Book Title: Pratima Mandan Stavan Sangraha
Author(s): Amarvijay
Publisher: Chunilal Chagandas Shah
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥प्रतिमामंडन स्तवनसंग्रहः॥ अनेक महापुरुषों कृत. ॥ संग्रह कर्ता ॥ श्रीमद्विजयानंद सूरिशिष्य मुनि अमरविजय. carछपत्रायके पसिद्ध कर्ता. स्वर्गवासी शा. छगनदास मगनदासके 00 स्मरणार्थे तेमणा पुत्र चुनीलाजी॥ आमलनेरा ( जिल्ला. खानदेश.) अमदावाद. श्री" सत्यविजय" प्रीन्टींग प्रेसमां. शा. सांकळचंद हरीलाले छाप्युं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमातिमा स्थापन प्रथम स्तवन. (३) . ॥ अथ श्रीमद्यशोविजयीकृत ढूंढकशिक्षा ॥ जिन, जिन प्रतिमा,वंदन दीसइ, 'समकितनइ आलावइ । अंग उपासके प्रगट अरथए, मूरख मनमां नावहरे ॥ कुमती का प्रतिमा जथापी, इपतें शुभ मातका पीरे, कुमती. मारग लोपे पापीरे, कुमती का प्रतिमा ऊथापी १॥ एह अरथ 'अवडं अधिकारें, जूमो उमंग ऊबाइ । ए समकितनो मारग मरडी, कहइ दया सी माईरे । कु. । २ ॥ समकित विन सुर दुर गति पाम्यो, अरस विरस आहारी। जूओ जमाली दयाई न तर्यो, हूओ बहुल संसारीरे । कु. । ३ ॥ चारण मुनि जिन प्रतिमा वंदइ, भाषिउं भगवई अंगे । चैत्यसापि आलोयणा भाषी, व्यवहारे मनरंगरे । कु. । ४ ॥ प्रतिमानति फल काउस्सग्गिं, आवश्यकमां भाषिउं। चैत्य अरथ वेयावच मुनिनि, दसमइ अंगिं दाखिउंरे । कु.। ५॥ सूरयाम सुरें प्रतिमा पूजी राय पसेणी मांहिं । समाकित बिन भवजलमां पडतां, दया न साहइ बाहिरे । कु.। ६॥ 'द्रौपदीइं जिन प्रतिमा पूजी, छठइ अंगि वाचइ । तोस्युं एक दया पोकारी, आणाविन तूं माचईरे । कु. ७ ॥ एक जिन प्रतिमा वंदन द्वेषि, सूत्र घणां तूं लोपइं । नंदीमा जे आगम संख्या, ते आप मति का गोपइरे । कु. ८॥ "जिनपूजा फल दानादिक सम, - १॥ अरिहंत चेइयाइं, पाठ, आनंदादिक श्रावकोंका समकितके आलावेमें आता है। देखो नेत्रांजन १ भाग पृष्ट. १०८ में ॥ २ अंबडजीमें भी यही पाठ है । देखो नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट. १०४ से ८ तक ॥ ३ नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट. ११७ से १२१ तक ।। "४ नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट ११० से ११४ तक ।। ५ नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट. १३२ से १३३ तक ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जिनप्रतिमा स्थापन दूसरा स्तवन. महा निशीथई लहीइ । अंध परंपर कुमत वासना, तो किम मनमा बहिइरे । कु. । ९॥ सिद्धारथराइं जिनपूज्या, कल्प सूत्रमा देखो। आणा शुद्ध दया मानि धरतां, मिलइ सूत्रनो लेखोरे । कु. । १० ॥ स्थावर हिंसा जिन पूजामां, जो तूं देखी धूजइ । ते पापीने दूर देशथी, जे तुज आवी पूजइरे । कु. । ११ ॥ पडिक्कमणइ मुनि दान बिहारइ, हिंसा दोष अशेष । लाभालाभ विचारी जोतां, प्रतिमामां स्यो द्वेषरे । कु. । १२ ॥ 'टीका, चूरणी, भाष्य, ऊवेष्यां, ऊबेखी, नियुक्ति । प्रतिमा कारण सूत्र ऊवेष्यां, दूरी रही तुज मुगतीरे । कु. । १३ ॥ शुद्ध परंपर चाली आवी, प्रतिमा वंदन वाणी । संमूर्छिम जे मूढ न मानइ, तेह अदिठ कल्याणी रे । कु. । १४ । जिन प्रतिमा जिन सरषी जाणइ, पंचांगांना जाण । वाचक जस विजय कहइ ते गिरुआ, फिजई तास वषाणरे । कु. । १५ ॥ ॥ इति ढूंढकशिक्षा स्वाध्याय ॥ ॥ अथ दूसरी शिक्षाभी लिखते है ॥ श्रीश्रुतदेवी तणइ सुपसाय,प्रणमी सदगुरु पाया। श्री सिद्धांत तणइ अनुसार इ,सीप कहुं सुखदायारे १॥ कुमति का प्रतिमा ऊथा, मुग्धलोकनइ भ्रमें पाडी, तूंपिंडभरइ कां पापईरे | कु. । २॥ सिद्धांत तणइपदि अक्षर अक्षर, प्रतिमानो अधिकार । तुर्मे जिनप्रतिमा काइ ऊथापो, तो जास्यो नरक मजारिरे । कु. । ३ ॥ द्रव्य पूजानो फल श्रावकनइ, कहिउँछे फल मोटो । पूर्वाचारय प्रतिमा मानी,तो थाह रोमत पोटोरे कु.॥४॥ देशविरतिथी होय देवगति,तिहां प्रतिमा पूजे.. ? देखो नेत्रांजन १ भाग. पृ. १०४. में सें १०८ तकः ।। देखो नेत्रांजन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा स्थापनं दूसरा स्तवन. ( ५ ) वी। ते तो चित्त तुमारें नावें, तो तुमें दूरगति लेवीरें | कु.॥१॥ श्रावक अंबड प्रतिमा वंदें, जूओ सूत्र ऊवाइ | सूत्र अरथना अक्षर मरडो, ए मतियानें किम आईरे । कु. । ६ ॥ जंघाचारणा वैद्याचारण, प्रतिमावंदन चाल्या | अधिकार ए भगवती बोलें, थें मुरख सहु कालारे | कु. |७|| श्रावक आनंदने आलावें, प्रतिमा बंद करजोडी । उपासकें विचारी जोयो, थें कुमतें हियाथी छोडीरे । कु. ॥ ८ ॥ श्री जिनवरना चार निक्षेपा, मानें ते जगसाचा । थापनानें ऊथाप करें, बालबुद्धिनर काचारे । कु. १९ ॥ लबधि प्रयोजन अवधिआव इ, जिमगोचरीइं इरिया । शुद्ध संयम आराधक बोल्या, गुणमणिकेरा दरियारे | कु. | १० ॥ ऋषभादिक जिन 'नाम' लिई शिव, ठवणा, जिन आकारें । इव्य' जिना ते अतीत अनागत, भावें विहरता साररे । कु. ॥११॥ द्रव्य, थापना, जो नवी मानो, तो पोथी मतजालो । भावश्रुत सुखकारण बोलो, तो थाहरो मुखकालोरे | कु. | १२|| जिनमतिमा जिन कहि बोलावें, सूत्र सिद्धांत विचारों | जिनधर, सिद्धायतन, ना कहियां सत्यभाषी गणधारोरे | कु. । १३ ॥ १ भाग. पृ, १०७ से १२१ तक ।। २ नेत्रांजन १ भाग. पृष्ट. ११७ से १२१ तक | ३ ने० १भा. पृष्ट. १०८ में ॥ ४ जो स्थापना, और द्रव्य, निक्षेपको, न माने उनको जैनके सूत्रोंकोभी हाथमें लेना नही चाहियें, कारणकि सूत्रोंमें अक्षरों है सो - स्थापना रूप से है, और सर्व पुस्तक ' द्रव्यनिक्षेपका विषय रूपका है । ५ जिनघर, सिद्धायतन, यह दोनोंभी नाम, वीतरागका मंदिरके ही गणधर भगवानने कहे है | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) जिनमतिमा स्थापन २ स्तवन. 66 "जिनमति प्रत्येकं धूप ऊषेवर द्रौपदी सूरयाभदेवा । ज्ञाता रायसेमांहि, ए अक्षर जो एहवारे | कु. । १४ ॥ ' नमुथ्थुणं ' कही शिव सुखमागें, नृत्य करी जिन आगिं । समकित दृष्टिजिन गुणरागें, कां तुज कुमति न भागेरे । कु । १५ ॥ सूरयामसुर नाटिक करतां, वचन विराधक न थयो । अणुजाणह भयवं " इणि अक्षर, आणाराधक सदह्योरे । कु । १६ || जलयर' थलयर' फूलनां पगरण, जानु प्रमाण समारे। जोयलगे ए प्रगट अक्षर, समवायांग मजाररे । कु. | १७ || पडिलेहन करतां परमादि, कला छकाय विराधक । उत्तराध्ययनना अध्ययन छवीशमें, कुण दया धरमनो साधक । कु. १८ ॥ नदी नाला ऊतरी चालो, दया किहां नव राखे । थें दयानो मर्म न जाणो, रहस्यो समकित पाखेरे । कु. ! १९ ॥ साधु अनें साधवी वलीए, घडी छमांहिं न फिरवुं । सुषिम वरषा तिहां हो ए, भगवती सूत्र सद्दहरे | कु. | २० || परिपाटी जे धर्म देषाडें, ते कह्या धर्म आराधक । वसैं वरस पहिलो धर्मविछेदें, ते जिनवचन विराधक | कु. | २१|| अत्तागम अनंतरागम वली, परंपरागम जाणो | एतीनें मारगवली लोपें, ते तो मूढ अजाणरे । कु. | २२|| तुंगीया नगरीना श्रावक दाता, पुण्यवंत ने सौभागी । घरि घरि राधो विन मार्गे, ए कुमती कहांथी लागीरे कू. । २३|| योग उपधान विना श्रुत भणतां, ए कुबुद्धि तिहां आई । तप जप संयम किरिया छांडें, पूर्व कमाई गमाईरे | कु. | २४ ॥ चरवीश दंडक भगवती भाष्यां, पनर दंडक जिन पूजें | शुभ दृष्टि शुभ भाविं शुभ फल देषी कुमत मत धू जैरे | कु. | २५ || बेंद्री तेंद्री चउरेंद्रीय, पांच थावर नरक निवासी । , १ नेनजिन १ भाग. पू. ११० से ११४ तक — द्रौपदीजीका विचार है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा स्थापन-३स्तवन. (७) जे जिन किंवतुं दरसन करें,ते दंडक नवमां जासीरे । कु. । २६ ॥ व्यंतर ज्योतिषने वैमानिक, तीर्यच मनुष्य ए जाणी। भुवनपतिना दश ए दंडक,इहां जिनपून गवाणीरे । कु ।२७।। श्रीजिन बिंब से. व्यां सुखसंपति, इंद्रादिक पदरुडां। वंदन पूजन नाटिक करतां, पामे शिव सुख उडारे । कु.२८ ॥ कानो मात्र एक पद ऊथा, ते कहा अनंत संसारी । जेतो आखा खंधजलोपें, तिहारी गति छे भारीरे । कु, । २९॥ कूवा आवाढानां पाणी पीठं,कहें अम्हे दया अधिकारी। ए एकवीश पाणीमाहि कहां, थेंतो बहुल संसारीरे । कु.॥