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MAHAPSARMISSIOGIESeve
SA
प्राचीन स्तवनावली
संशोधक व संग्राहक, यति श्रीरामपालजी
प्रकाशक
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SORRORSCORGE00000@EORIGRASSROGR
उमरावसिंहजी डूंगरिया।
(श्रीमाल) देहली, वीराद्ध २४५१ विक्रमाद्ध १९८६
5 प्रथमवारे १००० ]
[ मूल्य सप्रेम पठन
विक्टोरिया क्रॉस प्रेस, दरियागंज देहली,
में मुद्रित हुई । GGERECOHORCEDERIES
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लाला हजारीमलजी डूंगरिया (श्रीमा Conno100.
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Paroon0000000000000000000000
जन्म संवत् १६४१, ]
[ मृत्यु संवत् १६७६, मा.श्री केलाससागर म्ररि ज्ञान मंदिर श्री महावीर जैन आगमन के कोमा
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* भूमिका
इस छोटी सी पुस्तक को श्रापके सम्मुख रखने का मुझे जो साहस हुआ है, उसके हेतुभूत उमरावसिंह जी ( टांक ) वकील हैं। क्योंकि एक दिन मुनिहरिसागरजी के पास उक्त महाशय बैठे थे, उस समय मैं भी उपस्थित था। तब क्षमा कल्याण जी चिदानन्द जी और श्रानन्दघनजी की कृतियों का ज़िक चल रहा था । उसी समय उमरावसिंहजी ने फर्माया कि श्रीरंगसुरिजी से लेकर अद्यावधि जितने भी श्राचार्य लखनऊ की गादी के कहलाने वाले हुए. उन सबकी कृतियां देखने में नहीं आतीं। दो एक स्तवन रंगसूरिजी कृत दादाजी महाराज के स्तुति रूप नज़र श्राते हैं, और कोई कृतियां व उनका इतिहास मालूम नहीं देता उस वक्त मेरे हृदय में गहरी ठेस लगी कि क्या हमारे आचार्यों की कृतियां कुछ भी नहीं हैं, इसी कारण मैंने उनकी कृति की गवेषणा की । उस गवेषणा के करने पर इतनी कृति याने जितने स्तवन दोहे श्रीरंगसुरिजी महाराज, नन्दीवर्द्धनसूरिजी व कल्याणसूरिजी महाराज कृत हैं, उनकी आप लोगों के सामने पेश करता हूँ । मुझे आशा है कि श्री रँगसूर्यादि की और भी कृतियां शोध करने से उपलब्ध हो सकेंगी और उनको आपके सामने लाकर यह दिखला देना चाहता हूँ कि यह आचार्य भी प्रभाविक, विद्वान् और आत्म शोधक हुए हैं।
"
इस पुस्तक में सब से पहिले मङ्गलाचरण रूप में गुण सुरि जी कृत नवकार छन्द दिया गया है । इसके अतिरिक्त
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( २ )
शेष सब श्रीरँगसूरिजी नन्दीवर्द्धनसरिजी व कल्याणसरि जी कृत स्तवन दोहे हैं। इतिहास के बारे में मैं इतना ही लिख देना चाहता हूँ कि बहुतसी सामग्री मुझे मिल चुकी है
आदि से लेकर अन्त तक जब मेरे पास एकत्रित होजावेगी, उस समय आपके सम्मुख जो २ कार्य किये हैं और वे किस प्राचार विचार से चलते थे, जैन समाज में क्या उज्वल उदाहरण रखके गये थे, इन सब का विवरण सविस्तार रखने का साहस करूंगा। ___ इस पुस्तक के छपवाने का सारा श्रेय उमराव सिंह जी दूंगरिया ( देहली) निवासी को है । क्यों कि उनके पिता का दान फण्ड था, उसको अच्छे कार्य में लगाने के लिये मुझसे कहा। मैंने भी अपना