिरोपोगे शिव तैयारी ॥
हृदयकमलमा स्थिरता साधी शिवपद लीजे ! प्रणव मंत्र हृदयकमळमां नित्य बड़ीज़े || असंख्य प्रदेशी आत्मदर्शन कीजिये मेमे सदा । बुद्धि सागर आतम दर्शन स्थिरोपयोगे छे सदा ॥ ११ ॥ -पस्यति प्रगटे छे, त्राटक योगे साची । हृदय कमलमां ध्यान, धरीने रहेशो राची ॥
शुद्ध विचारो प्रसवणा पण मगदे खाचा । पस्यति प्रगख्याथी, निर्मल साची वाचा !!
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[२१] असंख्य प्रदेशी ध्याववाथी, पस्यति विकसे खरी।
बुद्धि सागर परापस्यति, मुक्ति झट दिलमां धरी ॥ १४ ॥ परा पस्यतिमां तो, प्रभुनु रूप जणातुं । अनुभवयी योगीश्वर, वचने सत्य ग्रहातुं ॥
शुध स्वभावे आत्मिक, दर्शन तुर्त पमातुं ।
आत्मिक भावे अनन्त, सुख तो दिलमांथातुं ॥ सहज चेतन ध्यान करवा, प्रणव प्रथमो थाय छे ।
बुधिसागर सहज रुधि, प्रणव मंत्रे थाय छे ॥ १५ ॥ परमेष्टि आद्याक्षरथी, ॐकार भण्यो छे। .. सर्व मंत्रमा आद्य मंत्र ॐकार गण्यो छे ॥
सर्व मंत्रमां प्रणव मंत्र, छे शिव सुखकारी।
आपे क्षित जीन वचनो, समझो नरनेनारी ॥ प्रणव मंत्रे सत्व शक्तिज, प्रगटती दिलमां खरी।
बुधिसागर प्रणव मंत्रे शांतता मनमां वरी ॥ १६॥ प्रणव मंत्रमा सर्व मंत्रनो, सार समातो। प्रणव मंत्रनो महिमा, जगमा बहु वखाणा तो॥
प्रणव मंत्रने जगमां, मुनिवर प्रेमे साधे ।
प्रणव मंत्र थी सूर्य समो, महिमा जग बाघे ॥ कण्ठ चक्रमां प्रणव मंत्रे, वचन सिधि थाय छे।।
टले पिपासा प्रणव मंत्रे कण्ठ संयम थाय छे ॥ १७॥ त्रिपुटीमा प्रणव मंत्रनु, ध्यानज' साचुं। तद्रावस्था जयकारी, ॐकारे राचुं ॥
प्रणव मंत्रे दर्शन, आपे अनेक अनेक देवो।
सालंबन ॐकार, मंत्रने : प्रेमे सेवो ॥ सालंचन ॐकार मंत्रे, देव दर्शन थाय छे।
बुद्धिसागर प्रणव मंत्रे, सत्य शांति पाय छे॥ १८ ॥ दर्शन आच्छादन टलतुं, ॐकार प्रभावे । । त्रिपुटीमां प्रणव मंत्री ज्ञानी गावे ॥
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त्रिपुटीमा साळंबन संयमनी रीती । मनवश करवा माटे, सालबननी नीती ॥ त्रिपुटीयां प्रणव मंत्रथी, दोष सघला झट टले । बुद्धिसागर प्रणव मंत्रे इच्छीए ते झट मले ॥ १९ ॥
ब्रह्म भ्रमां प्रणव मंत्रने, प्रेमे साधो । ब्रह्म रंधमा प्रणव मंत्रना करीए जापो ॥
ब्रह्म रंधमां परम समाधि, मंगलकारी । उपादान निमित्त हेतुता, पुष्ट थनारी ॥ प्रणव मंत्रना ध्यान योगेज लॅब्धि रुधि प्रगटती । बुधिसागर गुरु कृपाथी प्रणव मंत्र छे गति ॥ २० ॥
गुरु क्रपाथी प्रणव मंत्रनी, सिद्धि थाने । गुरु ऋपाथी सर्व सिद्धिओ, प्राणी पावे ||
सुरा जनने प्रणव मंत्र, तो तुर्त फले छे । सुगुरा जनने प्रणव मंत्रनुं सार मले छे ।
प्रणव मंत्रनो साथ महिमा, माणसा आवी रच्यो । सुखान्दि गुरुना प्रतापे, बुद्धिसागर मन पचो ॥ २१ ॥
( योगनिष्ठ आचार्य बुद्धिसागरजी सुरीजीकृत अध्यात्म भजन संग्रहमांथी )
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अकार स्तोत्र ।
(सग-गान वंदेमातरम् सिद्धिदायक हर्ष प्रेरक मंत्र ए अंकार छ ।
सौ दुःख नाशक औषधी सम एक ए ॐकार छ । वांच्छना दीलनी पूरे ते एक ए ॐकार छ ।
___उर्ध्वगतिना आत्मानो दीप ए ॐकार छ ।
शांतिना साम्राज्यनो शूर वृत ए ॐकार छ ।
शुद्ध ने पावक जीवन- पेट ए ॐकार छ । सृष्टिना कल्याण तत्व सर्स ए ॐकार छ।
पुण्य गठडी बांधनारो एक ए ॐकार ॥
मान, तप चारित्र दर्शन-इन्द्र एॐकार छ।
जीवनो जे शीव सरजे एक ए ॐकार छ । पावन करे जिंदगीने एक ए ॐकार छ।
सहु धर्मनो, सह कर्मनो उच्च मंत्र ए ॐकार छ ।
साधु अने सन्यासीओनो प्रिय जाप ए ॐकार छ।
अवधूतने योगीजनोनुं गान ए ॐकार छ । संसार ज्वालामा हिमालय, एक एॐकार छ ।
चिर शांति मुख विश्राम मंदिर एक ए ॐकार छ ।
प्रभुदास।
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________________ "जैनविजय" प्रिन्टिग प्रेस, खपाटिया चकला-सूरतमें मूलचन्द किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया।