________________
[१६] इसपर सरस्वतीदेवीने कहा कि-" इन बैलोंपर ॐकारपदकी व्याख्याके किये हुए भोंकी पुस्तकें लदी हुई हैं।"
कालीदासने पूछा-'माताजी क्या एक ही अक्षरकी इतनी महिमा है । ......
"वत्स ! समुद्रमेंके जलके बिन्दु २ गिन सकें । करोड़ों मेरुपर्वतके जितने सरसोंके प्रचण्ड ढिगके दाने गिन सके, तथा ॐकारकी व्याख्या करने के लिये कोई मैं स्वयं किंबहुना, बृहस्पति भी अतएव तुम राजा भोजसे कहो कि कोई हीरे, पन्ने, मोती और सुवर्णके पहाड़के पहाड़ नित्य सदा देता रहे, तौभी इसकी ॐकारकी बराबरी कोई नहीं कर सकता । यह तो मैंने थोड़ेमें कहा बताया हैं। इस ॐकार मंत्रपदका ध्यान हिलते, चलते, सोते, बैठते, उठते शरीरकी और वस्त्रकी शुद्धि न हो तो भी विना होठ हिलाय, किया जासकता है। इसका ध्यान करनेसे अंतःकरणमें बुरे बुरे विचार नहीं आते, चंचल चित्त इधर उधर भटकता नहीं फिरता । नए २ पापोंका बंधन नहीं हो सकता और पुराने पापों (कर्मों) का नाश हो. जाता है। उपरांत ॐकारका ध्यान करनेसे परमात्माके मार्गमें आगेको बैठा जासकता है और विशुद्ध अंतःकरणसे ध्यान किया जाय, वचन शुद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है । अस्तु अब जब शांतिमें हों तब २ हरेकको ।
ॐ हिं अर्हम् नमः। का नाकके अग्रभागपर, दोनों आंखोंकी पलकोंके बीचमें द्रष्टी रखकर श्वेतवर्णका चिंतन करके उसका एकाग्रचित्तसे ध्यान करना चाहिये । जब हाथसे जप करना हो जब नवकारवाली अर्थात् नवकार याने हाथवाली-याने-नव बार गिनना । अर्थात् नव नव बार बार मिलकर १०८ बार होजाय, इसप्रकार उसका जप-ध्यान करना चाहिये । और भी, दीहिने हाथमें १२ और बाए हाथमें ९ की रखना। ताकि नव बार १२-१२ गिननेसे १०८ होजावेंगे।
___ इस प्रकार हरेक मात्रको “ॐ हिं अहं नमः" इस पदका तन, मनसे शुद्ध होकर श्वेत क्षीरसागर अथवा चंद्रमाके वर्णनको लेकर ध्यान करना चाहिये।
ॐकारके विषयमें बहुत ही संक्षेपमें लिखा है । अब हिं और अहं पर बहुत ही संक्षेपमें कुच्छ लिखते हैं।
'हिं' में मायाबीन (लक्ष्मी बीज) तथा श्री चौबीश तीर्थकर आजाते हैं।