आशय इस पुस्तक के छपवाने का प्रगट किया। तब उन्होंने अपने पिता जी के दान फण्ड में से देना स्वीकार कर अपनी उदारता का परिचय दिया। इस पुस्तक के प्रारम्भ में ही आप लोग आपके पिताश्रीके फोटू का अवलोकन करेंगे,उनके पुत्र रत्न उमरावसिंह जी दौलतचन्द जी सहृदय न्यायप्रिय व समाजप्रेमी हैं। अतः समाजके नवयुवकों को इनका अनुकरण करना चाहिये । इस पुस्तकके प्रूफसंशोधन में यदि कोई त्रुटि रही हो तो पाठकगण मुझे क्षमा प्रदान करेंगे ।
अक्षय तृतीया
देहली
लेखकयति रामपाल ।
।
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* प्राचीन स्तवनावली के
॥ नवकार छन्द ॥
- सुख कारण भवियण समरूं श्री नवकार । निज शासन
आगम चउदै पूरब सार । इण मंत्रनी महिमां कहतां न लहुँ पार । सुर तरु जिम चिन्तित बंछित फल दातार ॥१॥ सुर दानव मानव सेव करै कर जोड़ भूमण्डल विचरै तारे भवियण कोड । सुर छदै विलसै अतिसय जास अनन्त, पहिले पद नमिये अरि गंजन अरिहन्त ॥ २॥ जे पनरै भेदै सिद्ध थया भगवंत पंचमी गति पुहता, अष्ट करम करि हंत ॥ कल अकल सरूपी पंचानंतक जेह, जिन वर पाय प्रणमूं बीजै पद वलि एह ॥ ३ ॥ गच्छ भार धुरंधर सुन्दर ससिहर सोम, करि सारण वारण, गुण छत्तीसें थोम ॥ श्रुत जाण शिरोमणि सागर जेम गंभीर, तीजे पद नमिये, प्राचारज गुण धीर ॥४॥ धृतधर गुण अागम सूत्र भणावे सार, तप विधि संयोगे भाषै अरथ विचार ॥ मुनिवर गुण युत्ता ते कहिये उवझाय, चौथे पद नमिये अहनिश तेहना पाय ॥ ५ ॥ पंचाश्रव टाले, पालै पंचाचार तपसी गुणधारी, वाविषय विकार ॥ तस थावर पीहर लोक मांहे जे साधे त्रिविधै ते प्रण परमारथ गुण
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लाध ॥ ६ ॥ अरि करि हरि सायण, डायण भूत वेत्ताल, सब पाप पणासे थासे मंगल माल ॥ इण समया संकट, दूर टले तत्काल जपे जिण गुण इम सुरवर सीस रसाल ॥७॥ इति ॥
॥ श्री पार्श्वनाथाष्टकम् ॥
श्रीमद्देवेंद्रबृंदामलमणिमुकुटज्योतिषांचक्रपाले ब्यालीलैं पाद पीठं शठ कमठकृतोपद्रवाबाधितस्य ॥ लोकालोकावभासैः स्फुरदुरुचिमलज्ञान सद्यःप्रदीपः प्रध्वस्त ध्वांतजालः सवितरतु सुख पार्श्वनाथस्य निच्यं ॥ १ ॥ हूँ। हीं हूँ हैं विभाव स्वन्मरकतमपि भा क्रांत मूर्तेहि चंग हंसं तं बीज मंत्रैः कृत सकल जगत् क्षेम रतो रुवक्षः॥क्षां हीं के समस्त क्षितिदल मिहितः ज्योतिरुद्योतितार्थः मैं क्षों तौं क्ष क्षः बीजात्मक सवितनुतां घः सदा पार्श्वनाथः ॥२॥ हींकारं रेफ युक्त र र र र र र रा देव सं संयुगं तं ह्रीं क्लीं न्ट हीं सुरेफ वियदमल कलापंचकोद्भासः ॥ मत्पुष्ल वर्णैरखिल मिह जगन्मे विदहया नु कृष्टं धौषट् मंत्र पठतं त्रिजगदधिपते पार्श्व मां रक्ष नित्यं ॥ ३ ॥ उँ को ही सर्व वश्यं कुरु २ सर संक्रामणं तिष्ठ तिष्ठं यूँ हूँ हूँ रक्ष २ प्रबल बल महाभैरवांराति भीतेः हूँ ही हूँ द्रावय २ हन २ पौषट् बँध २ स्वाहा मन्त्रम् पठंतम् त्रिजगदधिपते पार्श्व मां रक्ष रक्ष ॥४॥ हं में भी क्वीं स हंसः कुवलय कलितै रंजितांग प्रसनैः भवा झ्व हः हं हं हर हर हर हूँ यः क्षयः क्ष प्रकोपं ॥वं झ हं सं पावं झः सर सर सर सौं स स सुबीज
