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मुनिमहाराज श्री शांतिविजयजीका परिचय |
3 यथा नाम तथा गुणाः
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आजकल संसार में वेषधारी साधु महात्माओंकी संख्या बहुत ही अधिक होगई है और प्रायः देखा जाता है के यह वेषधारी साधुगण शांती और धर्म फैलाने के बजाए अशांती और क्लेशका प्रचार करते हैं और पुनीत साधु नामको कलंकित करते हैं जिसकी बजह से जैनधर्मकी हेलना भी होरही है ।
प्रत जैसे बादलोंमें सूर्यका प्रकाश छिपा नहिं रहता है उसी तरहसे वे माह पुरुष जो अपने जीवनको एक सच्चे साधुके मुआफिक निर्मलतासे चाहे वे एकांत पहाड़ोंमें निवास करें - व्यतीत करते हैं छिपे नहिं रहते हैं । ऐसे इनेगिने महात्माओं में से शांतमूर्ति मुनी माहराज श्री शांतीविजयजी भी हैं आपका परिचय मुंहपर है फिर भी आपका थोड़ासा परिचय यहांपर देना आवश्यक हैं ।
सिरोही प्रांतके एक एक बच्चेके
आपका जन्म अर्बु देशांतरगत सिरोही राज्यके मणादर ग्राममें संवत् १९४६ के माघ शुक्ला ९ को रेबारी कुलमें भीम तोलाजीके यहां हुआ था - 'पूतके लक्षण पालणेमें ही विदित होजाते हैं ।' अस्तु; आपका बाल्यावस्थासे ही होनहार होना सूचित होता था ।
आपके गुरू तीर्थविजयजी और दादा गुरु धर्मविजयजी माहराजने भी रेबारी कुलमें जन्म लिया था और बड़े महात्मा तथा महान् योगाभ्यासी थे । धर्मविजयजी महाराजने जैन दीक्षा संवत् १९३४ में खण्डाला के घाटेमें मुनि माहराज श्री मणिविजयजी के पास की थी और वहांसे विचरते हुए फिर मारवाड़ में पधारे और सं० १९९० के श्रावण वद ६ को मांडोली ग्राम ( अपने जन्म स्थान ) में काल प्राप्त हुए। आपकी लोकप्रियता, निराडम्बरी स्वच्छ जीवन और अहिंसाका उपदेश इस प्रांत में अभीतक विख्यात है ।
तीर्थविजयजी माहाराज भी रेबारी कुलमें उत्पन्न हुए थे आपका संवत् १९८४ के फाल्गुण कृष्णा ८ को मृडतरा ग्राममें स्वर्गवास हुआ । आप भी पूरे योगी थे । गर्ज तीनों ही पीढियों से योगाभ्यास चला आता है।