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(३८) जिन प्रतिमा निंदकों को शिक्षा. ठठा ठिक नजर नहीं गवे, सूत्र उवाई ठराया है। अंबड श्रावकके अधिकारे, अर्थ ते प्रतिमा ठाया है । चैत्य शब्दका अर्थ मरोडी, जूठे जूठ जताया है। सी० ॥ १०॥ डड्डा डर नहीं डाले डिलमें, डामही डोल चलाया है। आनंद श्रावक के अधिकारे, अरिहंत चैत्य दिखाया है ॥ गपड सपडका अर्थ करीने, जड भारती भडकाया है । सी० ॥११|| ढढढा ढूंढक नाम धराया, पिण ते जूठा ढूंढया है ।। मूढ दृढता माया ममता, गूढपणे गोपाया है ॥ जूठ कपट शठ नाटक करके, जग सारा भरमाया है । सी० ॥१२॥ तत्ता तीर्थ भूलायेसारे, तालों सेती चुकाया है। अपने आप तीरथ बन बैठे, मूढ लोक भरमाया है । माने वांदो माने पूजो, यह बिपरीत सिखलाया है । सी० ॥१३॥ थथ्था थोडी मान बडाई, खातर क्यौं थडकाया है । थोथापोथा प्रगट कराके, परमारथ उलटाया है। सूत्र अरथका भेद न जाने, पंडितराज कहाया है । सी० ॥ १४ ॥ दद्दा दंडा दशवैकालिक, प्रश्न व्याकरण दाया है ।
(१)ढूंढकोने-शत्रुजय, गिरनारादिक, तीर्थोंको भूलाके जिसको तीन तेरकीभी खबर नहीं है, उनके चरणांकी स्थापना करके, अथवा समाधि बनवा करके, पूजते है । जैसें पंजाब देशका-लूधीयानामें, मोतीराम पूज्यकी समाधि । जगरांवा, तथा रायकोट में, रूपचंद ढूंढियेके चरण, तथा समाधि । अंबालेमें, चमार जातिका लालचंद ढूंढियाकी समाधि ॥
हमारे ढूंढकभाइओ-तीर्थंकरोंकी निंदाकरके, अपने आप तीर्थरूप बन बैठे है ? ॥
(४) बहुतही ढूंढिये लाठीलेके फिरते है तो पिछे माधव
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