Book Title: Sanskrit Prachin Stavan Sandoh
Author(s): Vishalvijay
Publisher: Vijaydharmsuri Jain Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयधर्मसूरि-जैन-ग्रन्थमाला पु. ४९ AIMiller संस्कृत-प्राचीन-स्तवन-सन्दोहः शास्त्रविशारद-जैनाचार्य-श्रीविजयधर्मसूरीश्वर-लघु शिष्यरत्नेतिहासतत्त्ववेतृ-शान्तिमूर्ति-मुनिराजश्रीजयन्तविजय-चरणकमलभ्रमरायमाणेन मुनिविशालविजयेन सम्पादितः प्रथमावृधि - १०००, वीर संवत् २४६५ ] धर्म संवत १७ [ विक्रम संवत २९५ A .. ... मूल्यं आनकत्रयम् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकःमन्त्री श्रीविजयधर्मसूरि जैन ग्रन्थमाला छोटा सराफा; उज्जैन (मालवा) राजधन्यपुर-वास्तव्यश्रेष्टित्रिकमचन्द्रसूनोाय-व्याकरणतीर्थ-पण्डित-हरगोविन्ददासस्य भगिन्या मोंघीबाईनाम्न्या श्राविकया प्रधानबाईनाम्न्या निजमातुः स्मरणार्थ वितीर्णेनार्थसाहाय्येन प्रकाशित :। मुद्रक:शाह मणीलाल छगनलाल धी 'नवप्रभात प्रि. प्रेस' इत्यत्र घीकांटा रोड-अमदावाद.. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रन्थमाला-पु. ४९ संस्कृत प्राचीन स्तवन संदोह संपादकशास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी महाराजना लघु शिष्यरत्न इतिहासतत्त्ववेत्ता शान्तमूर्ति मुनिराज श्री जयन्तविजयजीना शिष्य मुनि विशालविजय - - प्रथनावृत्ति १०००. वीर संवत्-२४६५ ] धर्मसंवत्-१७ [ विक्रम संवत्-१९९५ मूल्य-त्रण आना Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधनपुर निवासी श्रेष्ठी त्रिकमचंदना पुत्र न्याय-व्याकरणतीर्थ पण्डित हरगोविंददासनी बहेन श्राविका मांघीबाईप पोतानी माता प्रधानबाईना स्मरणार्थे आपेली द्रव्य सहायथी प्रकाशित थयुं. Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. शास्त्र विशारद जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरि महाराज I. A. S. B; H. I. A. S. I; H. M. G. O. S. A. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणम् कृपांशुभिर्यस्य गुरोः कलाभृत: जाड्यान्धकारे पिहितैव शेमुषी। प्रोन्मीलिता तस्य ममेदमर्पये . श्रीधर्मसूरीश्वरपाणिकैरवे ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित-पद्य-रत्नाकर भाग १-२-३ जुदा जुदा सेंकडो विषयोना हजारो श्लोकोनो संग्रह, गुजराती अनुवाद साथे, ए श्लोकोनां स्थानो साथे, आ संग्रहमां आपवामां आवेल छे. अत्यार सुधीमां नीकळेलां अनेक सुभाषित संग्रहोमां विद्वानोए आनु स्थान सौथी पहेलु मूक्युं छे. उपदेशकोने माटे तो अत्यन्त ज उपयोगी. वर्षा सुधी व्याख्यानो करवां होय तो बोनुं पुस्तक हाथमां लेवानी जरूर न पडे. आने जोनारा जोई शकशे के केटला परिश्रम पूर्वक आना संपादक अने अनुवादक मुनिराज श्री विशालविजयजीए आ भागो तैयार कर्या छे. उंचा ग्लेझ कागळो, चारसो चारसो पानानो एक एक भाग, पाकुं कपडानुं बाइन्डिंग, उत्तम छपाइ अने दरेक रीते सुंदर होवा छतां किंमत दरेक भागनी मात्र सवा सवा रूपियो छे. चोथो भाग पण बहु ज जलदी बहार पडशे. पांचमो भाग बहार पड़ी चूक्यो छे. लखो मंत्री श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रंथमाला छोटा सराफा, उज्जैन. (मालवा) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यद्यपि प्राचीनैः विदुषांवरैः संस्कृतभाषायां विरचितानि बहूनि चैत्यवन्दन-स्तुति-स्तोत्रादीनि मुद्रितानि, अमुद्रितानि च वर्तन्ते, परन्तु संस्कृतभाषानिबद्धानि स्तवनानि नाद्यापि मुद्रितानि मया क्वचिद् विलोकितानि । - 'आबू' नाम्नः सुप्रसिद्धस्य ग्रन्थस्य प्रणेतृभिरितिहासतत्त्ववेदिभिर्मद्गुरुभिः पूज्यपाद-मुनिराज-श्रीजयन्तविजयैरबुदायलसम्बन्धीनि विविधभाषामयानि स्तवन-स्तोत्राणि समन्ततो गवेषयित्वा समुच्चिन्वानरितस्ततो बहव्यो हस्तलिखिताः प्रतय एकत्रीकृताः, तास्वेका पञ्चपत्रीरूपा विशदाक्षरलिखिता प्राचीना प्रतिः उग्रपुर-(आगरा)स्थितस्य श्रीविजयधर्म-लक्ष्मी-ज्ञानमन्दिरस्य सम्बन्धिनी प्राप्ता, यत्र अर्बुदाचलस्तवनेन सह संस्कृतभाषानिबद्धानि अन्यान्यपि बहूनि ललितमधुराणि कानिचित्तु यमकानुप्रासालङ्कारालङ्कृतानि स्तवनानि विलोक्य 'प्रकाशार्हानि इमानि' इत्येवधार्य पूज्यपादैर्गुरुभिस्तत्सम्पादनायादिष्टोऽहं तत्कार्य व्यापृतोऽभवम् । यथाशक्ति सम्पाद्यमानि पाठकप्रवराणां सम्मुखं पुस्तकाकारेणोपस्थापयितुं समर्थः सञ्जात इति प्रमुदितोऽस्मि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एतेषु च स्तवनेषु क्वापि कर्नुर्नाम्नोऽनिर्देशात् , प्रतौ च लेखसमयस्यानुल्लेखात् 'केन कदा स्तवनानीमानि विरचितानि' इति सम्यग् विनिर्णेतुं न शक्यते, तथापि एतानि स्तवनानि विक्रमीयपञ्चदशाधिकपञ्चदशशतकात् (१५१५) प्राचीनानीत्यनुमीयते; तथाहिअत्रत्येऽर्बुदाचलस्तवने तत्रत्यानां त्रयाणामेव मन्दिराणामुल्लेखः स्तवनक; कृतोऽस्ति यथा “अर्बुदाद्रौ युगादीशं रिरीभूत्तियुतं स्तुमः । . नेमिं च प्रतिमाः सर्वाः प्रासादत्रयसंश्रिताः॥१॥ अर्बुदलेखेष्वपि तत्समये त्रयाणामेव मन्दिराणामुल्लेखो वर्तते । ____ अर्बुदाचले ( देलवाडाग्रामे ) चेदानी वर्तमानानां चतुर्णां मन्दिराणां मध्येऽर्वाचीनस्य खरतरगच्छीयचतुमुख-प्रासादस्य प्रतिष्ठा विक्रमीय १५१५ तम संवत्सरे १ ॐ० । स्वस्ति श्रीअर्बुदतीर्थे श्रीआदिदेवादिप्रासादत्रये संवत (त्) १४८९ वर्षे ...(मा ?) र्ग [.] वदि ५ सोमे राजश्रीराजधरदेवडा चुंडाविजयि (य) राज्ये * * * तपागच्छे श्रीसोमसुन्दरसूरि-शिष्य पं० सत्यसारगणिना लिखितं... । अर्बुद-प्राचीन-जैन-लेख-सन्दाह, लेखाङ्क: २४८ ॐ० । [तीर्थ ?] गराय नमः । स्वस्ति संवत १४९४ वर्षे वैशाखशुदि १३ गुरौ * * * श्री अर्बुदाचले आगिइ तीर्थ शीतांबरु प्रासाद दिगंबरु पाछिइ कराव्य...श्री आदिनाथ वडाइ बीजी श्री नेमिनाथि त्रीजिइ श्रीपित्तलहर वुथ प्रासाद दिगंबरु पाछिइ xx। लेखाङ्कः ४६२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साताऽस्तीति तत्रस्थितेन प्रतिष्ठालेखेन' विज्ञायते । यदि चास्य स्तवनस्य निर्माणं ततः परवर्तिनि समयेऽभविष्यत् तदा प्राचीनस्य मन्दिरत्रयस्येव परवत्तिनश्चतुर्थस्यापि मन्दिरस्य तत्रावश्यमुल्लेखो ग्रन्थक; कृतोऽभविष्यदिति। एतस्य स्तवनसन्दोहस्य नान्या प्रतिरुपलब्धा, या च पूर्वोक्ता एका प्रतिः समासादिता साऽपि न सर्वथा शुद्धा, इति तामाश्रित्य कृते संपादनकार्येऽज्ञानदोषेण मतिभ्रमेण प्रमादेन वा या काचिदशुद्धिः स्थिता स्यात् तां सहृदयाः कृपां विधाय शोधयिष्यन्तीति आशास्ते मुनिविशालविजयः। १॥ॐ॥ संवत् १५१५ वर्षे आषाढ व [दि] १ शुक्रे राजाधिराजश्रीकुंभकरणविजयराज्ये x x x संघाधिपतिमंडलिकसुः श्रावकेण xxx श्रीअर्बुदमहातीर्थे श्रीफणेश्वरपार्श्वनाथः कारितः [प्रतिष्ठितश्च खरतरगच्छाधिपतिश्रीजिनचंद्रसूरिभिः ? ] श्रीरस्तु श्री श्रमणसंघस्य । अर्बुद-प्राचीन-जैन-लेख-सन्दाह । लेखाङ्कः ४४१ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू आबू एटले जगविख्यात पहाड. आबूनी न्हानामां न्हानी, अने मोटामां म्होटी दर्शनीय वस्तुओ, रस्ताओ अने एक दर्शकने उपयोगी थइ पडे, एवी तमाम वस्तुओनी माहिती आपनारुं तेमज आबूनां मंदिरोनी झीणामां झीणी कोरणीओ अने सुदर सुंदर भावो दृश्योना लगभग ७५ फोटाओथी अलंकृत आपुस्तक, जेम'आबू' ना यात्रीओने उपयोगी छे, तेम भारतवर्षनी प्राचीन शिल्पकला अने ऐतिहासिक शोधखोळना अभ्यासीओ माटे पण घणु ज महत्त्वनुं छे. एना लेखक छे इतिहासतत्त्ववेत्ता, शान्तमूर्ति मुनिराज श्री जयन्तविजयजी. म्होटो दळदार ग्रंथ, ७५ फोटा, पाकुं बाइन्डोंग अने उत्तम जेकेट होवा छतां मूल्य मात्र २-८-०. हिंदी आवृत्ति पण ते ज प्रमाणेनी अने ते ज किंमतनी. लखोः-- मंत्री श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रंथमाला छोटा सराफा, उज्जैन, (मालवा ) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । संस्कृत-प्राचीन-स्तवन-सन्दोहः Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीमद्विजयधर्ममूरीश्वर-गुरुभ्यो नमोनमः । [१] श्रीऋषभस्तवनम् । श्रीनामेय ! सुनायसदनं सदनन्तचित् । न त्या नत्वा दयोलो ! के लोके लोकेशतामगुः ॥१॥ हतमोहतमोद्रोहः कामदः कामदर्पहा । जय सद्भालसद्भाल ! त्वमितापदतापदः ॥२॥ स्तवं निर्माय निर्माय ! न तवाऽऽनतवासक!। सुकृती सुकती जज कोऽमलः कोमलध्वने ! ॥ ३ ॥ [१] १ * सुनाभेयसदनम्' एतस्य पदस्य कवीप्सितोऽर्थो न ज्ञायते, तथापि 'अष्टापदवास्तव्यम्' इत्यर्थोऽनुमीयते, श्रीऋषभदेवस्य अष्टापदे निर्वाणावाप्तः। सुनाम इति पर्वतविशेषस्याभिधानम् । सदनन्तचित् सम्यगनन्तज्ञानिन्-हे केवलज्ञानिन् । त्वा त्वाम् । अगु:=प्राप्तवन्तः। २ सद्भालसद्भाल हे सम्यक्प्रभादेदीप्यमानललाट । इतापत्-गतदुःखः । __ अतापदः शान्तिदाता । ३ निर्माय-रचयित्वा । निर्माय हे मायारहित। आनतवासव हे इन्द्रकृतप्रणाम । सुकृती विद्वान् । सुकृती-पुण्यशाली । अमल:= निर्मलः । कोमलध्वने हे मधुरस्वर । * टिप्पनिकासङ्घयाप्रदर्शकोऽयमकोऽत्राग्रेऽपि च सर्वत्र मूलस्तवनलोकाङ्कसूचकोऽवसेयः। तत्तदकयुतटिप्पनिका तत्तदङ्कयुतमूलश्लोकस्य स्पार्थका ज्ञेया। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ नरमा नरमानद्रुप्रभञ्जनप्रभञ्जन ! । जनताऽज ! नता लेभेऽदर्पकाऽदर्पका त्वयि ॥ ४ ॥ यस्त्वाऽभीमारि भीमारिप्रमद ! प्रमदप्रद ! | नमतीन ! मतीरेष सदयाः सदयाः श्रयेत् ॥ ५ ॥ [२] श्री अजितस्तवनम् । श्रीमन्तमजितं देवं कषायैरजितं सदा । त्रैलोक्यवन्दितं देवं घोरसंसारपारगम् ॥ १ ॥ अद्य प्राप्ताः श्रियः सर्वा मया तीपर्णो भवार्णवः । जीवितं सफलं मेने यत् त्वं दृष्टोऽतिदुर्लभः ॥२॥ पवित्रा रजनी सैव प्रशस्यो दिवसोऽपि च । स एव जगतीनाथ ! यत्र स्यात् तव दर्शनम् ॥३॥ त्वं मरौ कल्पशाखीव जाङ्गले गाङ्गपुरवत् । सुपर्वमणिवन्नैस्स्वे दुर्लभोऽसि प्रभो ! भवे ४ नरमाः =परमात्मश्रीः । नरमानद्रुप्रभञ्जनप्रभञ्जन = हे द्रुमोन्मूलनवात ! अज = हे जन्मरहित | अदर्पक हे अदर्पका=गताहङ्कारा । ५ त्वा = त्वां । अभीमारि - भी - मारि - प्रमद - हे गतभीषणवैरिभयमारिप्रकृष्टगर्व । प्रमदप्रद = हे आनन्दद । इन = हे प्रभो । सदयाःदयासहिताः । सद्-अयाः = प्रशस्त प्राक्तन कर्मणः । [ २ ] १ अजितं=अजितनाथम् । अजितं अपराभूतम् । ४ मरौ=मरुस्थले । ॥४॥ मर्त्यगव - वीतकाम । कल्पशाखी=कल्पवृक्षः । जाङ्गले = अटव्याम् । गाङ्गपुस्त्रत्–गङ्गाप्रवाहवत् । सुपर्वमणिवत् देवमणिवत् = चिन्तामणिवत् । नैस्स्वे=निर्धनत्वे । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अनवद्या महाविद्याः सम्पदो विपदोज्झिताः । सौभाग्यं सह भाग्येन भाक्तिकः संश्रयेत् तव ॥५॥ [३] श्रीशम्भवस्तवनम् । श्रीशम्भवजिनाधीशं योगीन्द्रं नौमि सादरम् । जगत्पूज्यं मुदा हेलिमुल्लसन् महसाऽदरम् ॥ १ ॥ निस्तीर्ण रौद्रसंसारदावपावक ! शम्भव ! | सेनामातः सदा तात ! सद्भावरावश्यम्भव ! ॥ २॥ त्वं जीयाः सर्वदाऽनर्घ्यगुण कल्पद्रनन्दनः । जितारिगण ! लोकेश ! जितारिनृपनन्दनः ॥ ३ ॥ यं नत्वा लेभिरे शैवसम्पदं मक्षु देहिनः । स त्वं सत्त्वं क्षयं कर्तु मोहराजस्य देहि नः ॥ ४ ॥ तत्याज शासनं जातु तावकं पावकं न यः । तं शाश्वत सुखावासं कैवल्यभविकं नय ॥ ५॥ [ ३ ] १ हेलि = सूर्यम् । महसा मुदा उल्लसन् = महता हर्षेण उल्लसन् । अदरं=अभयम् । सेनादेवीतनय | सद्भावर= २ दावपावक=दावानल | सेनामातः = हे हे सम्यक्प्रभाश्रेष्ठ । अवश्यंभव = हे अपरतन्त्रं=हे स्वतन्त्र । ३ अनध्यगुणकल्पद्रुनन्दनः = अमूल्यगुणकल्पवृक्षनन्दनवनः । जिता रिंगण = हे जितवैरिसमुदाय । जितारिनृपनन्दनः = जितारिराजपुत्रः । ४ मङ्क्षु शीघ्रम् । सत्त्वं=बलम् । ५ जातु = कदाचित् । तावकं =तव । पावकं = पुनितम् | Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] श्रीअभिनन्दनस्तवनम् । सोऽभिनन्दननाथ ! त्वं विजयस्व दयाऽमदः । यस्य ते हृद्यमेयाऽस्था द् विजयस्वदयाऽमदः ॥१॥ जनताऽऽपन्नदीतारतरणे! भवतारण ! । मोहारेरावि कान्त्याऽस्ततरणे ! भवता रणः ॥२॥ श्रीस्ते न हि मुदे कस्य प्रभो ! विश्वाभिनन्दन !। रक्ष मां भवतो भास्वत्प्रभो विश्वाभिनन्दनः ॥३॥ पाहि ताः शोषिताघौघ ! नीरागततमायाः। त्वं प्रजा न हि तत्याज नीरागततमादया ॥४॥ [४] १ अमदः रोगनाशकः ( अम-रोगं दाति=छिनत्ति )। अमेया= प्रमाणरहिता-पुष्कला । विजयस्वदय हे विजयधनदायक। अ मदः मदरहितः। २ जनताऽऽपन्नदीतारतरणे हे लोकविपत्तिनदीतरणनौकातुल्य [तरणिः-नौका] । आवि=जितः। कान्त्याऽस्ततरणे हे प्रभया पराभूतसूर्य [ तरणिः सूर्यः]। रणः संग्रामः । (आवि=अव् धातोः कर्मणि रूपम् ) । अनुप्रासे विसर्गानुस्वारादयो न बाधकाः। अत उत्तरार्धे विसर्ग आवश्यकः । ३ मुदे-हर्षाय । विश्वाभिनन्दन हे जगदानन्ददायक। भास्वत्प्रभः= देदीप्यमानकान्तियुतः। ४ शोषिताघौघ=हे शोषितपापसमुदाय । नीरागततमादयाः रागभा वेन विस्तृतश्रीदयाः। नीरागततं-रागरहित्वेन विस्तृतम् (त्वाम् )। आदया ग्रहणेन [आदान आदा] । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा श्लाघ्या खदशा प्रास्तकमला सदया लयम् । या त्वा गत्वा प्रजा स्तौति कमलासदयालयम् ॥५॥ [५] श्रीमुमतिस्तवनम् । सुमतावावली पद्मां सुमतावस्थिता नता । सुमतावापका नेयाऽसुमतामयसद्मनि भवनाशगुणश्रेणिभवनासुमतां श्रिये । भव नाथ! मनोजन्मभव! नागगते ! सदा ॥२॥ कामद! त्वां प्रजा दृष्ट्वा कामदर्पहरं मुदम् । कामदश्रेयसा लेभे कामदक्षां युतां न हि ॥३॥ ५ प्रास्तकमला दूरीकृतमला । लयं लीनताम् । कमलासदयालयम्= श्रीसत्प्राकर्ममन्दिरम् ( त्वाम् ) [अयः प्राक्तनं कर्म ] । [५] १ आवली श्रेणिः । सुमतौ नता-सुमतिजिने कृतनमस्कारा । सुमतौ =सद्बुद्धौ । अस्थिता-स्थैर्यरहिता सद्बुद्धिरहिता ('अपि' इत्यध्याहारः)। सुमतावापका-सज्ज्ञानाऽभूषणा [ सुमतं-सज्ज्ञानम् , आवापकं आभूषणम् ] । असुमतां प्राणिनाम् । अयसद्मनि-शुभमन्दिरे । भवनाशगुणश्रेणिभवन हे संसारनाशकगुणसमूह । मनोजन्मभव हे कामदेवे महादेव [कामनाशकत्वात् ] । असुमतां प्राणिनाम् । नागगते हे हस्तिगते। ३ कामदश्रेयसा युतां कामप्रदपुण्येन युक्ताम् । अदक्षांचातुरीरहितां= अकृत्रिमाम । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ 118 11 कमलादान्यदोषाणां कमलातारमाश्रितम् । कमलाक्ष ! ररक्षास्तकमलारेभवनान्नहि तारया श्रद्धया चारुतार ! यास्ते स्तुति व्यधुः । ता रयाज्जनता देव ! तारयाऽऽपन्नदीपतेः ॥ ५॥ [ ६ ] पद्मप्रभस्तवनम् | श्रीपद्मप्रभनाथाय सनाथाय श्रिया नमः । योगीन्द्राय नतेन्द्राय महते परमात्मने तवाचिन्त्यप्रभावस्य स्वरूपं वेत्ति कः प्रभो ! । प्राप्तानन्तचतुष्कस्य महेशस्य महात्मनः शाश्वतं योगिनां ध्येयं विरूपं रूपवर्जितम् । शिवश्रीकण्ठशृङ्गारहारं सारं सदा नुमः महादेवो महानन्ददायको जिननायकः । जयति क्षीणकर्मारि महिमास्पदमन्वहम् ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ४॥ ४ कमलाद= हे लक्ष्मीद | अन्यदेोषाणां अलातारं=अन्यदाषाणां अग्रहीतारम् । कमलाक्ष = हे पद्मनेत्र । अस्तकमलारेः=श्रीरहितदैरिणः [सकाशात् ], भवान् कं न ररक्ष ? । ५ तारया=उच्चया । चारुतार - हे सुन्दरतारक । रयात् शीघ्रम् । आपन्नदीपतेः=दुःखसमुद्रात् । [ ६ ] १ सनाथाय = युक्ताय । नतेन्द्राय - इन्द्रकृत प्रणामाय । ४ क्षीणकर्मारिः = क्षीणकर्मशत्रुः । अन्वहं = निरन्तरम् । महिमास्पदं = महिमास्थानम् । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महनीयचरित्रस्य श्रष्ठस्य परमेष्टिषु । गुणग्रामगरिष्ठस्य किङ्करोऽस्मि तव प्रभो! [७] श्रीसुपार्श्वस्तवनम् । श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्रस्य चन्द्रस्य जगतः स्तुवे । । स्याद्वादिनः क्रमाम्भोजमभवस्य स्वयम्भुवः ॥१॥ न हि कस्य मुदे देव ! भवतो मुखचन्द्रमाः । .. अकलङ्कः सदा सौम्यकान्तिश्रीसदलङ्कृतः ॥२॥ सुधाकुण्डाभयो रम्यनेत्रयोस्तव सौम्ययोः । कमलाकारयोस्तारतारयोर्भद्रमन्वहम् पद्मरागारुणप्रेङ्खन्नखातिविराजितम् । वीक्ष्य ते को मुदं नाऽऽप सल्लक्षणकरद्वयम् ॥४॥ पुण्यलावण्यसम्भारसौभाग्यपद्मद्भुतम् । दृष्ट्वा ते निम्मलं रूपं को न चित्रीयते सुधीः ॥५॥ [८] श्रीचन्द्रप्रभस्तवनम् । श्रीचन्द्रप्रभदेव ! त्वां चन्द्रोज्ज्वलतनुत्विषम् । चन्द्राननमहं स्तौमि चन्द्रलाञ्छनमादरात् [७] १ क्रमाम्भोज-चरणकमलम् । अभवस्य जन्मरहितस्य । २ सुधाकुण्डाभयोः अमृतकुण्डसदृशयोः । तारतारयोः देदीप्यमान तारकयोः । ३ चित्रीयते विस्मयते ।। [८] १ तनुत्विषं=-शरीरकान्तिम् । चन्द्राननं चन्द्रमुखम् Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ४ ॥ कर्ता विश्वोपकाराणां ज्ञाता त्रैलोक्यवस्तुनः । त्यक्ता राजश्रियो जीयात् प्राप्ता मुक्तिपुरः परः ॥२॥ त्रातारं विश्वजन्तूनां दातारं शिवसम्पदाम् । हन्तारं भावशत्रूणां नेतारं नौमि भक्तितः ॥३॥ स्वामिनेऽखिलविश्वस्य शमिने दमिने सदा । नयिने यमिने भूयात् तायिने शानिने नमः हरते कुमतेर्वादान् कुर्वते जगते हितम् । श्रीमते धीमते नेतः! महते भवते नमः [९] श्रीसुविधिस्तवनम् । सुविधे! सुविधे धीरः सुमते सुमते ! यते!। तावके पावके त्यक्तवनितो विनतोऽस्म्यहम् अनेकनयसङ्कीर्ण दुर्लभं भवदागमम् । कुतीर्थिकशतागम्यं प्रमाणाबाध्यमाश्रये याऽऽराद्धा कल्पवल्लीव जन्तूनां कल्पितप्रदा। त्वदाज्ञामनिशं शीर्षे शेषामिव वहामि ताम् ताम् ॥३॥ ॥२॥ ५ हरते-हारकाय । कुर्वते कारकाय । नेतः हे अग्रगामिन् । [९] . . १ सुविधे-हे सुविधिनाथ । सुमते हे सुबुद्धे । यते हे साधो । तावके सुविधे पावके सुमते त्वदीये सुष्टुप्रकारके पुनिते सुशासने। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदत्ते सुगतेर्युग्मं युगं हन्ति च दुर्गतेः । भव्यानां पालितं यत् ते दर्शनं तदहं श्रये ॥४॥ चारित्रेण पवित्रेण करनकक्ष व्यधाः । त्वं येन तरसा देहि तन्ममापि तमोपहम् ॥५॥ [१०] श्रीशीतलस्तवनम् । श्रीशीतल ! जिनाधीश ! सर्वज्ञ! परमेश्वर ! । भगवन् ! सुचिरं नन्द योगीश्वर ! महामुने! ॥१॥ देवाधिदेव ! तीर्थेश ! पुरुषोतम शङ्करः । जय पारगतः स्वामिन् ! केवलज्ञानसत्तमः वीतराग ! महादेव ! स्वयंभूर्मुनिनायक ! । सवीर्यः सर्वदा सार्वः त्रायस्व त्वं त्रिकालवित् ॥३॥ जिनं क्षीणाष्टकर्माणमभयप्रदमुत्तमम् । स्याद्वादवादिनं सर्वदर्शिनं बोधिदं नुमः ॥४॥ ४ सुगतेयुग्मं सुगतिद्वयं =देवगतिर्ननुष्यगतिश्च सुगतिद्वयं मतम् ] । दुर्गतेयुगः दुर्गतिद्वयं [-नारकगतिस्तिय॑ञ्चगतिश्च दुर्गतिद्वयमवसेयम् ] । ५ कृत्स्नकर्मक्षय-समग्रकर्मनाशम् । तरसा वेगेन । [१०] २ केवलज्ञानसत्तमः केवलज्ञानेन श्रेष्टः । ३ सार्वः सर्वज्ञः । त्रिकालवित्-त्रिकालज्ञाता । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तीर्थङ्कराय देवाय शम्भवे विभवे भवे ।। अर्हतेऽनिशमाप्ताय नमः श्रीपरमेष्ठिने ॥५॥ [११] श्रीश्रेयांसस्तवनम् । श्रेयांसः श्रेयसां धाम श्रेयसेऽस्तु सदा सताम् । यन्नामध्यानतो मां लभन्ते श्रेयसीं श्रियम् ॥१॥ श्रेयांसि श्रेयसो नाम निरस्ताश्रेयसो मुदा । ध्यायन्तो मन्त्रवत् प्राज्ञा लेभिरे भक्तिशालिनः ॥२॥ अगण्यपुण्यपण्यानामापणो जगदुत्तमम् । एष एव प्रमोदेन श्रेयांसं नौति यो मुदा ॥३॥ नूनं शिरोमणीयन्ते ते नरा महतामपि ! श्रेयांसे विद्यते भक्तियषां मनसि शाश्वती ॥४॥ तं मानवशिरोरत्नं वन्दन्ते त्रिदशा अपि । यः श्रेयांसवचो वन्द्यं लङ्घते न कदाचन ॥५॥ [१२] श्रीवासुपूज्यस्तवनम् ।। वासुपूज्यप्रभो ! सर्वजन्तुजातकृपापरः । त्वत्तो नान्योऽस्ति देवो हि मुक्तिदाता जगत्त्रये ॥१॥ ५ शम्भवे-जिनेश्वराय । विभवे-स्वामिने । अनिशं सदा । [११ ] २ श्रेयसः=श्रेयांसजिनेश्वरस्य । निरस्ताश्रेयसः-दूरीकृतामङ्गलस्य । ३ आपण:=पण्यशाला । जगदुत्तमम् जगच्छ्रेष्ठम् । ५ त्रिदशाः देवाः । [१२] • १ सर्वजन्तुजातकृपापरः-सकलप्राणिसमूहदयालुः । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधयेजिनेश ! त्वां यो विमुच्य कुदैवतम् । करीरं सेवते मूढः सोऽपास्य सुखशाखिनम् ॥२॥ कथं श्रीर्वद्धते तेषां गेहे श्रेयो भवेत् किमु ?। येषां त्वदर्चने नाथ! नाऽऽदरः सर्वथा नृणाम् ॥३॥ देवयोर्नान्तरं येषां स्वान्ते नीरागरागिणोः । किं ते जडा न मन्यन्ते तुल्यत्वं मणिकाचयोः ॥४॥ देवो विश्वे त्वमेवेति जानन्तोऽपि जना जिन !। यद् ध्यायन्ति कुदेवं तन्मिथ्यात्वं बलवत्तरम् ॥५॥ [१३] श्रीविमलस्तवनम् । विमलो जगतीनाथः सततं विमलाजिनः । निर्मदो निर्ममो जीयान्निर्दोषो निर्गतामयः ॥१॥ स्वामिन् ! निर्दोह ! निर्मोह ! निर्लोभ ! गतमत्सर!। जय निःसङ्ग ! निर्माय ! निरीह ! हततामस! ॥२॥ हतदुष्कर्मसङ्घात ! हतपातकसञ्चय ! । हतसंसारसन्ताप ! हतमन्मथ ! पाहि नः २ करीरं-वृक्षविशेषं 'कणेर' इतिभाषायाम् । अपास्य त्यक्त्वा । ४ स्वान्ते-हृदये । नीरागरागिणोः चीतरागसरागयोः । [१३] १ विमलाजिनः निर्मलत्वक् [ अजिनः त्वक् ] । ३ हतमन्मथ-हतकामदेव । नः अस्मान् । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ॥ ४॥ त्यक्तराज्यरमाऽऽराम ! नीराग ! जय नीरजः ! । स्रस्तभावद्विषजात ! प्रदातस्नेहबन्धन ! मुक्तेर्निःशोक ! निष्कोप ! निर्दम्भ ! मम निर्भय ! त्वं यच्छ शर्म निर्ह्रास ! मरणोज्झित ! निर्भव ! | [१४] श्रीअनन्तस्तत्रनम् । श्रीअनन्तजगन्नाथमनन्तयशसं जिनम् । अनन्तपृथुविज्ञानमनन्तसुखदं स्तुवे नाभिभूतश्चतुर्वक्त्रो हंसगामी प्रजापतिः । सदा ब्रह्माऽसि धातेव प्रभो ! चित्रमराजसः ॥ ५ ॥ ॥ १॥ ॥२॥ ४ त्यक्तराज्यरमाऽऽराम - हे दूरीकृत राज्य - स्त्री - उपवन । नीरज: = हे निर्गतकर्ममल । स्रस्तभावद्विषज्जात - हे नष्टआन्तखैरिसमूह | प्रदातस्नेहबन्धन=हे छिन्नमोहन्थे । [ २४ ] २ अस्मिन् श्लोके ब्रह्माणं श्रीअनन्तजिनं चोपलक्ष्य कविना श्लेषो विहितोऽस्ति । ब्रह्मपक्षे - ब्रह्मा नाभिसम्भवः, चतुर्मखः, हंसवाहनः, प्रजापतिः, धाता च प्रतीतः । श्रीअनन्तजिनपक्षे - श्री अनन्तजिनः नाभिभूतः = केनापि न पराभूतः, चतुर्वक्त्रः= देशनावासरे समवसरणस्थितस्य जिनवरस्य प्रत्येकदिशमाश्रित्य चत्वारि मुखानि दृश्यन्ते, हंसगामी = हंसवत्सुगमनः, प्रजापतिः= लोकस्वामी, धाता=संसारपतीतानां जन्तूनां धारकः । हे प्रभो त्वं ब्रह्मसदृशैरेतैर्विशेषणैर्युक्तः सन् सदा ब्रह्मेव, तथापि त्वं राजसः= रजोगुणयुक्तो न इति खलु चित्रं आश्चर्यकारकम् ब्रह्मा तु रजोगुणयुतः मन्यते । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अरिष्टनरकच्छेदी श्रीपतिः पुरुषोत्तमः । चित्रं विष्णुरिवासि त्वमगदो न जनार्दन: ॥३॥ सर्वज्ञो मदनद्वेषी शम्भुरीशो महाव्रती । शङ्करोऽस्ति तदाश्चर्यं नेतर्यदभवो भवान् ॥४॥ ब्रह्मरूपस्त्वमेवासि शङ्करः पुरुषोत्तमः । इति देवत्रयीरूपस्त्वमेव भवने मतः [१५] श्रीधर्मनाथस्तवनम् । धर्मनाथ ! कृपां कुर्याः पततीह भवे मयि । यस्मात् त्वत्सदृशो नान्यः करुणारससागरः ॥१॥ ३ अस्मिन् श्लोके विष्णुमधिकृत्य श्लेषोऽस्ति । विष्णुपक्षे-अरिष्टहा, नरकारिः, श्रीपतिः लक्ष्मीपतिः, पुरुषोत्तमः, जनादनः, गदाभृत्, इति नामभिः विष्णुः प्रसिद्धः । श्रीअनन्तजिनपक्षे-श्रीअनन्तजिनः अरिष्टनरकच्छेदी-उपसर्गस्य नरकस्य च छेत्ता, श्रीपतिःतीर्थकरत्वलक्ष्मीस्वामी, पुरुषोत्तमः समग्रपुरुषवर्गश्रेष्ठः । एतैर्विष्णुसदृशेर्विशेषगैर्युक्तोऽपि त्वं अगदः-गदारहितः, जनार्दनः= जनदुःखकारकश्च न इति चित्रम् । ४ अस्मिन् श्लोके महेशमधिकृत्य श्लेषो वर्तते । महेशपक्षे-सर्वज्ञः, मदनद्वेषी, शम्भुः, ईशः, महाव्रती, शङ्करः, भवः इति महेशनामानि । श्री अनन्तजिनपक्षे-श्रीअनन्तजिनः सर्वज्ञः, मदनद्वेषी कामदेवद्वेष्टा, शम्भुः-सुखास्पद, महाव्रती=महाव्रतधारकः, शङ्करः शान्तिकारकः । नेतः हे नायक, एतैर्महेशसदृशविशेषणेविशिष्टोऽपि भवान् युद्ध अभसामररि लमुनआश्चयम् । Pारसर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्तीह त्वत्समो दाता नास्ति रोरोऽपि मत्समः । अतो मे याचितं देहि देहिव्यूहहितः शिवम् ॥२॥ त्रैलोक्यदुःस्थितोद्धारे त्वमेव कृतसङ्गरः । मत्तुल्यो दुःस्थितो नातो मामुद्धर कृपापर! ॥३॥ भीतत्राणे महान्तो हि तत्परास्तेषु सत्तरः । त्वमेकोऽसि ततो भीतं पाहि मां मोहभूपतेः ॥४॥ आत्मतुल्यमुदारेशाः कुर्वन्ति निजसेवकम् । त्वं सीमा तेषु भृत्योऽहं तवेति जिन ! चिन्तय ॥५॥ [१६] श्रीशान्तिस्तवनम् । शान्तिनाथं जिनं भक्त्या सुरासुरनराचिंतम् । स्तुवे शान्तिकरं शान्तिमन्दिरं मन्दधीरहम् ॥ १॥ शिवश्रीसङ्गदातार हन्तारं जगदापदाम् । भवन्तं को न वन्देत वीतराग ! सचेतनः ॥२॥ [ १५ ] २ रोरः='दरिद्रः' इत्यर्थोऽभिप्रेतो ज्ञायते । देहिव्यूहहितः प्राणिसमू हः हितः । ३ कृतसङ्गरः कृतप्रतिज्ञः । मत्तुल्यः मम सदृशः । ४ 'भीतत्राणे महान्तो हि तत्पराः' इति लोकोक्तिवाक्यम् । सत्तरः-महत्तरः श्रेष्ठः । ५ तेषु त्वं सीमा तेषु-ईशेषु त्वं श्रेष्ठः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधापानं मरौ देशे यथा पुंसोऽतिदुर्लभम् । तथैवाकृतपुण्यस्य दुर्लभो मृगलाञ्छनः । ॥३॥ प्राप्यापि जिन ! निर्दोषं दुष्प्रापं तव शासनम् । प्रमादं कुवते येऽत्र हा तेषामतिमूढता ॥४॥ श्रीशान्ते ! भवतः पाश्वे न याचे शक्रसम्पदम् । वाञ्छामि भवदाज्ञायाः पालनं तु भवे भवे - [१७] श्रीकुन्थुनाथस्तवनम् । कुन्थुनाथ ! जगन्नाथ! सर्वथाऽपाकृथा यथा । मोहमलं तथोपायं कृपया मम दर्शय । त्रिलोकीगञ्जनं वीरं यया शक्त्याऽवधीः स्मरम् । प्रसद्य सत्वरं यच्छ तजये मम तां प्रभो! ॥२॥ चूर्णीकृतानि कर्माणि भवता येन लीलया । तद्धयानं कृपया नाथ! ममापि वितराधुना [१६] ३ मृगलाञ्छनः श्रीशान्तिजिनः, तस्य मृगलाञ्छनत्वात् । ५ पार्श्वे समीपे । शक्रसम्पदं–इन्द्रवैभवम् । [१७] १ अपाकृथाः दूरीकृतवान् । २ त्रिलोकीगञ्जनं लोकत्रयपराभवकारकम् । स्मरम्-कामदेवम् । ३ येन येन ध्यानेन । लोलया-क्रीडामात्रेण । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ शिवश्रीकण्ठशृङ्गारहारतां भगवन्नगाः । यया समतया मे तां कृपां कृत्वा सुलम्भय ॥४॥ यत्सुखं त्वं शिवाऽऽवासे स्वामिन्ननुभवन्नसि । तस्य मे निजभृत्यस्य संविभागं कुरु प्रभो! ॥५। [१८] श्रीअरस्तवनम् । अरनाथ! सदा कुर्यात् तवाऽज्ञोल्लङ्घनं न यः । शीर्षेऽशेषेव तस्याज्ञा मरुताऽपि विधीयते ॥१॥ त्वदाशारहितो देही न सुखं न च सम्पदः । म यशो न च नाकित्वं नापवर्ग समाश्रयेत् ॥२॥ तीर्थसेवा क्षमा ध्यानं दमो दानं दया तपः । सर्व तवाशया हीनं मुक्तये सर्वथा न हि कारारूपनिगोदेषु सततं भवदाशया । घर्जितो दुःखितो दीनोऽनन्तकालं स्थितोऽस्म्यहम् ॥४॥ मयेह भ्रमताऽवापि त्वदाऽऽज्ञा कर्मलाघवात् । तथा कुरु यथा नाथ! स्यात् तस्याः खण्डनं न मे ॥५॥ - - - [१८] १ अशेषेव अशेषा इव-सम्पूर्णा इव । २ देही प्राणी । नाकित्वं देवत्वं । ४ कारारूपनिगोदेषु कारागृहसमनिगोदेषु । ५ अवापि-प्राप्ता । कमलाघवात्-कर्माल्पत्वेन । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] श्रीमल्लिस्तवनम् । मल्ले ! खजिद् ! नमल्लेख ! तारतत्त्वव्रताऽऽरत! सद्भावप्रोल्लसद्भाऽव ! मामनामरमामनाः ॥१॥ भीमारिजिदभीमारिः सर्वदाऽरिद्र ! सर्वदा । लोके शर्मद ! लोकेश ! यामद ! त्वं जयाऽमद ! ॥२॥ नो कोऽपव्यसनोऽकोप! मानवर्जित ! मानवः । माऽराग ! स्तौति मारागवारण ! त्वाऽघवारण ! ॥ ३ ॥ [१९] १ हे खजि-खानि इन्द्रियाणि जयतीति । हे नमल्लेख !=नमन्तो लेखाः देवा यम् । हे तारतत्त्वव्रताऽऽरत ! निर्मलतत्त्वानि यानि व्रतानि तेषु तल्लीन ! । हे सद्भावेषु प्रोल्लसन्ती भा-प्रभा यस्य तत्सम्बुद्धौ हे सद्भावप्रोल्लसद्भ । हे मल्ले, अनामरमामनाः= (त्वं) अनामा या रमा श्रीः तस्यां मनो यस्य एतादृशस्त्वं मां अव-रक्ष । २ भीमारिजि-हे भयङ्कर-रिपु-नाशक ! । हे सर्व-द (सर्व ददातीति) । हे सर्वदा अरि-द्र ! अरीन् द्रवतीति अरिद्र । यामानि= चत्वारि महाव्रतानि ददातीति याम-द । हे अ-मद !=मदरहित, अ-भी-मारिः (त्वं)-गत-भय-मारिः । जय । ३ हे अ-कोप । हे माऽराग !-मायां श्रियां अ-राग । माराऽग वारण ! मारः कामः स एव अगः-वृक्षः तस्य नाशे वारण= हस्तिन् । हे अघ-वारण ! हे पापनाशक। कः अपव्यसनः= व्यसनवर्जितो मानवः त्वा त्वां नो स्तौति ? । । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्याज गुणतत्याऽज ! राजितश्रीदराजित!।। तानामहर ता नाऽऽम सन्म! ते येऽलसन् मते ॥४॥ यामायनिलयामाय ! तारयाऽविप्रतारया । याता तत्त्वधिया तात! सत्तमस्त्वमसत्तमः ॥ ५॥ [२०] श्रीमुनिसुव्रतस्तवनम् । सुव्रतः सुव्रतस्वामिन् ! परमाऽपरमानहृत् । कमलाः कमलास्य ! त्वं देहि नो देहिनो हितः ॥ १ ॥ .४ हे अज ! जन्म-रहित । हे गुणतत्या राजितश्री: ! गुणविस्तारेण विभूषितश्रीः । हे दराजित !दरैर्भयैः अजित । हे आमहर!= रोगहर । हे सन्म !-सती मा श्रीर्यस्य । ते-तव, मते-धर्मे, ये (जीवाः) अलसन्, तान् ता-पुण्यं ( आमेत्यङ्ग कारेऽव्ययम् ) न तत्याज । ('ता'शब्दः पुण्यवाची शब्दस्तोममहानिधौ अस्ति ।) ५ हे आय-निलय !=(आयो लाभः) हे लाभगृह । हे अ-माय ! माया-रहित । हे असत्तमः=न विद्यते तमोऽज्ञानं यस्य तत्संबोधने । हे तात ! । तारया=निमलया । अ-विप्रतारया अशठया । तत्त्वधिया । यां ( 'गतिम्' इत्यध्याहारः) याता= गमिष्यति । जनः, ('सः' इत्यध्याहारः ) त्वम् । सत्तमः= सत्सु श्रेष्ठः । [२०] हे सुव्रतस्वामिन् । हे परम श्रेष्ठ । हे अपर-मान-हृत्-हे परमानहारक । हे कमलाऽऽस्य हे कमलानन । सुव्रतः, देहिनो हितः त्वं नः अस्माकं कमलाः श्रियः देहि । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमनाः सुमनास्त्वत्तोऽसमवासमवाप्नुयात् । भासुरा भासुरााहिपद्मतोऽपद्मतोऽमृते सदयं सदयं न त्वा महतामहता रमा । न मता नमता लेभे सकला सकला प्रभो! ॥३॥ तरणे! तरणे! भासा भवतो भवतोयधौ । न यते ! नयतेऽर्चा कोऽमदनाऽमद ! ना पदौ ॥ ४ ॥ वसु धाव सुधाभूतसमताऽसमतासमम् । रणवारणवागस्य सत्वरं सत्त्वरङ्ग मे ॥ ५ ॥ २ भासुरा सुमनाः पुष्पं भासुराच्याहिपद्मतः वीरार्चनीयचरणकमलात् त्वत्तः ( सकाशात् ) सुमनाः देवता सती. अपद्मतः श्रीरहितस्थानात्, अमृते (स्थाने) असम-वासं-अतुल्यवासं, अवाप्नुयात् । [ तव पूजनाय तव चरणे समर्पितं पुष्पमपि सुगतिं प्राप्नोति, इति भावः ] ३ स-दयं दयायुक्तं, सद्अयं-सन् अयः शुभप्राक्तनकम यस्य तं, त्वा त्वां नमता जनेन । महतां मता-महद्भिर्ज्ञाता, अहता-अप्रतिबद्धा, सकला-संपूर्णा, स-कला-कलायुक्ता रमा न न लेभे=अपि तु लेभे एव-प्राप्तैव । ४ हे भव-तोयधौ-संसार-सागरे, तरणे ! नौके !, हे भासा तरणे != तेजसा सूर्य !, हे यते !-मुने, हे अमदन ! हे कामरहित !, हे अमद !-मद-रहित ! को ना-जनः, भवतः तव पदौ-पादौ अर्चा-पूजां न नयते? ५ हे सुधाभूतसमत! अमृततुल्या समता-साम्यं यस्य तस्य सम्बुद्धौ, हे रणवारण-वाग ! युद्धविनाशकवचन !, हे सत्त्व-रङ्ग ! अस्य Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ [२१] श्रीनमिस्तवनम् । नमिदेवं गुणाssकारं संनतामरमण्डलम् । विनमामि रसाधारं भवसागरतारणम् विमलं कमलाकेलिमन्दिरं वसुसुन्दरम् । वन्देऽहं सादरं देव ! पदतामरसं तव भूरिमायारसासीर ! हेमकाय ! तमोहर ! | महामोहमहानागकण्ठीरव ! चिरं जय नीराग ! निरहङ्कार ! निरपाय ! निरामय ! कामं समीहीतं देहि देव ! मे जनताहित ! दमदानदद्यासारतारमागमसागरम् ! ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ बहुमायारूपपृथ्वीदारणे ॥ ३ ॥ सेवे गममणिवारदं कुलं विपुलं तव ॥ ५ ॥ मे वसु=शुष्कं, असम - तामसं = अनन्यसदृशम् अज्ञानं सत्वरं= शीघ्रं धाव = प्रक्षालय । आगमसागरम् = आगमरूपसमुद्रम् । वारं = समूहं ददाति । ॥ ४ ॥ [ २१ ] १ गुणाऽऽकारं = गुणाकृतिम् । संनतामरमण्डलं = नतदेवसमूहम् । २ कमलाकेलिमन्दिरं - तीर्थ करत्वलक्ष्मीक्रीडास्थानम् 1 वसुसुन्दरं= प्रभाभास्वरम् । पदतामरसं = चरणकलम् । ३ भूरि- माया - रसा - सीर - हे हलतुल्य महामोहमद्दानागकण्ठीरव हे महामोहरूप ऐरावणनाशने सिंहतुल्य | ४ समीहितं = इच्छितम् । जनताहित - हे लोककल्याणकृत् । ५ दम - दान - दयासारतारं -- दम - दान - दयानां सारेण मनोहरम् । गममणिवारदं=बोधरूपमणीनां Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ [२२] श्री नेमिस्तवनम् । नेमिनाथ ! त्वया विश्वं निमजद् भवसागरे । अनाथं दुःखितं मत्वाऽऽवि ज्ञातसमवस्तुना ॥१॥ प्रभो ! मदतमोमायालोभकोपभयोज्झितः । मम त्राणाय मोहारेरुदासीनस्त्वमन्वहम् ॥२॥ दृढानामपि निर्मूलोन्मूलनं कर्मशाखिनाम् । लोलयाऽकृत कन्दपंदर्पनाश! जवाद् भवान् ॥३॥ त्वयि यस्तनुते भक्तिं शश्वद् देही शमालय !। भवभीतिहर ! त्रातस्तस्य शस्यसुख विभो! ॥४॥ नाऽऽत मोहं ससार श्रीदायकं जिननायकम् । दुगतिं त्वामरं नत्वा मदनाऽशमवर्जितः [२२] १ आवि-रक्षितम् । ज्ञातसमवस्तुना ज्ञातसमस्तपदार्थेन । ४ शश्वत्-नित्यम् । त्रातः हे रक्षक । ५ श्रीदायकं जिननायकं त्वां नत्वा, मदनाऽशमवर्जितः काम-क्रोधवर्जितः सन् (मनुष्यः), अरं शीघ्रं मोहं न आत प्राप (अतसातत्यगमने प्रापणे च) न दुर्गतिं ससार जगाम । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ [ २३ ] श्रीपार्श्वस्तवनम् । पाश्वेन नाऽऽवि को यक्षपार्श्वेन नतविघ्नतः । पार्श्वेन भीवने रम्यपार्श्वेनाऽभात् त्वया जगत् ॥ १ ॥ वामेय ! शिवपूर्मार्गे वामे यस्त्वयि संनतः । वामेय ! तं नरं सद्योऽवामेयगुण ! विघ्नतः ॥ २ ॥ भावतस्तव यो ज्ञातभाव ! तत्त्वरत ! क्रमौ । भावतः स्तौति तं रक्षाऽभावतस्तापतः क्षणात् ॥ ३ ॥ [ २३ ] १ यक्षपार्श्वेन पार्श्वेन = पार्श्वप्रभुणा भीवने - भयकान्तारे पार्श्वेन - पशुसमूहतुल्येन नतविघ्नतः = उपस्थितविघ्नेभ्यः को नाऽऽवि=न रक्षितः ? रम्यं पार्श्व पार्श्वास्थि यस्य तेन त्वया जगत् अभात् = प्रकाशते स्म । २ हे वामेय ! =वामासूनो !, वामे = प्रतिकूले शिवपूर्मार्गे मुक्तिनगरीवर्त्मनि यः त्वयि संनतः, हे वैः = कल्याणैः (व शब्दः कल्याणवाची कोशे) अमेय = मातुमशक्य !, हे अमेयगुण तं नरं सद्यो विघ्नतः अव= रक्ष | ३ हे ज्ञात-भाव, हे तत्त्व - रत ! भा-वतः = दीप्तिमतः तव क्रमौ= चरणौ यो भावत = श्रद्धया स्तौति तं अभावतः = ज्ञानादीनां योऽभावस्तस्मात्, तापतश्च क्षणाद् रक्ष Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्तारङ्गादहोऽमोह ! कां तार न प्रजामपाः । कान्तारं कस्य चारित्रकान्तारं नाकृथाः प्रियम् ॥४॥ महानन्दप्रदा' भातु महानन्द ! तवाऽश्रिते। महानन्दरमा भूरिमहानन्दसुरागिताम् [२४] श्रीवीरस्तवनम् । वर्द्धमानजिनेश ! श्रीवर्द्धमान ! न मुक्तये । कामरागसुधीरत्वाऽकामराग! प्रजाऽस्तु ते ॥१॥ ४ हे अमोह ! (-'अहो' इत्यव्ययपश्चादकारलोपः यमककाव्ये क्षन्तव्यः) । कान्ता-रङ्गात्-प्रियास्नेहात् कां प्रजां तारम् उच्चैः न अपाः पासि स्म । हे कान्त ! सुन्दर ! कस्य चारित्रकान्तारं व्रतवनं त्वं प्रियं नाऽकृथाः करोषि स्म ? ॥ ५ हे महानन्द ! भूरि-महानन्द-सु-रागितां प्रचुर-उत्सवानन्दानु राग, आश्रिते जने तव महानन्दरमा मुक्तिश्रीः महानन्दप्रदा प्रकाशसुखदायिका भातु । [२४] १ हे वर्धमानजिनेश ! हे श्री-वर्धमान ! [श्रिया वर्धितुं शीलं यस्य ], हे अ-कामराग-काम-रागवर्जित !, कामराग-सुधीरत्वा ' =कामरागे सुष्ठु धैर्य यस्याः (कामरागपरायणा इत्यर्थः), एतादृशी ते प्रजा न मुक्तयेऽस्तु । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापदावपयोनाथ ! पापदाव ! रमास्पद !। भवतारण ! को नाऽऽवि भवता रणदुर्गतेः ॥२॥ तारतार ! भवाम्भोधितारतारमया श्रिता। जनता या मदध्वंसेऽज नता याऽमद ! त्वयि ॥३॥ हतमोह ! निरस्ताऽऽरेह तमोह ! कदाचन । मा या मम हृदो विवेऽमायाऽमम ! जिनोत्तम ! ॥४। क्षमादरमिताऽनीते ! क्षमाऽदर तमाश्रयेत् । मा नवस्तवमानन्दाद् मानवस्तव यो व्यधात् ॥५॥ २ हे पाप-दाव-पयोनाथ ! हे पापरूप-दावानलस्य शमने समुद्र तुल्य !, हे पाप-दाव ! हे पापस्य दहने दावानलसम !, हे रमास्पद-श्रीस्थान !, हे भवतारण ! भवता रण-दुर्गतेः को (जनः) न आविरक्षितः ? । ३ हे तार-तार ! उच्चैस्तारक !, हे अज अजन्मन् !, हे अ-मद !, मद-ध्वंसे त्वयि या जनता-जनसमूहः, नता (सा) भवाम्भोधितारता-रमया भवसागर-तारकत्व-श्रिया त्रिता । ४ हे हतमोह ! हे निरस्ताऽऽर !=(अरीणां समूहः आरम् ) अपा कृतरिपुसमूह ! हे तमोह ! हे अ-माय, हे अ-मम !, हे जिनोत्तम ! इह विश्वे (त्वं) कदाचन मम हृदो-हृदयात् मा याः न गच्छेः । ५ हे क्षमादरमित !=क्षमया आदरम् इत-गत प्राप्त ! हे अनीते ! । , न सन्ति ईतयो यस्मात् तत्संबुद्धौ हे अनीते !, हे क्षम != , समर्थ ! हे अदर निर्भय ! यो मानव आनन्दात् तव नव__ स्तवं-नवीनं स्तोत्रं व्यधात् तं मा श्रीः आश्रयेत् । Page #39 --------------------------------------------------------------------------  Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ये त्वां पश्यन्ति ते धन्यास्ते श्लाघ्याः पूजयन्ति ये । ने दक्षा ये निषेवन्ति नरा: सीमन्धरप्रभो ! ॥ २ ॥ त जनरकोकावलीहेलिराधिव्याधितमोहरः । हृतमोहल्पितकल्पद्रुश्चिरं जीया जिनोत्तम ! माया म कान्तारेऽनङ्गरागादितस्करैः । क्षमादरमितमानं मां रक्ष रक्ष दयानिधे ! मा नवस्तवमा• प्रोगैरलं मन्त्रैरलं गजैः । २ हे पाप - दाव-पये तुल्य !, हे पाप-दाद रमास्पद=श्रीस्थान !, हे' विंशतिजिनस्तवनम् । ( जनः ) न आवि = रक्षितः : ३ हे तार-तार !=उच्चैस्तारक !, मद-ध्वंसे त्वयि या जनता-जनरजनेश्वरम् । तारता-रमया=भवसागर - तारकत्व - श्रिय ! शासनं तेऽस्तु मेऽनिशम् ॥ ५ ॥ म् ४ हे हतमोह ! हे निरस्ताssर ! = ( अरीणां कृतरिपुसमूह ! हे तमोह ! हे अ-माय, हे त्तम ! इह विश्वे ( त्वं ) कदाचन मम हृदो = हृ न गच्छेः । ॥ ३ ॥ - 1.5 ५५ हे क्षमादरमित ! =क्षमया आदरम् इत= गत = प्राप्त ! हे न सन्ति ईतयो यस्मात् तत्संबुद्धौ हे अनीते !, हे समर्थ ! हे अदर ! = निर्भय ! यो मानव स्तवं नवीनं स्तोत्रं व्यधात् तं मा= श्रीः ॥ ४॥ ( सूर्योदये चक्र ति प्रतीतम्) आश्रयेत् । ॥ १ ॥ आनन्दात् तव न Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजातं नौमि सजातं स्वयंप्रभं रविप्रभम् । वृषभाननमानौम्यनन्तवीर्य जिनोत्तमम् विशालं श्रीलतासारं सूरप्रभं जगत्प्रभुम् । वज्रधरं धराधारं नुत चन्द्राननं जिनम् ॥४॥ चन्द्रबाहु लसद्बाहुं भुजङ्गं भुवनाधिपम् । ईश्वरं श्रीश्वराराध्यं नेमिप्रभप्रभुं स्तुमः वीरसेनजिनो जीयान्महाभद्रः सुभद्रकृत् । २० चिरं देवयशोदेवोऽजितवीर्यो जिताहितः [२८] श्रीसप्ततिशतजिनस्तवनम् । षष्ट्या युतं शतं वन्दे जिनानां ज्ञानशालिनाम् । मुदा सर्वविदेहान्तमहाविजयसम्भवम् ॥५॥ २ सज्जातं सजन्म यस्य तम् ।। ३ श्रीलता-आसारं लक्ष्मीरूपलतायाः विकासे वेगवतीवर्षासमम् [ आसारः वेगवान् वर्षः ] । धराधारं विश्वाधारम् । ५ सुभद्रकृत्-सुकल्याणकर्ता । जिताहितः दूरीकृतामङ्गलः । [२८] १ अस्मिन् श्लोके कविना जिनानां-तीर्थकराणां षष्ट्यधिकमेकशतं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतैरवतोद्भूताः पञ्च पञ्च जिनोत्तमाः । जयन्तु जगदानन्दकारिणः पापवारिणः ॥२॥ नमतोत्कृष्टकाले श्रीनिदानं वन्द्यमहताम् ।। समस्तक्षेत्रजातानां सप्तत्या सयुतं शतम् ॥३॥ प्रसीदन्तु सदा मह्यं जिनाः! मुक्तिप्रदानतः । किं कल्पपादपाः क्वापि प्राप्ताः प्रयान्ति मोघताम् ॥ ४॥ (१६०) वन्दितं तद्यथा-अस्मिन्--जम्बूद्वीप २ धातकीखण्ड ३ अर्द्धपुष्करावर्त्त—इत्यभिधे सार्द्धद्वयद्वीपे विदेहानां पञ्चकमभिमतं यथा-एको जम्बूद्वीपे द्वीपे, द्वौ धातकीखण्डे द्वीपे, द्वौ च अर्द्धपुष्करावर्त द्वीपे । एकस्मिन् एकस्मिन् विदेहे च द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशद् विजयाः महाविजया वा, इति पञ्चविदेहान्तर्गता षष्ट्यधिकमेकशतं (१६०) विजयाः सञ्जाताः । प्रतिविजयं च एक एको जिनेश्वर इति कृत्वा जिनानां षष्ट्यधिकमेकशतमवसेयम् । २ अस्मिन् श्लोके पञ्चभरतक्षेत्रसम्भवाः पञ्च जिनेश्वराः, पञ्च ऐरवतक्षेत्रसम्भवाश्च पञ्च जिनेश्वराः इति जिनानां दशकं नमस्कृतम् । भरतक्षेत्राणां पञ्चकं ऐरवतक्षेत्राणां पञ्चकं च सार्द्धद्वयद्वीपे विदेहानां पञ्चकवदवबोधव्यम् । ३ उत्कृष्टकाले उत्कृष्टत्वेन एककालावच्छेदेन जिनवराणां सप्तत्या संयुतं शतं (१७०) भवति, नातोऽधिकं कदापि सम्भवति । श्रीनिदानं श्रीकारणं श्रीसम्भवम् । ४ कल्पपादपाः कल्पवृक्षाः । मोघतां व्यर्थतां निष्फलताम् । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४१ मुक्तिश्रीसङ्गमोत्कोऽहं शतं सप्ततिसंयुतम् । रक्ताङ्कतालमेघेशस्वर्णवर्णान् स्तुवेऽर्हतः [२९] श्रीत्रिकालजिनस्तवनम् । येऽतीता वर्तमाना ये भाविनो ये महोतले । सर्वे श्रीजिनपाः पान्तु माममी भववारिधेः तदीयो गोष्पदीभूयादपारो भवसागरः । वसन्ति मानसे येषां जिना हंसा इवानिशम् ॥२॥ संसारकुहरे पातो भविता न कदाचन । तेषामाहतपादानां ये सदा भक्तिकारिणः ॥३॥ भवनीरधिशोषस्तैरकारि तरसा ध्रुवम् । एकशोऽपि जिना येषां दृष्टिगोचरमाश्रिताः ॥४॥ संसारकूपगे श्वः जना दीप्रनखांशवः । भवन्तु पततो रज्जुवदालम्बनदा मम । ५ मुक्ति-श्री-सङ्गमोत्कः मोक्ष-लक्ष्मी-मीलनोत्सुकः । रक्ताङ्क-ताल -मेघेश-स्वर्णवर्णान् प्रवाल-हरिताल-मेघ-काञ्चनवर्णान्, रक्तपीत-नील-काञ्चनवर्ण-वत्त्वा-त् जिनेश्वरशरीराणाम् । [२९ ] १ जिनपा:-जिनाः । भववारिधेः संसारसमुद्रात् । २ तदीयः तेषाम् । गोष्पदीभूयात्-पल्वलमिवाचरेत् । ३ संसारकुहरे-भवरूपबिले । पातो-पतनम् । . ४ तरसा वेगेन । एकशः एकदा ।। ५ श्वश्रे-नरके । जैना: जिनेश्वरसम्बन्धिन: जिनेश्वराणाम् । दीप्त. नखांशवः दीप्तिमन्तो नखकिरणाः । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ [३०] श्रीशाश्वतजिनस्तवनम् । शाश्वतं तीर्थनाथानां त्रिसन्ध्यं नौमि भावतः । चक्रवालं भवव्यालं हन्तुं शाश्वतशर्मदम् तारामण्डलमध्ये याः सन्ति यास्ताविषस्थिताः । पातालाभरणीभूता याः सन्ति सर्वकामदाः द्वीपे नन्दीश्वरे मेरुनगेषु रुचकादिषु ।। वैताढयेषु धरारामाकर्णकुण्डलकुण्डले याः स्थिताः सर्वदा जैनीः शाश्वतीः प्रतिमा मुदा। श्रुतानुसारतः स्मारं स्मारं ध्यायामि ताः सदा ॥४॥ ( त्रिभिर्विशेषकम् ) नाम्ना श्रीऋषभो देवो वर्द्धमानो जिनेश्वरः । . चन्द्राननजगन्नाथो वारिषेणजिनः श्रिये चम्नान श्रीकनभो देबोरबळमानो जिनेश्वरः [३०] १ तीर्थनाथानां शाश्वतशर्मदं अक्षयसुखदायकं, शाश्वत-निरन्तरभावि, चक्रवालं समूह, त्रिसन्ध्वं भावतो नौमि । भवव्यालं-भवरूप दुष्टगजम् । २ ताविषस्थिताः स्वर्गस्थिताः । ५ ऋषभदेवः, वर्द्धमानः, चन्द्राननो वारिषेणश्चेति चत्वारो जिनाः शाश्वता मताः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ [३१] श्रीशाश्वताशाश्वतजिनस्तवनम् । नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैः पुनतस्त्रिजगज्जनम् । शाश्वताशाश्वतानाप्तानहतः स्तुतिमानये ॥१॥ यत्र क्षेत्रे च देशे च काले च सम्भवोऽहताम् । तत्र ते स्वामिनः सर्वे जयन्तु जयकारिणः ॥