३०॥ श्री महावीरना गणधर बोले,प्रतिमा पूज्यां फलरूडां। वंदन'पूजन'नाटिक करता, निंदा करें ते बूढेरे । (अथवा) जेते मुगति पुहचेरे)।कु.॥३१॥ आदियुगादि से चल आवें,देवलनां कमठाण । भरत उद्धार शत्रुजय कीघो,छ। सहु अनियमाणारे ।कु. १३२॥ आद्रकुमार शय्यंभवभट्टा, प्रतिमा देखी बूज्या । भद्रबाहु गणधर इणि परे बोले, कठिन कर्म स्युजूज्यारे । कु. । ३३ ।। श्रावकने ए सुकृत कमाई, प्रतिमा पूजा अधिकाई । जिन प्रतिमानी निंदा करतां,मति, बुद्धि, शुद्धि,गमाईरे । कु. । ३४ ॥ कठोल धान काचे गोरस जिम्यां,जीवदया किम होई। बद्रीनी विराधन करता, पूर्वकमाई तें खोई रे । कु.। ३५ ॥ सुविहित समाचारीयी टलीया, रति विना रडवडीया । कुमत कदाग्रह नाये राता,धरमथकी ते पडीयारे ।कु.॥३६|| सोजत मंडन वीर जिनसरे॥ आगे पद हमारे हाथ.नही आनेसे लिखे नहीं है. ॥इति समाप्तं । - १ एक धानकी वे फाडी होवे, उसको-कठोल, कहते है । मुंग, चणादि, उस वस्तुकी चिज छास. दही. दुध उष्ण किये बिना भेला करें तो, उसमें तुरत जीवोत्पत्ति होती है । इस वास्ते खानेकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा स्थापन- ३ स्तवन. || पुनरपि स्तवनं लिख्यते ॥ ૧ 3 क्यूं जिनमतिमा ऊथापरे, कुमति क्यूं जिनमतिमा ऊथायें । अभय कुमारे जिनप्रतिमा भेजी, आद्रकुमारे देखी । जातिस मरण ततषिण उपनो, सूयगडांग सूत्र छे साषीरे, पापी क्यूं जिनप्रतिमा कथा | १ || सूत्र ठाणांगे चौथे ठाणे, चड निक्षेपा दाख्या | श्री अनुयोग दुबारे ते पिण, गौतम गणधरें भाष्यारे । पापी, क्युं । २ ॥ भगवई अंगे शतक वीसमें, उद्देशे नवमें आनंदे | "जंघाचारण विद्या चारण, जिन पडिमाजई बंदरे । पापी, क्यूं |३|| छ अंगे द्रौपदी कुमरी, श्री जिनप्रतिमा पूजे । जिनहर सूत्रे प्रगट पाठए, कुमतिने नहीं सूजेरे । पापी क्यूं | ४ || उपासक अंगे आनंद श्रावक, समकितने आलावे | अन्न उत्थिया प्रगट पाठए, कुमति अरथ न पावेरे । पापी क्यूं | १ || दशमें अंगे प्रश्न व्याकरणे संवर तीजे भाख्यो । निरजरा अर्थे चैत्य को हैं, सूत्रे इणिपरि दाख्योरे । पापी क्यूं । १ ।। सूरयामे जिनप्रतिमा पूजी, रायपसेणी उवंगे | विजय देवता जीवाभिगमें, सूत्र अर्थ जोवो रंगेरे । पापी क्यूं । | ७ || "अरिहंत चैत्य उवाई उपंगे, अंबडने अधिकारें | वंदेह करयह पाठ निहाली, कुमती कुमत निवारेरे । पापी क्यूं | ८ || आवश्यक चूर्णे भरत नरेसर, अष्टापद गिरी आवे । मानोपेत प्रमाणे जिननां चौवीश बिंब भरावेरे । पापी क्यूं । ९ ।। शांति जिनेसर पडिमा देखी शय्यंभव पडि बूजे । दश बैकालिक सूत्र चूलिका, कुमति अरथ न | ( ८ ) १. देखो - नेत्रांजन १ भा. पृष्ट. ११७ सें. १२१ ॥ । २ नेत्रांजन. १ भा. पृष्ट. ११० से ११४ तक ।। ३ नेत्रांजन. भा. पृष्ट. १०८ में ।। ।४ नेत्रांजन, १ भा. पृष्ट. १०४ सें १०८ तक ॥। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमा स्थापन-४स्तवन. ( ९ ) सूजेरे । पापी क्यूं । १० ॥ शुभ अनुबंध निरजरा कारण, द्रव्य पूजाफल दाख्यो । भाव पूजा फल सिद्धिना कारण, वीर जिनेसर भाख्योरे । पापी क्यूं । ११ ।। कुमति मंद मिथ्या मति भुंडो, आगम ऑलो बोले । जिन प्रतिपासुं, द्वेष धरीने, सूत्र अरथ नहीं खोलेरे । पापी क्यूं। १२ ॥ जे जिन बिंध तणा ऊथापक, नवदंडकमांहि जावे । जेहने तेह सूं द्वेष थयो ते, किम तस मंदिर आवरे । पापी क्यूं। १३ ॥ सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, पयन्ने, ठगम ठाम आलावें । जिनपडिमा पूजे शुभ भावे, मुक्तितणा फल पावरे । पापी क्यूं। १४ ॥ संवेगो गातारथ मुनिवर, जस विजय हितकारी । सोभाग्य विजय मुनि इणिपरि पभणे, जिन पूना सुखकारीरे । पापी क्यूं । १५ ॥ इति कुमति निकंदन स्तवनं ३ समाप्तं ॥ ॥ अथ चिंतामाणि पार्श्वजिन ४ स्तवनं ।। भविका श्री जिन विंच जूहारो,आतम परम आधारो रे । भ । श्री । एटेक, जिन प्रतिमा जिनसररवी जाणो, न करो शंका काइ । आगमवाणीने अनुसार, राखो प्रीत सवाईरे । भ । श्री। १ ॥ जे जिन बिंब स्वरूप न जाणे, ते कहिये किम जाणे । भुलातेह अज्ञानें भरिया, नहीं तिहां तत्त्व पिछाणेरे । भ । श्री। २ ।। अंबड श्रावक श्रेणिक राजा, रावण प्रमुख अनेक । विविधपरें जिन भक्ति करता, पाम्या धरम विवेकरे । भ । श्री । ३ ॥ जिन प्रतिमा बहु भगते जोता, होय निश्चय उपगार । परमारथ गुण प्रगटे पूरण, जो जो आद्र कुमाररे । भ । श्री। ४ ।। जिन प्रतिमा आकारें जलचर, छे बहु जलधि मजार । ते देखी बहुला मछादिक,पाम्या विरति प्रका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) जिनप्रतिमा स्थापन ५ स्तवन. रे । भ । श्री । ५॥ पांचमा अंगें जिन प्रतिमानो, प्रगटपणे अ. धिकार । मुरयाभ सुर जिनवर पूज्या, रायपसेणी मजाररे । भ । श्री। ६ ॥ दशमें अंगे अहिंसा दाखी, जिन पूजा जिनराज । ए वा आगम अरथमरोडी, करिये किम अकाजरे । भ । श्री।७।। समकित धारी सतीय द्रौपदी, जिन पूज्या मनरंगें । जो जो एहनो अरथ विचारी, छठे ज्ञाता अंगेरे । भ । श्री। ८॥ विजय सुरें जिम जिनवर पूजा, कीधी चित्त थिर राखी । द्रव्यभाव बिहुं भेदें कीनी, जीवाभिगमते साखीरे । भ । श्री। ९॥ इत्यादिक बहु आगम साखें, कोई शंका मति करजो । जिन प्रतिमा देखी नित नवलो, प्रेम घणो चित्त घरजोरे । भ । श्री। १० ॥ चिंतामणि प्रभु पास पसायें, सरधा होजो सवाई । श्री जिन लाभ मुगुरु उपदेशे, श्री जिनचंद्र साईरे. भ. श्री. ११ ।। इति चिंतामाणि पार्थ ४ सवन. ॥ अथ मिथ्यात्व खंडन स्वाध्याय ५ लिख्यते. .. दूहा--पूर्वाचारज सम नहीं, तारण तरण जहाज । ते गुरुपद सेवा विना, सबही काज अकाज । १ ॥ टीकाकार विशेष जे, नियुक्ति करतार । भाष्य अवचुरी चूर्णियी,सूत्र साथ मन धार । २ ॥ यही अरथ परंपरा, जाणग जे मुनिराज । सूत्र चौराशी वर्णव्या, भवियण तारक जान ! ३ ॥ निजमति करता कल्पना, मिथ्यामति केई जीव । कुमनि रचीने भोलवे, नरके करसें रीव । ४ ॥ बाल . अजाणग जीवडा, मूरखने मति हीन । नुगराने गुरु मानसें, थास्य दुखिया दीन । ५॥ ____ढाल---प्रणमी श्री गुरुना पदपंकज, शिखामण कई सारी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्व खंडन-५ स्वाध्यायं. (११) समकित दृष्टि जीवने कानें, सुणज्यो नरने नारी । भवियण समजो हृदय मजारी। १ । ए टेक ॥ अत्तागम अरिहंतने होवें, अणंतर श्रुत गणधार । आचारजयी पूर्व परंपर, सो सदहें ते अणगाररे । भवियण समजो हृदय मजारी । २ ॥ भगवई पंचम अंगे भाख्यो, श्री जिनवीर जिनेस । भेष धरीने अवलो भाखे, करी कुलिंगनो वेसरे । भवि । ३ ॥ बाहार व्यवहारे परिग्रह त्यागी, बगलानी परें जेह । सूत्रनो अर्थ जे अवलो मरडे, विमा रष्टि कह्यो तेह रे । भवि । ४ ॥ आचारज ऊबजाय तणो जे, कुल गछनो परिहार सेहना अवरणवाद लवंतो, होसें अनंत संसाररे। भवि । ५॥ महा मोहनी कर्मनो बंधक, समवायांगे भाष्यो। श्रुतदायक गुरुने हेलवतो, अ. नंत संसारी ते दाख्योरे । भवि । ६ ॥ तप किरिया बहु विधनी कीधी, आगम अवलो बोल्यो । देवालविष ते थयो ' जमाली' पंचम अंगे खोल्योरे । भवि । ७॥ ज्ञाता अंगे सेलग मुरिवर, पासथ्था यया जेह । पंथक मुनिवर नित नित नमता, श्रुतदायक गुण गेहरे । भवि । ८।कुलगण संघतणी वैयावच, करें निरजरा काजें। दशमें अंगे जिनवर भाखें, करें चैत्यनी साहजेरे । भवि। ९॥ आ. रंभ परिग्रहना परिहारी, किरिया कठोरने धारें। ज्ञान विराधक मिथ्या दृष्टि, लहें नहीं भव पाररे । भवि । १०॥ भगवती अंगे पंचम शतके, गौतम गणधर साखें । समकित विन किरिया नहीं लेखें, वीर जिणंद इम भाषेरे । भवि । ११ ॥ पूर्व परंपरा आगम साखें, सदहणाकरो श्रृद्धी । परत संसारी तेहनें कहिये, गुण गृहवा जस बुद्धिरे । भवि । १२ ॥ नव सातना भेद छे बहुला, तेहना भंग न जाणे । कदाग्रहथी करी कल्पना, हठ मिथ्यात्व वखाणेरे । भवि । १३ ॥ सम्यक् दृष्टि देवतणा जे, अवरण वाद न कहिये । ठाणा अंगे इणिपरी भाख्यो, दुरलभ बोधि लहियेरे । भवि । १४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) मिथ्यात्व खंडन - ६ स्वाध्याय. देव वंदननी टीकाकारी, हरिभद्र सूरिराया । च्यार थुइ करी देवां दिजें, वृद्ध वचन सुखदायारे | भाव | १५ || वैयावच शांति समाधिना करता, सुर समकित सुखकारी । प्रगट पाठ टीका निर धारयों, हरिभद्र सूरि गणधारीरे | भवि । १६ || वारें अधिकारें चैत्य वंदननो, न क्यूं कहो हवें तेह | टीकाकार थुइ कही छे, सुर सम्यक्त्व गुण गेहरे | भवि । १७ ।। खेत्र देव शय्यातरादिक, काउसग कह्यो हरिभद्रं । निर्युक्तिमें मगट पाठ ए, देखो करी मन भद्ररे | भवि । १८ ॥ श्रावक सूत्र को वंदे तूं, पूरवघर मुनिराय । बोध समाधि कारण वांछे, सुर समकित सुखदायरे । भवि । १९ ॥ वैशाला नगरीनो विनाशक, चैत्य शुभनो घाती । कुलवालुओ गुरुनो द्रोही, सातमी नरक संघातीरे । भवि | २० || इत्यादिक अधिकार घणेरा, निरपक्षी थई देखो । दृष्टि रागनें दुर उवेखी, सुख कारण सुविवेकरे | भवि | २१ || पंडितराय शिरोमणि कहियें, अन्नविजय गुरुराय | जसविजय गुरु सुपसाये, परमानंद सुखदायरें | भावे | २२|| इति मिथ्यात्व तिमिर निवारण स्वाध्याय ५ मी संपूर्ण. धन. १ || श्री संप्रति राजाका ६ स्तवन । राग आशावरी । धन धन समति साधो राजा, जेणे कीधां उत्तम कामरे । सवालाख प्रासाद करावी, कलियुग राख्युं नाम रे ॥ वीर संवत्सर संवत् बीजे, तेरोत्तर रविवार रे। महाशुदि आठमी बिंत्र भरावी, सफल कियो आवतार रे ।। धन. २ श्रीपद्म प्रभु मूरती थापी, सकल तीरथ शणगार रे । कलियुग कल्पतरु ए प्रगट्यो, वंछित फल दातार रे || उपासरा वे हजार कराव्या, दानशाला शय सात रे || धन. ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप्रति राजाका-७स्तवन. (१३) धर्म तणा आधार आरोपी, त्रिनग हुओ विख्यात रे ॥ धन. ४ सवालाख प्रासाद कराव्या, छत्रीश सहस्स उद्धार रे। सवाकोडी संख्याये प्रतिमा,धातु पंचाणुं हजार रे॥ धन. एक प्रासाद नवो नीत नीपजे, तो मुख शुद्धिज होय रे। एह अभिग्रह संमति कीधो, उत्तम करणी जोय रे॥ धन. ६ आर्य सुहस्ति गुरु उपदेशे, श्रावकनो आचार रे।। समकित मूल बार व्रत पाली, कीधो जग उपगार रे ॥ धन. ७ मिन शासन उद्योत करीने, पाली त्रण खंड राज रे। . ए संसार असार जाणीने, साध्या आतम काज रे ॥ धन. ८ गंगाणी नयरीमा प्रगट्या, श्रीपद्मप्रभ देव रे । विबुध कानजी शिष्य कनकने, देज्यो तुम पय सेव रे ॥ धन. ९ ॥ इति श्री संपति राजाका ६ स्तवन संपूर्ण ॥ ॥ अथ जिन प्रतिमाके उपर ७ स्तवन । चोपाई ॥ जेहने जिनवरनो नही जाप, तेंहनुं पासु न मेलें पाप। जेहने जिनवर सुं नही रंग, तेहनो कदी न कीजे संग ॥ जेहने नही वाहाला वीतराग, ते मुक्तिनो न लहे ताग । जेहने भगवंत सुं नही भाव, तेहनी कुण सांभलशे राव ॥ जेहने प्रतिमा शुं नहीं प्रेम, तेहगें मुखडं जोइये केम । जेहने प्रतिमा शुं नही प्रीत, ते तो पामें नहीं समकित ।। जेहने प्रतिमा शुं छे वेर, तेहनी कहो शी थासें पेर । जेहने जिनमतिमा नहीं पूज्य,आगम बोले तेह अबूज्य ॥ ४ १नाम, २स्थापना, ३द्रव्य, ने ४भाव, प्रभुने पूजो सही प्रस्ताव । जे नर पूजे जिननां बिंब, ते लहे अविचल पद अविलंब ॥ ५ ०९ सा पास पर। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ॥ जिन प्रतिमान विषये ८ स्तवन ।। पूजा छे मुक्तिनो पंथ, नित नित भाषे इस भगवंत । सहि एक नरक बिना निरधार, प्रतिमा छे त्रिभुवनमा सार ॥ ६ सत्तर अठाणु आषाढी बीज, उज्जल कीq छे बोध बीज । इम कहे उदय रतन उवज्जाय, प्रेमे पूजो प्रभुना पाय ॥ ७ इति जिन प्रतिमा ७ स्तवन । मिन प्रतिमा विपये ८ सवन.॥ चेतउरे चित प्राणी, ए देशी ।। धरण नमुं श्री वीरनारे, धरि मन भाव अभंग। पामी जे जसु सेवी, ज्ञान दर्शनरे चारित्र गुण चंगकि ॥ १ मुणज्योरे सु विचारी,तुम्हे तनि ज्योरे मन हूती शंककि, सु ए टेक। जिन प्रतिमा जिन सारखीरे, भाषी श्री जिनराज । समकित पर चित्त सरदहें, भवजलधिरे तरवाने काज कि ॥ सु०२ जेहनुं नाम जपीये सदारे, धरीये जेहनी आण । मूरती तास उथापता, महु करणीरे थाई अपामणकि ॥ सु० ३ वंदें पूजे भाव सुरे, समकिती अरिहंत देव । तिम अरिहंतना विंबनी, मन मुद्धरे नित सार सेवकि ॥ सु०४ १ नाम, २ ठवण, ३ द्रव्य, ४ भाव सुंरे, श्री अनुयोग दुवार। चार निक्षेपा जिन तणा,वंदें पूजेरे ध्यावे समकित धारकि।मु०५ भाव पूजा कही साधुनेरे, श्रावकने द्रव्य भाव । धर्म समकित जिन सेवमें, शिव सुखनोरे एही उपावकि । मु०६ दान शील तप दोहिलोरे, अहनिशि ए नत्री थाय । भावें जिन बिंब पूजतां,भव भवनोरे सहु पातक जायकि ॥ सु०७ १ एक नरक का स्थान छोडकरके, और सर्व जगें पर, शा. श्रते, और अशाश्वते, जिनेश्वर देवके चित्र (प्रतिमा विराजमान हे उनका पाठभी जैन सिद्धांतोंमें जगें जगे पर विद्यमान पणे है।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा स्थापन विषये-स्तवन८मा. (१५) नाम जपतां जिनत[रे, रसना ज्यूं निरमल थाय । त्यूं जिनपिंच जुहारतां, निश्चे सुरे हुये निरमल कायकि ॥ सु०१ साधु अनें श्रावक तणारे, कह्या धर्म दोई प्रकार । श्री जिनवर अनें गणधरे,सर्व विरतीरे देश विरती विचाराक ॥ सु०९ श्रावकने थावरतणीरे, न पलें दया लगार। सवा विश्वा पाले सही, ज्यू होवें बारह व्रत धारकि ॥ मु०१० धीश विश्वा पाले जतीरे, रहते निज आचार । सरसव मेरुने अंतरे, गृह धरमेरे साधु धरम संभारकि । मु० ११ तिण कारण श्रावक भणीरे, समाकत प्राप्ति काज। . पूमा श्री जिन विवनी, मुनि सेवारे बोली जिनराजाक ।। मु० १२ पर्व दिवस पोसह कह्योरे, आवश्यक दुई वार । अवसर सीपाइक करें,भोजन करेंरे जिन मुनीने जुहारकि।। मु० १३ १ घर करसण व्यापरनेरे, भाप्यों छे आरंभ । पूजा जिहां जिन बिंबनी,तिहां भाषीरे जिन भक्ति अदंभकि । मु० १४ पुत्र कलत्र परिवारमेरे, सुद्ध न होय तप शील । दानथको पूजाथकी, श्रावकनेंरे थायें सुख लीलकि ॥ सु. १५ जिनवर वचन उथापीनेरे, निज मन कल्पना भेलि । जिन मूरति पूना तजें,ते जाणोरे मिथ्यातनी केलि कि ।। सु. १६ जिन मुनि सेवा कारणे, आरंभ जे इहां थाय । अल्प करम बहु निर्जरा,भगवती सूत्ररे भायें जिनराज कि॥ सु.१७ सूत्र वचन जे ओलोरे, जे आणे संदेह । मिथ्या मतना उदयथी, भारी करमारे जाणो नर तेह कि ॥ सु. १८ .... १ घर-खेती-व्यापारादिक स्वार्थ कार्यमा प्रति करता जे काई सूक्ष्मजीवोंनी विराधना थाय, तेनेज तीर्थकरोभे आरंभ कहेलो छेबाकी जिनगुनाने तो भक्तिज कहेली छे.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) प्रतिमा स्थापन विषये-स्तवनरमा. जिन मूरति निंदी जिणेरे, तिणें निद्या निनरान। . पूजाना अंतरायथी, जीव बंधेरे दश विध अंतराय कि ॥ सु. १९ १अंग, २उपांग, ३सिद्धांतमेरे, श्रावकने अधिकार । ... म्हाया कयबाल कम्मियां,पूजानारे ए अरथ विचार कि॥ सु. २० १जीवाभिगम, २उवाइयेरे, ३ज्ञाता, ४ भगवती अंग । ...... ५रायपसेणीमें वली, जिन पूजारे भाषी सतरह भंग कि ।। सु..२१ श्री भगवते भाषियारे, पूजानां फल सार । १हित २सुख ३मोक्ष कारण सही,ए अक्षररे मनमें अवधाराकि। सु०२२ चित्र लिषित नारी तणोरे, रूप देष्यां काम राग । तिम वैराग्यनी वासना,मनि उपजेरे देष्यां वीतराग कि ||सु० २३ श्री सय्यंभव गणधरुरे,तिमवली आद्र कुमार । प्रति कुज्या प्रतिमायकी,तिणे पाम्यारे भवसागर पार कि। सु० २४ १ दानव २ मानव ३ देवतारे, जे धरें समाकत धर्म। .. ते उत्तम करणी करें, ते न करें रे कोई कुत्सित कर्म कि । सु० २५ तीन लोक मांहे अछेरे, जिनवर चैत्य जिके वि। ...... ते पंचम आवश्यकें, आराधेरे मुनि श्रावक बेवि कि || सु० ३६ सार सकल जिन धर्मनोरे, जिनवर भाष्यों एह । लक्ष्मी वल्लभ गणि कहें, जिन वचनेंरे मत धरों संदेह कि ॥ सु० २७ ॥ इति श्री लक्ष्मी वल्लभ सूरि कृत ८ स्तवन संपूर्ण ॥ - ॥ अथ प्रतिमा विषय स्तवन ९ मा ।। जैनी है सो जिन प्रतिमा पूजनसें.मनवंछित फल पावत है । ए टेक । रावण नाटक पूजा करके, गोत्र तीर्थकर पाया है । जैनी । १॥ 'सती द्रौपदीये प्रतिमा पूजी, ज्ञाता साख भरावत है । जैनी। २ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रोस. ( १७ ) चारण मुनिवर प्रतिमा वंदनको, रुचक नंदीश्वर जावत है। जैनी | ३ || सूरयाम देवको मित्रदेवने हितसुख मोक्ष बताया है। जैनी । ४ ॥ आद्र कुमारे प्रतिमा देखी ते, जाति स्मरण पाया है । जैनी । ५ ॥ जीवाभिगममें लवण सुठिये, श्री जिनराजको पूज्या है । जैनी ॥ ६ ॥ ठाणांग सूत्रमें चार निक्षेपा, सत्यरूप बतलाया है । जैनी । ७ ॥ लाक कहै जिन प्रतिमा पूजें, जन्म मरण मिट जावत है। जैनी । ता इति ९ स्तवन ॥ ॥ अथ जिन प्रतिमा स्थापन रास लिख्यते || ॥ मुनिराजश्री वल्लभविजयजी की तरफसें मिल्या हुवा || सूय देवी हिडे घरी, सदगुरु वयण रयण चित चारके । रास भणुं रलियामनो, सूत्रे जिन प्रतिमा अधिकारके । कुमति कदाग्रह छोड द्यो । ए आंकणी ॥ मन हठ मकरो मूढ गमारके, हठ मिथ्या न बखानिये । मिथ्या तें बांधे संसारके । कुं मति ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ कुडो हठ ताणे जिके, अम्हे कहांछां तेहिज साचके । ते अधरमी आत्मा, काच समान गिणें ते पांचके | कु. कुमति कुटिल कदाग्रही, साच न राचें निगुण निटोलके । परम परागम बाहिरा, स्युं जाणे ते सूत्रनो बोलके । कु. ॥ ४ ॥ गुरुकुल वाससें जिके, ते कहिये जान प्रवणिके । शुद्ध संयम तेहनो पले, आगम वयण तणो रस लीनके । कु. ॥५॥ एक वचन जे सूत्रनो, उथापे ते बांधे भवनो बंधके । पाडे तेहनो स्युं होस्, उथापे जे सारो खंधके । कु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ॥ ६ ॥ www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) प्रतिमा मंडन रास. जिन प्रतिमा जिन अंतरो, जाणे जे जिनथी प्रति कूलके। जिन प्रतिमा जिन सारखी, मानीजे ए समाकित मूलके । कु. ॥७॥ जिन प्रतिमा उपरि जिके, साची सद्दहना धारंत के। ते नरनारी निस्तरे, चउगति भवनो आणे अंतके । कु. ॥८॥ आज इण दूसम आरे, मति श्रुत छे तेही पण हीनके।। तो किम सूत्र उथापीये, इम जाणो तुमे चतुर प्रवीणके । कु. ॥९॥ मन पर्यवं केवल अवधि, ज्ञान गयां तीन विछेदके । तो जिम सूत्रे भाषियो, तिम किनें मन धरिय उमेदके । कु. ॥१०॥ जे निज मन मान्यों करे, टीका दृत्ति न माने जेह के । ते मूरख मंद बुद्धिया, परमार्थ किम पामें तेह के । कु. ॥११॥ ए आगम मार्नु अम्हे, एह न मानुं एह कहे हके । तेहने पुछो एहवो, ज्ञान किसो प्रगटयो तुम्हे देह के । कु. ॥१२॥ दश अठावीसमें, उत्तराध्यन कही छे जोय के । आणा रुचि वीतरागनी,आगन्या ते परमाणकि होय के। कु.॥१३।। तप संयम दानादि सहुं, आण सहित फलें ततकालके । धर्म सहुं विन आगन्या,कण विन जाणे घास पलालके ।कु.।।१४।। तो साची जिन आगन्या, जो धरे प्रतिमासु रागके। सूत्रे जिन प्रतिमा कही, जेह न माने तेह अभाग के। कु. ॥११।। दारु प्रमुख दश थापना, बोली किरियाने अधिकारके । किरिया विण पिण थापना, इनही अनुयोग दुवारके। कु. ॥१६॥ १ जो तीर्थकरकी प्रतिमासे अंतर करनेवाले है सो तीर्थकरोंसें ही दूर रहनेवाले है ॥ . २ आज्ञाविनाका-दान दयादिक धर्म है सो, धान्य विनाका घास, पलाल; जैसा है। ३ काष्टादिक दश प्रकारकी स्थापना, तीर्थकरोंकी भी करनेकी कही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रास. (१९) १ पाट संथारे गुरुतणे, बैसंतां आशातना थाय के। ते केहनी आशातना ? कहोने ए अर्थ समजायके । कु. ॥ १७ ॥ उंधी गति मति जेहनी, दीर्घ संसारी जे छे पीडके। समजाया समजे नहीं, जो समजावे श्री महावीरके. । कु.॥ १८ ॥ 'जिन प्रतिमा जिन अंतरो, कोइ नहीं आगमनी साखीके । तिणही त्यां जिन हीलिये,तिण वंद्यो जिन बंद्यो दाखिके । कु.॥१९॥ जिन प्रतिमा दरसण थकी, प्रति बुज्यो श्री आद्रकुमारके । शय्यंभव श्रुत केवली, दश वैकालिनो करतारके । कु. ॥२०॥ स्वयंभू रमण समुद्रमें, मछ निहाली प्रतिमा रूपके । जाति स्मरण समाकिते, मुरपदवी पामी तेह अनुपके । कु. ॥ २१ ॥ रायपसेणी उपांगमें, सूरयाभे पूजा किधके । शक्रस्तवन आगल कह्यो,हित सुख मोक्ष तणा फल लीधके ।कु.||२२॥ छठे अंगे द्रौपदी, विधिसुं पूज्या श्री जिन राजके । जिन प्रतिमा आगल कह्यो,शक्र स्तव ते केहने काजके?। कु.॥२३॥ १ प्रतिमाको नहीं मानते हो तो-गुरुके पाटकी, आसनकी आशातनासें गुरुकी आशतना हुइ कैसे मानते हो ? इति प्रश्न ॥ २ देखो सत्यार्थ पृष्ट. १४४ में-महा निशीथ सूत्रका पाठमेंअरिहंताणं, भगवंताणं । का पाठसें-मूर्तियांकाही बोध कराया है । इस वास्ते मूर्तिमें और तीर्थंकरोंमें भेद भाव नहीं है । जिसने प्रतिमाकी अवज्ञा कोई उसने तीर्थकरोंकी ही अवज्ञा करनेका दोष लगता है । वांदे उनको तीर्थंकरोकोही वंदनेका लाभ होता है. ॥ ३ द्रौपदीको-नमाथ्थुणका पाठ, कामदेवकी मूत्तिके आगे, ढूंढनी पढावती है ? ।। देखो नेत्रांजन प्रथम भाग. पृष्ट. ११० से ११४ तक॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) प्रतिमा मंडन सं. जीवाभिगमें जोइज्यो, विजय देवतणे अधिकारके । सिद्धायतन आवी करी, पैसे पूरवतणे दुवारके । कु. ॥ २४ ॥ देवछंदे आवे तिहां, जिन प्रतिमा देखी धरे रागके।। करे प्रणाम नमाय तनुं भगति युगति निज भाव अथागके। कु.॥२९॥ लोमहथ्य परमारजे, सुरभि गंधोदक करें पखालके । अंग लुहें अंगलुहणे, चंदन पूज करें सुविशालके । कु. ॥२६॥ फूल चढावे प्रभुभणी, उखेवें कृष्णागर धूप के। शक्र स्तव आगल कहें, कवण हेतु ते कहो सरूपके । कु. ॥ २७ ॥ ठाणा अंगे भाषियो, चौथे ठाणे एह विचारके । नंदीसर जिन शास्वता, वंदे सुरवर असुर कुमारके । कु.॥ २८ ॥ पूजा प्रतिमा स्थापना, जंबूद्वीप पन्नती माहिके । बीजे अध्ययने अछे, सत्तम आलावें उछाहके । कु. ॥२९॥ पंचम अंगे भाषियो, जिन दाढा पूने चमरेंद्रके ।। तेह टाले आशातना, विषय न से ते असुरेद्रके । कु. ॥३०॥ क्यां तेतो पुदगल हाडना, देहावयव विवर्जित जाणके । 'अधर्म अर्थ वली कामने, कहै अर्थ कहो सुजाणके । कु.॥ ३१ ॥ जंघा विद्या चारणा, तप शील लवधितणा भंडारके । एक डिगे मानुषोत्तरे, चैत्य जुहारे अणगारके । कु. ॥ ३२ ॥ बीजे डिगे नंदीसरे, तिहां वली चैत्य जुहारण जायके । तीजे डिगे आवे इहां, इहां ना पण प्रणमे जिनरायके । कु.॥ ३३ ॥ भगवती अंगे इम कह्यो, गोयम आगे श्री महावारकं । सदहणा मन आणीने, पूजो जिनवर गुण गंभीरके । कु. ॥ ३४ ॥ १ धन पुत्रादिकके वास्ते पूजा करनी अधर्म कही है, सोही दूंढनी करानेको तत्पर दुई है ।। २ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट. ११७ से १२१ तक ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रास. (२१) 'अंबड परिव्राजकतणो, आलावो श्री उवाई माहेंके। अन्य अहित ते परिहरु, वांदु जिन प्रतिमा चित लायके. कु.॥३६॥ सत्तम अंगे समाजने, आनंदनो आलावो जोइके । अन्य तीर्थ वांदु नहीं, सांपति जो जिन प्रतिमा होय के. कु.॥३६॥ 3वली उववाइने धुरे, चंपा नगरी वरणकी जोयके । जिनमंदिर पाडा कह्या, काह न मानो कुमति लोयके. । कु. ॥ ३७॥ साधु करे चेय तणो, वेयावच ते केहै भायके । ४पएहा वागरणे कह्यो, साचो अर्थ कहो समजायके । कु. ॥३८॥ अष्टापद गिरि उपरे, चैत्य करायो भरतें पुण्यने कामके । आवश्यक चूर्णी कयु, देवलसिंह निषद्या नामके । कु. ॥ ३९ ॥ यज्ञाता अंगे उपदिशी, जिनवर पूजा सतर प्रकारके । जीवाभिगम उपांगमें, तिहां पिण छे एहिज अधिकारके । कु.॥४०॥ श्रीव्यवहार सिद्धांतमें, प्रथम उदेशे कह्यो शुद्धके । श्रीजिन प्रतिमा आगले, आलोयणा लीजे मन श्रुद्धके ।कु.॥४१॥ विद्युनमाली देवता, कींधी प्रतिमा बोध निमित्तके । १ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट. १०४ सें १०८ तक ।। २ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट १०८ से १०९ तक ॥ ३ देखो इसका विचार-नेत्रांजन प्रथम भाग पृष्ट १०३ में १०४ ॥ ४ साधुभी चैत्य ( मंदिर ) की वैयावच करे, देखो प्रश्न व्याकरण || .. ५ ज्ञाता सूत्रमें-सतरभेदी पूजा करनेका उपदेश है ।। ६ प्रतिमाके आगे-साधुको दूषणकी आलोचना करनेका, व्यवहा र सूत्रमें कहा है ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) प्रतिमा मंडन रास. उपदेश अच्युत देवने, प्रभावतो पूजी शुभ चित्तके । कु. ॥ ४२ ॥ श्री आवश्यके दाखियो, वगुर शेठ तणो दिष्टांतके । मल्लि स्वामी प्रतिमा तणी, इह लोकारथ सेव करतके। कु.॥ ४३ ।। गाथा भत्त पयन्ननी, जोवो श्रावक जन आलंबके । करावे जिन द्रव्यमुं, जिनवर देवल जिन बिंबके । कु. ॥४१ ।। चौवी सथ्यो मानो तुम्हे, कीत्तिय, वंदिय, 'महिया, पाठके। महियानो श्युं? अर्थ छे, साच कहो एकडो मांडके । कु. ॥ ४५ ॥ नाम जिना ठबणा जिना, द्रव्य जिना भावजिना वखाणके । मानो काइ न मूढमति, चारे निक्षेपा सूत्रां जाणके । कु. ॥ ४६ ।। भुवण पति वाण व्यंतरा, जोइसी वली वेमाणिय देवके । ए सुर चार निकायना, सारे जिन प्रतिमानी सेवके । कु.॥४७॥ नंदी अनुयोग दुवारमें, पूजाना सगले अधिकारके । सूत्रेही माने नहीं, तो जाणिये बहुल संसारके । कु. ॥४८॥ जो कहिस्यो पूजा विषे, थाय छे बहुलो आरंभके । तो दृष्टांत कहुं सांभलो, मत राखो मन मांहि दंभके । कु. ॥ ४९ ॥ ज्ञाता अंगे इम कह्यो, प्रतिबोध्या माल्लिनाथें छ मित्रके । प्रतिमा सोवनमें करी, दिन प्रति मूके कवल विचित्रके । कु.॥५०॥ जीव तणी उतपति थइ, कुथित आहार तणो परमाणके । सावध आरंभ ये कियो, बिहुअरथामें अरथ वखाणके । कु.॥५१॥ १ महिया, शब्दका अर्थ-देखो सम्यक्क शल्योद्धारमें ।। २ आरंभमें धर्म नहीं होता है, ऐसा कहने वालेको समजाते है।। ___३ छ मित्रको प्रतिबोंधनेके वास्ते-मल्लिनाथने, जीवोंकी उत्पत्ति कराईथी, सो धर्मके वास्तकि, अधर्मके वास्ते ? ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा मंडन रास. (२३) वली सुबुद्धि मंत्रीसरे, प्रतिबोधन जितशत्रु महाराजके । फरहोदक आरंभियो, ते आरंभ कहो किण काजके । कु. ॥ ५२ ॥ स्थावच्चा पुत्रनो कियो, कृष्णे व्रत उछव अतिसारके। स्नान आदिक आरंभियों, काम धरमके अरथ विचारके । कु.॥५३|| सूरयाभे नाटक कियो, भगवंत आगल बहु विस्तारके। तिणे ठामे आरंभ थयो, किंवा न थयो करो विचारके । कु.॥ ५४॥ मेरु शिखर महिमा करे, जिन न्हवरावे मिल सुर रायके । आरंभ जइ बहुलो कियो, जाणी जै छै पुण्य उपायके। कु.॥ ५५॥ ५श्रेणिक कोणिक वंदवा, चाल्या हय गय रथ परिवारके । तिहां कारण स्युं जाणिये, आरंभ विण नहि धरम लगारकोकु.॥५६॥ गुरु आव्या उछवकरो, नरनारी मिल सामा जाय के । ते आरंभ न लेखवो, तो जिन पूजा उथ्थापो काइके । कु.॥५७ ॥ पुह, देवलोक बारमें, नवा प्रसाद करावन हारके । दीसें अक्षर एहवा, महा निसीथ सिद्धांत मजार के । कु. ॥ १८ ॥ १ राजाको प्रतिबोधनेके वास्ते, गंदा पाणीको स्वच्छ किया, सो धर्मके वास्तेकि, अधर्मके वास्ते ? ॥ २ थाबच्चा पुत्रका व्रत ओछवमें, कृष्ण राजाने स्नानादिक अनेक आरंभ, धर्मके वास्ते कियाकि, अधर्मके वास्ते ? ॥ ३ सूर्याभ देवने-भगवंतकी भक्तिके वास्ते, नाटक किया, उसमें-आरंभ हुवा कि नहीं ? ॥ ४ भगवंतोंके जन्म महोत्सवमें-नदीयां चाले उतना पाणीका आरंभ, देवताओंने-पुण्यके वास्ते, किया कि नहीं ? ॥ . ५ श्रेणिकादि, बडा आरंनके साथ-वंदना करनेको, धर्मके वास्ते-गये कि नहीं ? | . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) प्रतिमा मंडन रास. जिन प्रतिमा जिन देहरां, जेह करावे चतुर सुजाण के । लाभ अनंत गुणो हुवे, इम बोले आगमनी वाण के । कु. ॥१९॥ 'पूजे पितर करंडिये, पूजे देवीने क्षेत्रपालके । जिन प्रतिमा पूजे नहीं, ए तो लागे सबल जंजालके । कु.॥ ६०॥ चित्र लिखित जे पुतली, तेजोयां बाधे कामके। तो प्रतिमा जिनराजनी, देखतां शुभ परिणामके। कु. ॥६१ ॥ इम ठामे ठामे कह्यो, जिन प्रतिमा पूजा अधिकारके । जे माने नहीं मानवी, ते रुलसी संसार अपारके । कु. ॥६॥ आगम अर्थ सहुं कहे, तहत्ति करे जे आगम मांहिके । जिन प्रतिमा माने नहि, तेतो माहरी माने वांझके । कु. ।। ६३ ॥ अरथ आगमना ओलवें, नवा बनावे हिया जोरके । खोटाने थायें खरा, बेटो चोर तो वापही चोरके । कु ॥६४ ॥ मुन मन जिन प्रतिमा रमी, जिन प्रतिमा माहरे आधारके । सदहणा मुझ एहवी, जिन प्रतिमा जिनवर आकारके । कु. ।। ६५ ।। सतरे पचीसी सालमें, कियो रास जिन प्रतिमा अधिकारके । विनवे दास जिन राजनो, करो झटपट प्रभु पारके । कु. ॥ १६ ॥ . इतिसंपूर्ण ॥ .............................. १ हमारे ढूंढको तीर्यकरोंके भक्त होके, वीर भगवान के श्रावकोंकोभी-मिथ्यात्वी जे पितरादिक है,उनकी पूजा-दर रोज, करा. नेको उद्यत हुये है, उसमें-आरंभ नहीं, देखो सत्यार्थ पृष्ट. १२४ सें १२६ तक ॥ २ अदृश्यरूप यक्षादिक देवोकी प्रतिमा, बने । मात्र साक्षातरूप तीर्थकरोंकी-प्रतिमा, न बने ।। यह है तो मारी-मा, पिण सो तो वांझनी ? हमारे ढूंढक भाईयांकी अकल तो देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमां मंडन सार. ॥ अथ प्रतिमाकी भक्तिका स्तवन ॥ जिन मंदिर दरसण जाना जीया, जाना जीया सुख पानार्जीया. जिन मंदिर दरसण जानें ते, बोध बीजका पानाजीया. केशर चंदन और अरगजा, प्रभुजीकी अंगीयां रचाना जीया. चंपा मरुवो गुलाब केतकी, जिनजीके हार गुंथाना जिया. द्रौपदीये जिन प्रतिमा पूजी; सूत्र ज्ञाताजी मानो जीया. जिन प्रतिमा जिन सरखी जानो: सूत्र उचाई मानो जीया. रायणरुख समोसर्या प्रभुजी; पूर्व नवाणुं वारा जीया. सेवक अरज करे करजोडी; भव भव ताप मीटावना जीया. ॥ इति संपूर्ण ॥ ( २१ ). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat जि० जि० ए टेक. जि० ॥ १ ॥ जि० ॥ २ ॥ जि० ॥ ३ ॥ जि० ॥ ४ ॥ जि० ॥ ५ ॥ जि० ॥ ६ ॥ || जिन प्रतिमा विषये महात्मा के उद्वारो || जिनवर प्रतिमा जगमां जेह, भावे भवियण वंदो तेह, जिम भवनो हुयें छेह । नामादिक निक्षेपा भेय, आराधनाए सवि आराधेय, नहीं ए कोई हेय । वाचक विष्णु कुण वाच्य कहेय, थाप्या विणु किम सो समरेय, द्रव्य विना न जाणेय । भाव बिना किम www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) तीर्थकरोंका दर्शन.. साध्य सधेय, भाव अवस्था रोपें त्रणेय, भाव रूप सहहेय ॥ १ ॥ ॥ यह प्रथमके उद्गारमें चाली भिन्न है ।। अर्थ-हे भव्यजनो जे आ जगतमां, जिन प्रतिमा है उनको तुम-वंदो, जिसे तुमेरा भवका छेह [ अर्थात् अंत ] आ जावें । जे नामादिक निक्षेपके भेद है, ते सर्वे-आराधना करके, आरा. धन करनेके योग्य है । परंतु त्यागने लायक इसमेंसें एक भी नहीं है । क्यों कि नाम ( वाचक ) विनाके, [वाच्य] तीर्थंकरो ही, नहीं होते है १ । और उनोंकी-आकृति [ मूर्ति ] का, विचार किये बिना-स्मरण भी, नहीं होता है २ । और आकृति है सोद्रव्य वस्तुके बिना, नहीं होती है ३ । और तीर्थकरोका-भाव, दिलमें लाये बिना, अपना जो पापका नाश करने रूप साध्य है, सो भी सिद्ध होनेवाला नहीं है। और नामादिक जे त्रण निक्षेप है, सोही-भाव अस्थाको, जनानेवाले है । इस वास्ते ते पूर्वक त्रणे निक्षेपो ही, भाव रूपसे सहहना करनेके योग्य है ॥ १॥ * ॥ रसना तुज गुण संस्तवे, दृष्टि तुज दरसनि, नव अंग पूजा समें, काया तुज फरसनि । तुज गुण श्रवणें दो श्रवण, मस्तक प्रणिपाते, श्रुद्ध निमित्त सवे हुयां, शुभ परिणति थालें । वि. * ढूंढनीजीने सत्यार्थ पृष्ट. १७ में, लिखायाकि-जिनपद नहीं शरीमें, जिनपद चेतन माह । जिन वर्णन कछ और है, यह जिन वर्णन नांह ॥ १॥ __ इस महात्माका-दूसरा, तिसरा, उद्गारसें । ढूंढनीजी अपना लिखा हुवा दुहाका-तात्पर्य अछीतरां विचार लेवें ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरोंका दर्शन. (२७) विध निमित्त विलासथीए, विलसी प्रभु एकांत, अवतरिओ अभ्यंतरे, निश्चल ध्येय महंत ॥ २॥ _अर्थ-हे भगवन् तेरा गुणोंकी स्तुति करने मात्रसें तो, रसना (जीव्हा ), और मूर्तिद्वारा तेरा दरसणसें दृष्टि । और नव अंगकी पूजा करनेके समयमें मूर्तिद्वारा तेरा स्पर्श करके काया । और तेरा अनेक गुण गर्भित स्तुतिओंका-श्रवण करनेसें, दो श्रवण ( कर्ण)। और मूर्तिद्वारा तेरेको नमस्कार करनेके अवसरमें-मस्तक । यह सर्व प्रकारके, हमारे अंगके अवयवो, शुभ निमित्तमें जुडके, हमारी शुभ परिणति होते हुयें, ऐसे विविध निमित्तोके योगसें, हमारा अभ्यंतरमें दाखल हुयेला प्रभुको, एकांत स्थलमें विलसेंगे, तबही निश्चयसें ध्येयरूपे भगवान होगा । इसमें तात्पर्य यह है कि-प्रथम प्रभुकी मूर्तिका शुभ निमत्तमें, हमारे अंगके-अवयवोको, व्यवहारसें जोडेगे, उनके पिछे हीतीर्थकर भगवान्का स्वरूप, निश्चयसें हमारी परिणतिमें दाखल होंगे ? परंतु तीर्थंकरोंकी-आकृतिरूप, बाह्य स्वरूपका शुभ निमित्तमें, हमारे अंगोके जोडे बिना, निश्चय । स्वरूपसें तीर्थंकरोंका स्वरूपको तीन कालमें भी न मिलावेंगे ।। २ ॥ ॥ भाव दृष्टिमां भावतां, व्यापक सविठामि, उदासीनता अवरस्युं, लीनो तुज नामि । दिठा विणु पणि देखिये, मृतां पिण जगवें, अपर विषयथी छोडवें, इंद्रिय बुद्धि त्यजवें । पराधीनता मिट गए ए, भेदबुद्धि गइ दूर, अध्यात्म प्रभु प्रणमिओ, चिदानंद भरपुर ॥ ३ ॥ ____ अर्थ--पूर्वके उद्गारका तात्पर्य दिखाने के वास्ते, यही महात्माअपना अभिमाय प्रगटपणे जाहिर करते है । सो यह है कि-भाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) करोंका दर्शन. दृष्टिमां भावतां व्यापक सर्वाठामि इस वचनका तात्पर्य यह है " कि हे भगवन् जब हम हमारी जीव्हासें ऋषभदेवादिक महावीर पर्यंत, दो चार अक्षरोंका उच्चारण करके तुमेरा नाम मात्रको लेते है, जहां पर भी व्यापकपणे हमको तूं ही दिखलाई देता है । और हमारी दृष्टि मात्र जब तेरी आकृति ( अर्थात् मूर्त्ति ) को देखते है, तब भी उहांपर, हे भगवन हमको तूंही दिखलाई देता है । और तेरी बालक अवस्थाका, अथवा तेरी मृतकरूप शरीरकी अवस्थाका विचार करते है उहां पर भी, हमको तूंही दिख पडता है | और तेरा गुण ग्राम करने की स्तुतिओंको पढते है, उहांपर भी हमको ही दिख पड़ता है । क्योंकि जब हमारी भावदृष्टिमें, हम तेरेको भावते है; तब हे भगवन्- सर्व जगेपर, हमको तूंही व्यापकपणे, दिखता है। परंतु उदासीनता अवरस्युंलीनो तुज नामि, तात्पर्य यह है कि - जब हम - ऋषभदेवादिक महावीर पर्यंत, नाम के अक्षरोंका उच्चारण करते है, तब हम इन अक्षरोंसें, और इस नाम वाली दूसरी वस्तुओं से भी, उदासीनता भाव करके, हे भगवन हम तेरा ही नाम में लीन होके, तेरा हो, स्वरूपको भा बते है । इस वास्ते हमको - दूसरी वस्तुओ, बाधक रूपकी नहीं हो सकती है | एसें ही-हे भगवन् तेरी आकृति ( अर्थात् मूर्त्ति ) को देखते है, उस वखत भी - काष्ट पाषाणादिक वस्तुओंसें भी, उदासीनता रखके ही, तेरा ही स्वरूपमें लीन होते है । एसें ही हे भगवन् तेरी पूर्व अपर अवस्थामें, जो जड स्वरूपका शरीर है, उस वस्तुसे भी - उदासीनता धारण करके, हम तेरा ही स्वरूपमें लीन होते है । इसमें तात्पर्य यह कहा गया कि - १ नाम के अक्षमें | और २ उनकी आकृतिमें । और ३ उनकी पूर्व अपर अत्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरोंका दर्शन. (२९) स्थामें भी, साक्षात् स्वरूपसें भगवान् नहीं है तो भी, हम भक्तजन है सो-भावदृष्टिसें, भगवान्को ही साक्षात्पणे भावनासें कर लेते है। इसवास्ते आगे कहते है कि-दिठाविणं पणि देखिये, तात्पर्य-हे भगवन् न तो हम तुमको-ऋषभादिक-नामके अक्षरोंमें, साक्षात्पणे देखते है । और नतो तेरेको-मूर्ति मामें, साक्षात्पणे देखते है । और नतो तेरेको पूर्व अपर अवस्थाका शरीरमें भी, साक्षात्पणे देखते है । और नतो तेरा गुणग्रामकी स्तुतिओंमें भी, तेरेको साक्षात्पणे देखते है । तोभी हम तेरेको हमारी भावदृष्टिसें- सर्व जगेंपर ही देख रहै है। और हे भगवन्! हम अनादिकाल के अज्ञानरूपी अघोर निद्रामें मुते है, तोभी तूं अपना अपूर्व ज्ञानका-बोध देके, हमको जगावता है। इसी वास्ते महात्माने अपना उद्गारमें कहाहै कि-सुतांपिण जगवेंअर्थात् एसी अघोर निद्रा सेंभी, तूं हमको जगावता है । इतनाही मात्र नहीं परंतु जब हम तेरी भक्ति में लीन होजायगें, तब जो हमारी इंद्रियोंमें इंद्रियपणेकी बुद्धि हो रही है, सोभी तेरी भक्तिके वससें-छुट जायगी, हसीही वास्ते महात्माने कहा है किइंद्रिय बुद्धि त्यजवें,जब ऐसें इंद्रियमेंसें इंद्रिय बुद्धि हमारी छुट जायगी, तब हमारी जो पराधीनता है सोभी-मिट जायगी। इसी वास्ते कहा हैकि-पराधीनता मिटगए ए, जब एसी पराधीनता मिटजायगी-तब जो हमको तेरा स्वरूपमें, और हमारा सरूपमें भेदभाव मालूम होता है, सोभी दूर हो जायगा । इसीवास्ते महात्माने कहा हैकि-भेदबुद्धि गई दूर,जब ऐसें-भेदबुद्धि, न रहेगी तबही हे भगवन्-तेरा साक्षात स्वरूपको हम नमस्कार करेगे । परंतु पूर्वमें दिखाइ हुई अवस्थोमे, तेरेको हम साक्षात्पणे-नमस्का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) तीर्थकरोंका दर्शन. र, नहीं करसकतेहै । जब ऐसा अनुक्रमसें दरजेपर जावेंगे तब तेरेको हम साक्षात्पणे नमस्कार करनेके योग्य होजावेंगे । तब तो हम हमारा आत्मामें ही मनरूप होजायगे । इसी हीवास्ते महात्माने कहा है कि-चिदानंद भरपर, जब हम एसें चडजावेंगे तबही हम हमारा आत्माके आनंदमें भरपुर मनरूप हो जायगे । तब हमको कोईभी प्रकारका दूसरा साधनकी जरुरात न रहेगी ॥ ३ ॥ अब हम इन महात्माके उद्गारोंका तात्पर्य कहते हे-जब हमको साक्षात्पणे-तीर्थंकरोंको, नमस्कार करनेकी इच्छा होगी, तब हम इस महात्माने जो क्रम दिखलाया है, उस क्रम पूर्वक तीर्थंकरोंकी सेवा करनेमें-तत्पर होंके, महात्माने दिखाई हुई हदको पुहंचेंगे, तबही हमारा आत्माको साक्षात्पणे तीर्थंकरोंका दर्शन, करा सकें. गे। परंतु पूर्वको अवस्थामें तो-इस माहात्माके कथन मुजब,१नाम स्मरण,२ प्रतिमाका पूजन, और ३तीर्थंकरोंकी स्तुतिओंसें-गुणग्राम करकेही, हम हमारा आत्माको यत्किंचित्के दरजेपर, चढा सकेंगे। परंतु पूर्वके शुभ निमित्तों मेंसें, एकभी निमित्तका त्याग करके-साक्षात्पणे तीर्थंकरोंका दर्शन, तीनकालमेंभी न करसकेंगे ? क्योंकि जबभी ऋषभदेवादिक-नामोंके अक्षरोंमें, तीर्थकरो नहीं है, तोभी हम उनको उच्चारण करके-वंदना, नमस्कार, करते हीहै । तो पिछे तीर्थकरोंका विशेष बोधको कराने वाली तीर्थकर भगवानकी-मूतिको, वंदना, नमस्कार, क्यों नहीं करना ? यह तो हमारी मूढताके शिवाय, इसमें कोई भी प्रकारकी दूसरी बात नहीं है. ॥ इत्यलंविस्तरेण ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरादिकनिंदक, माधव ढूंढक ॥ श्री मज्जैन धर्मोपदेष्टा माधव मुनि विरचित ॥ स्तवन तरंगिणी द्वितीय तरंग. साधुमार्गी जैन उद्योतनी सभा, मानपाडा आगराने ज्ञान लाभार्थ मुद्रित कराया || ( ३१ ) अथ स्थान सुमति संवाद पद | राग रसियाकीमें || अ० ॥ ४ ॥ अजब गजबकी बात कुगुरु मिल, कैसो वेश बनायोरी || ढेर || मानो पेत शेत पट ओढन, जिन मुनिको फरमायोरी. अ० ॥ १ ॥ कल्पसूत्र उत्तराध्ययनमें, प्रगटपणे दरसायोरी. तो क्यों पीतवसन केसरिया, कुगुरुने मन भायोरी. भिन भये निर्मल चारितसे, तासे पीत सुहायोरी. नही वीर शासन वरती हम, यों इन प्रगट जतायोरी अ० ॥ ५ ॥ तो भी मूढमति नहीं समजे, ताको कहा उपायोरी. अ० ॥ रजोहरणको दंड अहित, मुनि पटमांहि लुकायोरी. तो क्यों आकरणांत दंड अति, दीरघ करमें सह्योरी. त्रिविध दंड आतम दंडानो, ताते दंड रखायोरी. मुहणंत मुखपै धारे विन, अवश प्राणि वध थायोरी. अ० ||१०|| तो क्यों कर में करपति धारी, हिंसा धरम चलायोरी. अ० || ११|| ६ ॥ अ० ॥ ७ ॥ अ० ॥ ८ ॥ अ० ॥ ९ ॥ 300 112 11 अ० ॥ ३ ॥ १ जैन धर्मका - मुख किधर है, इतने मात्रकी तो - खबर भी नहीं है, तो भी जैन धर्मके-उपदेश बन बैठे है ? ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat २ सम्यक्क शल्योद्धार, और यह हमारा ग्रंथ से भी थोडासा विचार करो ? तुमेरेमें मूढता कितनी व्याप्त हो गई है ? || www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) तीर्थकरादिकनिंदक, माधव ढूंढक. विपत कालमें वेश बदल इन,मांग मांग कर खायोरी. अ० ॥१२॥ पडी कुरीत कहो किम छुटे, पक्षपात प्रगटायोरी. अ० ॥१३॥ क्या अचरजकी बात अलीये,काल महातम छायोरी. अ०॥१४॥ स्यान मुमति संवाद सुगुरु मुनि,मगन पसायें गायोरी. अ० ॥१५।। ॥ इति ।। ॥ पुनः॥ तीन खंडको नायक ताको, रूप बनायें जाली है। देखो पंचम काल कलूकी, महिमां अजब निराली है. ॥ टेर ।। पामर नीच अधम जन आगे, नाचें दे दे ताली है. दे०॥ २ ॥ पदमा पतिको रूप धारके, मागें फेरै थाली है. . दे० ॥ ३ ॥ बने मात पितु जिनजीके, ये बात अचंभे वाली है. दे० ॥ ४ ॥ जंबूरुप बनाके नांचे, कैसी पडी प्रनाली है. दे॥५॥ - इत्यादिक निंदाकी पोथी विक्रम संवत्. १९६५ में आगरे वालोने छपाई है ॥ १ प्रथम देख आजीविका त्रुटनेसें विपत्तिमें आके- लोंकाशा बनीयेने, मांग मांगके खाया ? ॥ पिछे गुरुजीके साथ लडाइ हो जानेसें-विपत्तिमें आके, लवजी ढूंढकने-मांग मांगके खाना सरु किया । तुम लोक भी गप्पां सप्पा मारके, उनोंका ही अनुकरण कर रहे हो ? दूसरोंको जूठा दूषण क्यों देते हो ? ॥ . २ तीर्थकर भगवानके वैरी होके--पितर, भूत, यक्षादिकोंकी प्रतिमाको पूजाने वाले.--नीच, अधम, कहे जावेंगे कि---तीर्थकरोंके भक्त ? उसका थोडासा विचार करो ॥ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरादिक निंदक, माधव ढूंढक. पुनः पृष्ट. ३० में-लावणी बहर खडी ।। - मणी मुकरको जो न पिछाने, वो कैसा जोहरी प्रधान । जो शठ जड चेतन नहीं जाने, ताको किम कहियै मतिमान ।। टेर । जडमें चेतन भाव विचारे, चेतन भाव धरें। प्रगट यही मिथ्यात्व मूढ वो, भीम भवोदधि केम तरें ।। मुक्त गये भगवंत तिन्होंका, फिर आद्यानन मुख उचरे । करें विसर्जन पुन प्रभुजीका, यह अद्भुत अन्याय करें । दोऊ विध अपमान प्रभुका, करें कहो कैसें अज्ञान. जो शठ.॥१॥ श्रुत इंद्री जाके नहीं ताको, नाद बजाय सुनावें गान । चक्षु नहीं नाटक दिखलावें, हाथ नचाय तोड करतान । जाके घ्राण न ताको मूरख, पुष्प चढावें बे परमान । रसना जाके मुखमें नाहीं, ताको क्यों चांहें पकवान । फोगट भ्रम भक्तीमें हिंसा, करें वो कैसे हैं इन्सान. जो० ॥ २ ॥ जव गोधूम चना आदिक सव, धान्य सचित जिनराज मने । .. प्रगट लिखा है पाठ सूत्र, सामायिक मांहीं बियकमने । दग्ध अन्न अंकुर नहीं देवै, देखा है परतक्षपणे । तो भी शठ हठसे बतलावे, अचिन कुहेतू लगा घणे । अभिनिवेश उन्मत्त अज्ञको, आवे नहीं श्रुद्ध श्रद्धान. जो. ॥ ३ ॥ १ जिन पूजन छुडवायके, पितरादिक पूजाते है उनको, मणि काचकी खबर नहीं है कि हमको ? विचार करो?॥ २ प्रतिष्टादिक कार्यों आव्हान, और विसर्जन, इंद्रादिक देवताओंका किया जाता है । इस ढूंढकको खबर नहीं होनेसें, भगवानका लिखमारा है ? गुरु विना ज्ञान कहांसे होगा ? ॥ - ३ यह ढूंढक-हमको उन्मत्त, और अज्ञान-ठहराता है। परंतु पहिलेसें ख्याल करोकि, ढूंढनी पार्वतीजी—यक्षादिक, पितरादिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) ढूंढक कुंदनमलजीका पुकार. श्रुद्ध श्रद्धान विना सब जप तप, क्रिया कलाप होय निस्सार । विन समाकत चउदह पूर्वके, धारी जांय नरक मंष्भार । हे समकित ही सार पाय, नरभव कीजै सत असत विचार । सुगुरु मगन सुपसाय पाय मति, माधव कहैं सुनों नरनार । तजके पक्ष लखो जड चेतन, व्यर्थ करो मत खेंचातान. जो. ॥४॥ ॥ इति ॥ ॥ प्रगट जैन पीतांबरी मूर्तिपूजकोका मिथ्यात्व ॥ ग्रंथ कर्ता. गछाधिपति श्रीमत्परमपूज्य श्री १००८ श्री रघुनाथजी म. हाराजके संप्रदायक महामुनि श्री कुंदनमलजी, महाराज नाम धारक ढूंढक साधुने, कितनाक प्रयोजन बिनाका--अगडं बगडं लिखके, छेवटमें एक स्तवन लिखा है. देवांकी मूर्तियांकी-पूजा करानेको, तत्पर हुई है.। उस मूर्तियांको कौनसा चेतनपणा है ? और वह मूर्तियांकी कौनसी इंद्रियां काम कर रहियां है ? जो केवल अपना परम पूज्यकी, परम पवित्र मूर्तियांकी, अवज्ञा करके-अपना उन्मत्तपणा, और अपना अज्ञानपणा, जाहीर करते हो ?॥ १ जबसे तीर्थकर देवकी मूर्तियांकी, और जैन सिद्धांतोंकी, अवज्ञा करके-यक्षादिक, पितरादिक देवताओंकी-मूर्तियांके भक्त बननेको, तत्पर हुये हो तबसें ही तुमेरा समकित तो, नष्ट ही होगया है । तुम समकित धारी बनते हो किस प्रकारसे ? ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंढक कुंदनमलजीका पुकार. (३५) ॥राग. भुंडीरे भूख अभागणी लालरे. एदेशी ॥ १मच्यो हुलर इन लोकमें, खोटो हलाहल धार लालरे । सांच नहीं रंच तेहमें,मिथ्यात्वी कियो पोकार लालरे । मच्यो ।।१।। कुंदन मुनि, राजमुनि, निंदक जिन प्रतिमाका होय लालरे । तेपिण ठिकाणे आविया,लीजो पित्रिका जोय लालरे । मच्यो ॥२॥ ? यह स्तवन उत्पत्ति होनेका कारण यह है कि-नागपुरपासें-हिंगनघाट गाममें, मंदिरकी प्रतिष्टामें, दोनोपक्ष सामिलथें कंकु पत्रिका-संवेगी सुमतिसागरजीका, तथा मणिसागरजीकानाम, दाखल कियाथा॥ इस ढूंढकने-खटपट करके, अपना-नाम भी,दाखल करवाया। तब जैन पत्रमें, इस ढूंढककी-स्तुति, कीई गईथी, ते बदल कपीला दासीका, अनुकरण करके, यह पुकार किया है | ___ और एक अप्रासंगिक व्यवहारिक विचारको समजे बिना उ. समें अपनी पंडिताई दिखाई है ? ऐसे विचार शून्योको हम वारंवार क्या जुबाप देवें ? जो उनको समज होगी तब तो यह हमारा एकही ग्रंथ बस है ? ॥ ॥ इस ढूंढकने पृष्ट-१३ में लिखा है कि, मुनी या श्रावक म. त्यक्ष मरणकी पर्वा न करके अन्यमतके धर्मका, देवका, गुरुका, व तीर्थका, शरण कदापि नहीं करेंगे, और नहीं श्रद्धंगे । इसमें कहनेका इतना ही है कि, ढूंढन जी तो-वीर भगवानके, परम श्रावकोकी पाससे भी-पितर, दादेयां, भूतादिकोकी-मूर्ति, दररोज पूजानेको, तत्पर हुई है । हमारे ढूंढक भाईयांका ते मत किस प्रकारका समजना ? ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६) जिन प्रतिमाके निंदकोंको शिक्षा. एहवा ठिकाणे आविया, दूजाने आणो चाय लालरे । एहवा मिथ्या लेख मोकल्या, देश देशांतरमांय लालरे । मच्यो।।३।। तीन कर्ण तीन जोगसुं, भलो न सरदे मुनिरायरे । छकायारा आरंभथी, उत्तम गति नहीं थाय लालरे । मच्यो ॥४॥ चतुर विचारो चित्तमां, कीजो निर्णय एह लालरे । तत्त्वातत्व विचारथी, कुगुरुने दीजो छह लालरे । मच्यो ॥ ५ ॥ कुंदन नाहटारी ए विनती, मुणजो सारा लोक लालरे । दया पालो छकायनी, तो पामो बंछित थोक लालरे । मच्यो ॥६॥ साल पेंसठ ओगणीसकी. ज्येष्ठ शुक्ल मजार लालरे । धर्मध्यान कर शोभतो,अमरावती शहर गुलजार लालरे मच्यो ॥७॥ ॥ अथ जिन प्रतिमाके निंदक, ढूंढक शिक्षा बरोशी ॥ कका कर्म तणी गति देखो, ढूंढक नाम धराया है। जिनके नामसें रोटोखावे, तिनका नाम भूलाया है ॥ जिन मारगका नाम विसारी, साध मारग निपजाया है। सीखमान सद्गुरुकी ढूंढक, विरथा जनम गमाया है ||१|| ए टेक।। खख्खा खोजकर जैनधर्मकी, मारग तुम नहीं पाया है । वासी विद्दलखाके तुमने, खरा धरम डुबाया है ।। अंदरका मुख खुल्ला रखके, उपर पाटा खांच्या है। सीख० ॥२|| गग्गा ग्लिचपणाकर गाढा, जैन धरम लजवाया है। सूत्र निशीथ उद्देशे चौथे, अशुची दंड गवाया है ॥ .. गपड सपड कर जूठ लगावे, सत्यसेती गभराया है। सीख० ॥३॥ घध्या घरकी खबर करो तुम, क्या घर बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रतिमा निदकों को शिक्षा. वारगुणे अरिहंत बिराजे, पाठ कहां दरसाया है ॥ मनको भाया मानलिया, मनकल्पितपंथ चलाया है। सीख० ||४|| चच्चा चोरी देवगुरुकी, करके सर्व चुराया है। भाष्य चूर्णि नियुक्ति टीका, अर्थसें चित्त चोराया है ॥ ( ३७ ) चितकल्पित जूठे अर्थोस, सच्चा अर्थ चुराया है। सीख० ॥ ५ ॥ छच्छा छपछरीको चालीश, वीसचोमा छांन्या है । सी० ॥ ६ ॥ पक्खी बार लोगस्सका काउसग, पुछो किसमें गाया है || मूल मात्र बत्ती सूत्रोंका, खोटा हठकी छाया है ॥ जज्जा जिनवर ठाणा अंगे, ठदणा सत्य ठराया है । प्रभु पडिमाको पथ्थर जाणे, जालप कैसा जाया है ॥ चार निखेपा जोग जनाया, जिन आगम में जोया है | सी० ||७|| झझ्झा जूठ बतावे केता, जेता जैनमें गाया है । तीर्थंकर गणधर पूरवधर, सबको जेब लगाया है || मुखपर पाटा कान में डोरा, दैत्यसारूप बनाया है । सी० ॥ ८ ॥ टट्टा टोल देख टोंटों के, क्या गणधर फरमाया है । रायपसेनी सत्तर भेदें, जिन प्रतिमा पूजाया है ॥ हितसुख मोक्ष तथा फल अर्थे, मगटपणे बतलाया है || सी०||९|| १ बत्रीश सूत्रोंके मूल पाठ में- अरिहंत के १२ गुण । और १८ दूषणका वर्णन नहीं हैं। तोपि छ हमारे ढूंढक भाईओ, कहांसें लाके पुकारते हैं, ते उनका मान्य ग्रंथ बतलावें || २ पंजाब तरफ एक अजीव पंथी ढूंढीये है, जिसको सत्यार्थ. पृ. १६७ में ढूंढनीजीने में में करनेवाले लिखेथे, सो हमेश चारलोकाही काउसगकरते है । और जीव पंथी - छ मरीको ४० । चोमासीको २० । पक्खीको १२ का करते है । परंतु बत्रीश सूत्रका मूल पाठ में यह विधि नहीं है। ऐसी बहुतही बातें नहीं है || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) जिन प्रतिमा निंदकों को शिक्षा. ठठा ठिक नजर नहीं गवे, सूत्र उवाई ठराया है। अंबड श्रावकके अधिकारे, अर्थ ते प्रतिमा ठाया है । चैत्य शब्दका अर्थ मरोडी, जूठे जूठ जताया है। सी० ॥ १०॥ डड्डा डर नहीं डाले डिलमें, डामही डोल चलाया है। आनंद श्रावक के अधिकारे, अरिहंत चैत्य दिखाया है ॥ गपड सपडका अर्थ करीने, जड भारती भडकाया है । सी० ॥११|| ढढढा ढूंढक नाम धराया, पिण ते जूठा ढूंढया है ।। मूढ दृढता माया ममता, गूढपणे गोपाया है ॥ जूठ कपट शठ नाटक करके, जग सारा भरमाया है । सी० ॥१२॥ तत्ता तीर्थ भूलायेसारे, तालों सेती चुकाया है। अपने आप तीरथ बन बैठे, मूढ लोक भरमाया है । माने वांदो माने पूजो, यह बिपरीत सिखलाया है । सी० ॥१३॥ थथ्था थोडी मान बडाई, खातर क्यौं थडकाया है । थोथापोथा प्रगट कराके, परमारथ उलटाया है। सूत्र अरथका भेद न जाने, पंडितराज कहाया है । सी० ॥ १४ ॥ दद्दा दंडा दशवैकालिक, प्रश्न व्याकरण दाया है । (१)ढूंढकोने-शत्रुजय, गिरनारादिक, तीर्थोंको भूलाके जिसको तीन तेरकीभी खबर नहीं है, उनके चरणांकी स्थापना करके, अथवा समाधि बनवा करके, पूजते है । जैसें पंजाब देशका-लूधीयानामें, मोतीराम पूज्यकी समाधि । जगरांवा, तथा रायकोट में, रूपचंद ढूंढियेके चरण, तथा समाधि । अंबालेमें, चमार जातिका लालचंद ढूंढियाकी समाधि ॥ हमारे ढूंढकभाइओ-तीर्थंकरोंकी निंदाकरके, अपने आप तीर्थरूप बन बैठे है ? ॥ (४) बहुतही ढूंढिये लाठीलेके फिरते है तो पिछे माधव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन प्रतिमाके निंदकों को शिक्षा. (३९) आचारांग निशीथादिमे, भगवई पाठदिखाया है। हठ दृढ छोड देखे बिन तुमको, पाठ निजर नहीं आयाहै।सी०१५॥ धध्धा धर्म जैन नहीं तेग, धोका पंथ धकाया है । अपने आप बनाजो ढूंढा, लवजी आदि धराया है । बांधी मुखपर पट्टी सतरां, वीसमेंपारो' गाया है । सी० ॥ १६ ॥ नन्नानये कपडेको पसली, तीन रंग नंखाया है । [२] सूत्र निशीथमें देख पाठ तं, क्यौं इतना गभराया है ॥ इसी सूत्रमें देखले बाबत,रजोहरण क्या गाया है। सी. ॥ १७ ॥ पप्पा पंचकल्याणक जिनवर, जिन आगममें पाया है। इंद्र सुरासुर मिलकर उत्सव, करके अतिहर्षाया है। द्वीप नंदीश्वर भगवइ जंबू द्वीप पन्नती बताया है । सी० ॥ १८ ॥ फफ्फा फेर नहीं भगवतीमें, फांफा मार फिराया है । जंघा चारण विद्या चारण, मुनियों सीस निवाया है ।। नंदीश्वरमें कहांसें आया, जो ज्ञानका ढेर बताया है । सी० ॥१९॥ बब्बा बड़े बिबेकी देवा, दश वैकालिक गाया है । शुद्ध मुनिको सीस निमावे, नर गिनती नहीं आया है ।। तदपि ढूंढक ते देवनका, करना बोज बताया है । सी० ॥ २० ॥ ढूंढक क्यौं निंदता है ? । तुम कहोंगेकि बूढा रक्खे, तबतो सविस्तर प्रमाण दिखावो ? नहीं तो तुमेरा बकवाद मूढपणेका है ? ॥ (१) ढूंढनी पार्वतीजीने, अपनीज्ञानदीपिकामें लिखा है किसं. १७२० में, लवजीने मुहपत्तीको मुखपर लगाई, और ढूंढा नामभी पडा ? ॥ [२] निशीथ सूत्रमें -प्रमाण रहित रजोहरण [ ओघा ] रखनेवालोंको दंड लिखा है। हे भाई माधव ढूंढक ? तूं भी अपना रजोहरणका प्रमाण ढूंढ. किस वास्ते फोगट बकवाद करता है ? ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) जिन प्रतिमाके निंदकोंको शिक्षा. भभ्भा भरम पडा है भारी, तत्त्वज्ञान नहीं भाया है। हिंसा हिंसा रटकर मुखसें, आज्ञा धरम भूलाया है। हिंसा दयाका भेद न जाने, भोलेको भरमाया है । सी०॥ २१ ॥ मम्मा मुनि श्रावक दो भेदे, धरम आगममें मान्या है। सम्यग् दृष्टि मुरगण संघ, चतुरविधे फरमाया है ॥ जिनके गुणगानेसें परभव, धरम सुलभ बतलाया है। सी० ॥२२॥ यय्या यह है पाठ ठाणांगे, औरभी यह फरमाया है। जो अवगुण बोलें सुरगणका, दुर्लभ बोधि कहाया है । अचरीज ऐसे पाठ योगसें, जरा न मनमें आया है । सी०||२३ ।। ररा रोरो नहीं छुटेगा, राह विना रमाया है । उन्मारगको मारग समजा, यही रणमें रोलाया है। अभुपूजाका त्याग कराके, रामाराज चलाया है। सी० ॥ २४ ॥ लल्ला लक्ष द्रव्यसें पूजा, 'वीरमभु जब जाया है। कल्प सूत्रका लाभ न माने, अवज्ञाकरके लुराया है । पिण तेतो प्रसिद्ध विलायत, लिख अंग्रेजो लुभाया है ।सी०॥२५॥ वन्या विधिसे काउसग वरणा, २आवश्यक विवराया है। दक्षिण हाथ मुहपत्ति बोले, बामे ओघा बताया है ।। लोकशास्त्र विरुद्धपणे ते, मुखपर पाठा बांध्या है। सी. ॥ २६ ॥ १-१४ पूर्व धरकी नियुक्तिके पाठमें-यह काउसग करनेकी विधि दिखाइ है । इसको तुम प्रमाण नहीं करते हो, तो पीछेमनाकल्पित मुखपर पाटा चढानेका ते कौन प्रमाण करेगा ? ॥ जो अपनी सिद्धि दिखानेको फिरते हो ? ॥ २ यशोविजयजीभी कहते है कि-सिद्धारथ राइं जिन पूज्या, कल्पसूत्रमा देखो । इत्यादि उनोंकी स्तवनकी दशमी गाथामें देखो ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमाके निंदाकोंको शिक्षा. (४१) शश्शा शरमाता नहीं सांढा, सासा सांग सजाया है। तोभी शठ शउता नहीं मुके, जोर जूलम दरसाया है ।। एकको बांध अनेक को छोड़ा, क्या अज्ञान फसाया है। सी०॥२७॥ षष्षा षष्टे अंगे पूजा, द्रौपर्दाका दरसाया है। श्रावकका पदकमज्या है, पुल्लेषुल्ला आया है ॥ पाचुंजय पुंडरगिरि झाता सूत्रका पाठ भूसाया है । सी. ॥ २८ ॥ मस्सा संघ तजाया प्रभुका, अपना संघ सजाया है। जैन धरमसें विपरीत करके, शुद्ध बुद्ध विसराया है । कौशिक सम जिन सूरजसेती, द्वेषभाव सरजाया है। सी ।। २९ ॥ हहा हिया नहीं ढूंढक तुजको, हा ते जन्म हराया है। हलवे हालें हलवें चालें, पिण हालाहल पाया है ।। होस हटाकर श्रावक चितको, चक्कर चाक चढाया है। सी.॥३०॥ ढूंडक जनको शिक्षादेके, योग्य मारग बतलाया है। जो जो निंदक ढूंढक मुरख, तिनके प्रति जतलाया है ॥ कथन नहीं ए द्वेषभावसुं, सिद्धांत वचनसें गाया है। सी. ॥ १॥ तीर्थकर प्रतिमाका चितसें, भक्तिभाव दरसाया है। और भी बोध किया है इसमें, सूचन मात्र दरसाया है। तीर्थकरका बल्लभने तो, दिन २ अधिक सवाया है।सी. ॥ ३२ ॥ ॥ इति माधब ढूंढक उद्देशीने, केवल निंदक ढूंढकोंको, यह शिक्षाकी पत्रीसीसे समजाये है ।। संपूर्ण । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (42) जिनप्रतिमाके निंदाकोंको शिक्षा. // अथ ढूंढक शिक्षा लघुस्तवन / / मत निंदो ढूंढक जिन मूरति / मत० ए टेक // . .. जिन मूरति निंदा करनेसें / नहीं लेखे होय तुम विरति / म० // 1 // कष्ट करो पिण ते सुकृतमें / मुको जलती तुम बत्ति / म० // 2 // प्रगट पाठका लोप करनको / मत करो तुम काठी छाती / म०॥३॥ जिनके बदले वीर श्रावकको / पूजावो न भूतादिक मूरति म०॥४॥ वरकी खोट दिखाके द्रौपदीको। पूनावो न कामकी मूरतिम०॥१॥ सुरगण इंद नरींद पूजी / ते निंदो कहीने अविरति? म० // 6 // मित्रकी मूरतिसें प्रेम जगावो / जिन मूरतिमें ही मूढमति ।म० // 7 // स्त्रीकी मूरतिसें काम जगावो / जिन मूरतिमें नहीं भक्तिमतिम०८) घोडा लाठीका नरम वचनसें / घोडा कहीने हटावे जति ।म० // 9 // पहाड पाषाण जिन मूरतिको केहतांलाज न तुमको भ्रष्ट मति 10 जिनके नामसें रोटी खावो / तीनकी निंद करो पापमति |म०॥११॥ भूतादिक पूजावोभावे / उहां न बतावो तुम हिंसा रति / म०१२॥ हिंसा दयाका भेद जाने विन / मत बनो तुम आतमघाति।म०।१३। तीर्थकरकी निंदा करतां / नष्ट होय निश्चेहि विभूति / म० // 14|| मुनि श्रावकका भेद न समजो। भ्रष्ट करो गृहीकी विरतिाम०॥१५॥ कही हित शिक्षा यह छोटी / नहीं ईर्षाकी करी है. मति ।म०॥१६॥ अमर कहें निंदा जिनवरकी। तीक्ष्ण धाराकी काति / म०॥ 17 / / // इति ढूंढक शिक्षा लघु स्तवनं समा / / - // इति मुनिराजश्री अमरविजय कृता श्री जिनपतिमा मंडन स्तधन संग्रहावली समाप्ता / / - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com