२॥ क्षेत्राणि तानि शस्यानि ते देशाः शुभशालिनः। स कालोऽपि पवित्रश्च यत्र तीर्थकृतां जनुः ॥३॥ सफलं मानुषं जन्म तेषां ये जिनसेवकाः । श्रीः शुभा सैव या जैनसद्मादौ व्ययमायते ॥४॥ सर्वे तीर्थकृतोऽशेषसम्पदानन्ददायिनः । तिष्ठन्तु सर्वदा चित्ते मदीये मदवर्जिते [३२] श्रीशत्रुञ्जयस्तवनम् । आदिनाथ ! जगन्नाथ ! विमलाचलमण्डनः । जय नाभिकुलाऽकाशप्रकाशनदिवाकर ! ॥१॥ [३१] १ नामाऽऽकृतिद्रव्यभावः नाम-स्थापना-द्रब्य-भावाभिधैः चतुर्भिः निक्षेपैः । पुनतः पावयतः । ३ शस्यानि=श्लायानि । जनुः जन्म । ४ जैनसद्मादौ जिनप्रासादादौ । ५ मदीये मम । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ तव देव ! पदाम्भोजसेवाऽति दुर्लभा भवे। पुण्यसम्भारहीनानां कल्पवल्लीव देहिनाम् ते धन्या मानवा देवा यैरापि तव शासनम् । वन्दनीया विभो ! ते ये वन्दन्ते भवतः पदौ ॥३॥ प्रचण्डतमरागादिरिपुसन्ततिघातकम् । श्रीयुगादिजिनाधीशं देवं वन्दे मुदा सदा ॥४॥ श्रीशत्रुञ्जयकोटीर ! कृतं राज्यश्रिया प्रभो!। सर्वाघनाशनं मेऽस्तु शासनं ते भवे भवे [३३] श्रीगिरिनारस्तवनम् । श्रीउज्जयन्तशैलेशतुङ्गशृङ्गविभूषणः ।। श्रीमन् ! नेमिजिनाधीश! जय श्रीकेलिमन्दिर ! ॥१॥ दृष्टः पुण्येन येन त्वं दुर्लभोऽपि मया भवे। 'दर्शनेन स्वकीयेन तत् पुषाण ममाधुना ॥२॥ [३२] ३ आपि प्राप्तम् । ४ प्रचण्डतम-रागादि-रिपु-सन्तति-घातकं-घोरतम-रागद्वेषादिरूप वैरि-समूह-नाशकम् । मुदा-हर्षेण । ५ श्रीशत्रुञ्जयकोटीर हे श्रीशत्रुञ्जयमुकुट । कृतं अलम् (न मे प्रयोजनमिति भावः ) । सर्वाघनाशनं समग्रपापनाशकम् । [३३] २ तत्-तस्मात् कारणात् । 'ममाधुना' इत्यत्रस्थाने 'मामधुना' Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्दर्पमत्तमातङ्गघातसिंहोपमाय ते । नमोऽस्तु जगदानन्दकारिणेऽधनिवारिणे ॥३॥ त्वं माता त्वं पिता देव! त्वं दाता जगदीश ! मे। भवाम्भोधौ पतन्तं मां पाहि पाहि कृपानिधे! ॥४॥ सृतं देवतया देव ! सृतं मानुषकैः सुखैः । श्रीनेमे ! सतत मेऽस्तु सुलभं तव दशनम् ॥५॥ [३४] श्रीअर्बुदाद्रिस्तवनम् । अर्बुदाद्रौ युगादीशं रिरीमूर्तियुतं स्तुमः । नेमिं च प्रतिमाः सर्वाः प्रासादत्रयसंश्रिताः ॥१॥ धन्योऽसौ विमलो मन्त्री वस्तुपालोऽपि मन्त्रिराट् । यद्धर्मकीर्तने स्थाने इदृशे विषमे गिरौ इति पदं शुद्ध ज्ञायते, 'पुष्' धातोः सकर्मकत्वात्, 'माम्' इति पदं कर्मद्योतकं भवति ।। ४ ते-तुभ्यम् । अघनिवारिणे पापनिवारिणे । ५ सृतं गतम् (अत्र 'सृतं ' इति पदस्य ' अलं ' 'कृतं' इत्यादि पदेन सूचितः ‘न मे प्रयोजनं ' इति भावदर्शकोऽर्थो कवीप्सितो ज्ञायते) देवतया देवत्वेन । [३४] १ रिरीमूर्तियुत पित्तलमयमूर्तिसहितम् । . . २ पद्मा लक्ष्मीः । कलावपि कलियुगेऽपि । . . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लाघ्यौ नरोत्तमावेतौ ययोः पद्मा कलावपि । प्रासादप्रतिमाद्यथ प्रशस्यव्ययमाश्रयत् ॥३॥ युग्मम् ॥ ऋषभाद्या जिनाः सर्वे विरहं निजपादयोः । मम मा ददतामीशाः सेवके कृतवत्सलाः अर्बुदोऽयं नगाधीशो जीयाचिरमिलातले । प्रासादों समैजैनैरभ्रंलिहैः पवित्रितः [३५] श्रीस्तम्भनजिनस्तवनम् । स्तुवे श्रीस्तम्भनाम्भोजराजहंससमं जिनम् । श्रीपार्श्वमिष्टदं सर्वविघ्नसंघातघातकम् श्रीदश्चिन्तामणिः कल्पपादपः कामदोऽघटः । न दाता त्वत्समो मुक्तिचङ्गथीसङ्गकारक! ॥२॥ न रोगो न च संमोहो न शोको न च साध्वसम् ।। न दुःखं न च दारिद्रयमलं स्थातुं नते त्वयि ॥३॥ तव प्रभावतः स्वामिन् ! कलिकालो विनश्वरः । जज्ञे कृतयुगाश्लेष इव लोकोऽपि वभवात् ॥४॥ ५ इलातले पृथ्वीतले । अभ्रंलिहै: गगनचुम्बिभिः । [३५] २ श्रीदः-लक्ष्मीदायकः । अघटः-मर्यादारहितः प्रतिबंधरहितः (घटः मर्यादा) । मुक्तिचङ्गश्रीसङ्गकारक हे मुक्तिरूपसुन्दरश्रीसङ्गकारक (चङ्ग-सुन्दर इति देश्यशब्दः) ३ साध्वसम् भयः । अलं=समर्थम् । ४ कृतयुगा लेषः सत्ययुगसम्बन्धः । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय श्रीस्तम्भनाधीश! श्रीपार्च ! पुरुषोत्तम !। चूरयन्नघसंघातं पूरयन् नरवाञ्छितम् [३६] श्रीअष्टापदस्तवनम् । अष्टापदनगोत्सान् वृषभादिजिनेश्वरान् । मानवर्णजुषो वन्दे चतुर्विशतिमादरात् . अहो भाग्यमहो पुण्यं तेषामद्भुतमङ्गिनाम् । येषामष्टापदे देवान् नन्तुं शक्तिः पटीयसी ॥२॥ धन्योऽसौ भरतश्चक्री सौवर्ण जिनमन्दिरम् । गिरावष्टापदे येन कारितं प्रतिमान्वितम् इहस्था अपि ये तत्र धृत्वा चित्ते जिनोत्तमान् ।। वन्दन्ते सर्वदा तेषां मुक्तिश्रीर्वशवर्तिनी ॥४॥ एवं भक्त्या स्तुता मां जिनेन्द्रा ऋषभादयः । बोधिलाभं प्रयच्छन्तु संसारे तिष्टते सदा ॥५॥ [३७] श्रीसंमेतजिनस्ततनम् । यस्मिन्नजितनाथादिपान्तिा विंशतिर्जिनाः । सिद्धाः संमेतशलाख्यं तीर्थ तं नौमि भक्तितः ॥१॥ [३६] १ मानवर्णजुषः देहमानदेहवर्णयुक्तान् [अष्टापदे चतुर्विंशतिजिन वराणां देहप्रमाणयुक्ता देहवर्णवत्यश्च प्रतिमा वर्तन्ते] . २ अङ्गिनाम् जीवानाम् । ५ बोधिलाभं सम्यग्दर्शनम् । तिष्ठते-स्थिताय । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ॥२॥ दातारः शिवसौख्यानां त्रातारो जगतामिनाः । संमेतगिरिशृङ्गाराः पान्तु वो भवतो जिनाः शैलोऽयं शिखरोऽशेषनगानां सपरिच्छदाः । यत्रानशनमादाय जिनेशा लेभिरे शिवम् दूरस्थेनापि येनेदं वन्द्यते भावतोऽनिशम् । तीर्थ शक्रार्चितं तेन प्राप्यते परमं पदम् भावतो वन्दिता भव्यैः सर्वज्ञा अजितादयः । कैवल्यं ददतां सर्वे सर्वदा सर्वदर्शिनः ॥४॥ संस्कृत-प्राचीन-स्तवन-सन्दोहः समाप्तः [३७] २ इनाः-स्वामिनः । वो-युष्मान् । ३ सपरिच्छदाः सपरिवाराः । ४ भावतो श्रद्धापूर्वकम् । शक्रार्चित इन्द्रपूजितम् । टिप्पनिका–पञ्चपत्रात्मकैकहस्तलिखितप्रतित: लिपीकृतानि अस्मिन् पुस्तके च मुद्रितानि सप्तत्रिंशत्संख्यकानि (३७) सर्वाण्यपि स्तवनानि अनुष्टुबवृत्तनिबद्धानि पञ्चश्लोकात्मकानि च वर्तन्ते, अत एतानि एककर्तृकाणि अनुमीयन्ते । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm m mm ३ . 4 4141414141414141419 अनुक्रमणिका RRE पृष्ठम् पृष्ठम् श्रीऋषभस्तवनम् '१३ श्रीमुनिसुव्रतस्तवनम् श्रीअजितस्तवनम् १४ श्रीनमिस्तवनम् श्रीसम्भवस्तवनम् . १५ श्रीनेमिस्तवनम् श्रीअभिनन्दनस्तवनम् १६ श्रीपार्श्वस्तवनम् श्रीसुमतिस्तवनम् १७ श्रीवीरस्तवनम् । श्रीपद्मप्रभस्तवनम् १८ श्रीसाधारणजिनस्तवनम् श्रीसुपार्श्वस्तवनम् '१९ श्रीसीमन्धरस्तवनम् श्रीचन्द्रप्रभस्तवनम् १९ श्रीविंशतिजिनस्तवनम् ३८ श्रीसुविधिस्तवनम् २० श्रीसप्ततिशतजिनस्तवनम् ३९ श्रीशीतलस्तवनम् २१ श्रीत्रिकालजिनस्तवनम् श्रीश्रेयांसस्तवनम् २२ श्रीशाश्वतजिनस्तवनम् ४२. श्रीवासुपूज्यस्तवनन् २२ श्रीशाश्वताशाश्वतजिनस्तवनम्४३ श्रीविमलस्तवनम् २३ श्रीशत्रुञ्जयस्तवनम् श्रीअनन्तस्तवनम् । २४ श्रीगिरिनारस्तवनम् ४४ श्रीधर्मस्तवनम् २५ श्रीअर्बुदाद्रिस्तवनम् श्रीशान्तिस्तवनम् २६ श्रीस्तम्भनजिनस्तवनम् श्रीकुन्थुस्तंवनम् '२५ श्रीअष्टापदस्तवनम् श्रीअरस्तवनम् : २८ श्रीसमेतजिनस्तवनम् श्रीमल्लिस्तवनम् ४१. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م م ه ه ه ل ع م ع * शुद्धिपत्रकम् अशुद्धं सुकती सुकृती कल्पद्र कल्पद्रु स्था द् स्थाद् स्वदशा स्वदृशा प्राक्कम प्राकर्म अकृत्रिमाम अकृत्रिमाम् श्रष्ठ श्रेष्ठ विश्वा- विश्वो -यषां -येषां जनादन जनार्दन -विशेषण ___-विशेषण सुख नापवग नापवर्ग सव सर्व कम-कम -कर्म दहा दहो मोत्का मोत्को वर्ण-वत्त्वा-त् वर्णवत्त्वात् लायानि श्लाघ्यानि इदृशे ईदृशे वभवात् वैभवात् -स्ततनम् -स्तवनम् सुखं १२ कर्म Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमारी अंथमाळानां गुजराती पुस्तको १ विजयधर्मसूरि स्वगवास पछी श्री विद्याविजयजी २-८ ६ विजयधर्मसूरिनां वचनकुसुमो १० आबू ( ७५ फोटा साथे ) श्री जयन्तविजयजी २-८ ११ विजयधर्मसूरि धीरजलाल शाह ०-२ १२ श्रावकाचार श्री विद्याविजयजी ०-३ १३ शाणी सुलसा १४ समयने ओळखो भा. २ जो ... , १५ समयने ओळखो भा. १ लो १७ सम्यक्त्व प्रदीप श्री मंगळविजयजी ०-४ १८ विजयधर्मसूरि पूजा ०-४ २० ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन श्री विजयधर्मसूरि ०-४ २२ वक्ता बनो श्री विद्याविजयजी २३ महाकवि शोभन अने तेमनी कृति श्री हिमांशुविजयजी ०३ २४ ब्राह्मणवाडा श्री जयन्तविजयजी ५-४ २५. जैनतत्त्वज्ञान श्री विजयधर्मसूरि ०-४ २६ द्रव्य प्रदीप श्री मंगळविजयजी ० २८ धर्मोपदेश श्री विजयधर्मसूरि २९ सप्तभंगी प्रदीप श्री मंगळविजयजो ०-४ ३२ धर्म प्रदीप ४० आबूलेखसंदोह श्री जयन्तविजयजी ३-. ४५ विद्याविजयजीनां व्याख्यानो श्री विद्याविजयजी ०-८ ४६ श्री हिमांशुविजयजीना लेखो १-८ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी ग्रंथमाला की हिन्दी, सिंधी व अंग्रेजी पुस्तकें । ४ श्रावकाचार श्री विद्याविजयजी ०-४ ५ विजयधर्मसूरि के वचनकुसुम ० -४ ७ सेइंग्झ ऑफ विजयधर्मसूरि डा. कौझे ०-४ (Sayings of Vijay Dharma Suri) ९ विजयधमसूरि अष्टप्रकारी पूजा श्री विद्याविजयजी १६ एन आइडियल मंक-आदर्श साधु ए. जे. सुनावाला ५-० (An Ideal monk) २१ ब्रह्मचर्यदिग्दर्शन विजयधमसूरि ०-४ ३३ मेरी मेवाड यात्रा श्री विद्याविजयजी ०-३ ३४ वक्ता बनो ०-६ ३८ आहिंसा ०-२ ४१ सच्चो राहबर (सिंधी) पार्वती सी. एडवानी. भेट ४२ वीर वंदन (कविता) वीर भक्त ४३ आहंसा (सिंधी) पार्वती सी. एडवानी भेट ४४ फुलनमूठ (सिंधी) भेट ४७ जैनधर्म ___ श्री विद्याविजयजी ०-२ ५० श्री विद्याविजयजीनां व्याख्यानो श्री विद्याविजयजी ०-८ आबू (७५ फौटू के साथ) हिन्दी. श्री जयन्तविजयजी २-८ سے اس Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " उ ना. चुक्त ) " ० " . १ -४ हमारी ग्रंथमाला की संस्कृत पुस्तकें । २ धर्मवियोगमाला श्री हिमांशुविजयजी ३ प्रमाणनयतत्त्वालोक (पं. रामगोपालाचार्यजीकृत टीका युक्त) ८ जयन्त प्रबन्ध (गुजराती भा. युक्त) १९ जैनी सप्तपदार्थों २७ सुभाषितपद्यरत्नाकर भा. १ श्री विशालविजयजी १-४ (गुजराती भा. युक्त) ३० अर्हत् प्रवचन श्री विद्याविजयजी ०-५ (गुजराती भा. युक्त) ३१ सुभाषितपद्यरत्नाकर भा. २ श्री विशालविजयजी १-४ (गुजराती भा. युक्त) ३२ सुभाषितपद्यरत्नाकर भा. ३ (गुजराती भा. युक्त) ३६ श्रीहेमचंद्रवचनामृत श्री जयन्तविजयजी ०-८ (गुजराती भा. युक्त) ३७ श्री पर्वकथासंग्रह श्री हिमांशुविजयजी ०-४ ३९ श्री द्वादशव्रतकथा ४८ सुभाषितपद्यरत्नाकर भा. ५ श्री विशालविजयजी ०-१० (गुजराती भाषान्तर युक्त) ४९ संस्कृत-प्राचीनस्तवनसन्दोह उत्तराध्ययन-कमल श्री जयन्तविजयजी संयमी टीका युक्त भा. ४ प्रत्येक भाग के ३- ८ प्रमाणनयतत्त्वालोक प्रस्तावना श्री हिमांशुविजयजी ०-३ - मिलनेका पता श्रीविजयधर्मसूरि जैन ग्रंथमाला छोटा सराफा, उज्जन (मालवा) 7 III 1 I 1 l ili lilla Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हिमांशुविजयजीना लेखा स्वर्गस्थ मुनि श्री हिमांशुविजयजीए, न्याय व्याकरण साहित्यनी कलकत्ता युनिवर्सिटीनी परीक्षाओ आपीने, पोतानी विद्वत्तानो परिचय जेम जगतने कराव्यो हतो, तेम तेमणे आत्मानंद प्रकाश, जैन धर्म प्रकाश, जैन, जैनज्योति, वीर, प्रभात, जनमित्र, जैन सत्य प्रकाश, गंगा, कौमुदी, प्रजाबंधु, पुस्तकालय, साहित्य, बुद्धिप्रकाश आदि हिन्दी गुजराती एवां अतिप्रसिद्ध पत्रोमां संस्कृत प्राकृत हिंदी गुजरातीभाषामां ऐतिहासिक, साहित्यिक अने शिक्षण संबंधी लेखो लखीने पोतानी संशोधक बुद्धिनो अने साहित्यप्रियतानो परिचय कराव्यो हतो, ए कोईथी अजाण्यु नथी. आ बधाये लगभग ७० जेटला लेखोनो संग्रह बहार पाडवामां आव्यो छे. ऐतिहासिक शोधखोळथी भरेला आ महान् ग्रंथर्नु सम्पादन प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गस्थना गुरु मुनिराजश्री विद्याविजयजी ५ घणीज योग्यता पूर्वक कर्यु छे. ६५० थी ७०० पानानो महान् ग्रंथ, उंचा ग्लेझ कागळो, पाकुं सुंदर बाइन्डींग ए बधुं होवा छतां किंमत मात्र २-०-० राखवामां आवेल छे. आ ग्रंथ श्री हिमांशुविजयजीना स्मारकमां काढवामां आव्यो छे. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभाषित-पद्य-रत्नाकर-भाग पांचमो ... तीथकरो संबंधी अनेक प्रकारनी माहिती, तथा मन्दिरमा प्रभु आगल बोलवा लायक स्तुति श्लोको तथा वेसठ शलाका पुरुषोनी अनेकविध बाबतोना कोठा, श्लोकानुक्रमणिका, प्रस्तावना वगेरेथी सर्वाङ्गसुन्दर प्रत्येक श्लोकना अनुवाद साथे आ ग्रन्थ मुनिराज श्री विशालविजयजी महाराजे तैयार कयों छे. ऊंचा ग्लेझ कागळो, लगभग बसो पृष्ट अने सुंदर गेट-अप साथे बहार पड्यो छे. प्रत्येक जैनोने आ पुस्तक उपयोगी थाय तेवू छे.. . किंमत ०-१०-० हेमचंद्र-वचनामृत आ ग्रन्थ, हेमचन्द्रसूरिए रचेला 'त्रिषष्टि-शलाकापुरुष-चरित्र'ना दश पवमांनां अनेक विषयोनां सुन्दर सूक्तो-कहेवतोनो तारवणो रूप छे. विनोद प्रसंगे के स्वाध्यायमां आवां सूक्तो आनंदजनक बंने छे. इतिहास शांतमूर्ति मुनिराज श्री जयन्तविजयजीर संग्रहीने तेनो गूजराती अनुवाद, विषयवार अनुक्रमणिका, सुन्दर गेट-अप साथे प्रकाशित कराव्यो छे. प्रत्येक मनुष्यने संग्रहवा योग्य आ पुस्तक छे.. श्री विजयधर्मसूरि जैन ग्रन्थमाळा छोटा सराफा, उज्जैन (मालवा) अन्ध, हेमचन्द्रमामांना अनेक विमोद प्रसासन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्बुद प्राचीन जैन लेख संदोह 'आबू' नो आ बीजो भाग देलवाडाना अने अचलगढनां मंदिरोमांना न्हानां मोटा लगभग छसो सातसो जेटला शिलालेखो, तेनां अनुवाद, टिप्पण अने विवेचन साथे बहार पाडवामां आव्या छे. ऐतिहासिक सामग्रीथी भरपुर, मोटो दळरार आ ग्रन्थ छे. एनां लेखक अने संपादक मुनिराज श्री जयन्तविजयजी छे. किंमत 3-0-0 मुनिराजोने व्याख्यानमां वांचवा लायक पत्राकारना बे ग्रंथो 1 पर्व कथा संग्रह, 2 द्वादश व्रत कथा संग्रह .. आ बन्ने ग्रन्थो ऊंचा 60 रतली लेजर पेपर उपर छपाववामां आव्या छे. पत्राकारे छे. संस्कृतनुं साधारण झान धरावनार पण व्याख्यानमां वांचीने श्रोताओने आनंद आपी शके छे, कारण के कथाओ अत्यन्त सरस छे, तेम भाषा पण सरल छे. स्वर्गस्थ विद्वान् मुनि श्री हिमांशुविजयजीए आनुं सम्पादन कर्यु के. बन्नेनी मळीने किंमत बार आना छे.