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मंत्रैस्त्रायस्व स्थावरादि प्रबल विष सु संहारिभिः पार्श्वनाथः ॥ ५ ॥ मां चीं च्मों चमः क्षपतैरहिपतित मंत्राचरा रै: सनित्यं हा हा कारोग्रनादेवलदनल सिरराकल्प दीर्घाद्धि केशैः ॥ पिंगाचैर्लोल जिह्वैर्विषम विषधरालंकृतैस्तीच्ण दंष्ट्रैः भूतैः प्रेतैः पिशाचैरनधकृत महोपद्रवाद्रक्ष रक्ष ॥ ६ ॥ ॐ झों भूः शाकिनीनां सपदि हर मदं भिद्धि शुद्धद्ध बुद्धैः ग्लौं चमं तं दिव्य जिह्वा गति मति कुपिता स्तंभनं सं विधेहि फट् फट् फट् सर्व रोग ग्रहमरणभयोच्चाटनं चैव पार्श्वः श्रायस्वा शेष दोषा डुमरनरवरैर्नृतपादारविंदः ॥ ७ ॥ इथ्यं मं० त्राक्षरोध्यं वचनमनुभवं पार्श्वनाथस्य नित्यं विद्वेषोच्चाटन स्तंभन जय वश कृत्यापरोगांपनांदि ॥ प्रोत्सर्प्य जङ्गम स्थावर विषमविषध्वंसन स्वायुरारोगैश्वायं पादभक्त्या स्पृशति पठति यः स्तौति तस्येष्ट सिद्ध्यैः ॥ ८ ॥ इति सप्रभावकमष्टकं समाप्तम्
|| चौबीस जिन स्तुति ॥
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जिय जिणेसर देव ।
पहिलो श्री रिसहेसर प्रणमूँ, दूजो संभव अभिनंदन सुखदाई सुमति सुमति सुर सारे संव ॥ १ ॥ पहि० ॥ पदम प्रभु जिन अधिक पंडूर, श्री सुपाल चन्द्रा प्रभु स्वामि ॥ सुविधि शीतल श्रेयांस सवाई, नित प्रणभू वासु पूज्य सिरनामि ॥ २ ॥ पहि० ॥ विमल श्रनन्त सदा वरदाई, धर्म शांति कुँधु र घरि राग । मल्लिनाथ ते श्री
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मुनिसुव्रत, नमि नमि नेमि सदा दुखते वारे, ताके नमूं पाये लाग ॥ ३॥ पहि० ॥ परतिख जेहनो दीसे परचो, पुरसा दाणी समीं पास ॥ वर्धमान चउवीसम जिनवर, जगि जागे जेहनो जस पास ॥४॥ पहि० ॥ परम पुरुषनां नाम जपतां, कीधा करम खपे लख कोडि ॥ भाव सहित उठि परभाते जिन रंगसूरि नमें कर जोडि ॥ ५ ॥ पहि० ॥ इति ।
॥ अथ गौडी पार्श्व जिन स्तवन ॥ अरज करूँ. कर जोडिने जी, प्राणी मन उल्लास, निज सेवक जाणि करी जी, पूरज्यो मुझ मन पास ॥१॥ जिनेश्वर सांभलगौड़ीजी पास ॥ टेक ॥ दूर थकी मन माहरोजी, देखन तुम चरणेय मनडो छे तुम्ह पास ॥२॥ जिने० ॥ ध्यान धरे मन माहरोजी, पिण मेलो किण विध हुवे जी जां लग छे अन्तराय ॥३॥ जि० ॥ थे निस्नेही होय रह्मा जी नाणो मोह लगार ॥ हूँ सस्नेही तुम भणी जी समरूँ बारम्बार ॥४॥ जि० ॥ चम्पक लोहतणी परेंजी एक पक्षीया प्रीत ॥ पायस मन प्रांणे नहीं जी, चातक चाहे चित्त ॥ ५ ॥ जि०॥ स्वप्न मैं देखू सदा जी, परतिख देखू तेम ॥ हरषित मन मेरो हुवै जी, बूढें जलधर जेम ॥ ६॥ जि० ॥ परतिख परचो ताह रोजी, सहु जाणे संसार ॥ मन शुद्ध पूजें तिकेजी, धन्य तिणरो अवतार ॥ ७॥ जि० ॥ जन मुख गुण तुम सांभलीजी, खरीय मिलनरी हौंस ॥ मुझ मन पिण हुलसे घणोंजी झूठ कहूँ तो
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सीस ॥ ८॥ जि० ॥ गौड़ीपारसनाथसेंजी लाग्यो मो मन रंग ॥ श्रीजिनराज पसाउले जी जम्पे श्रीजिन रंग ॥६॥ जि० ॥ इति ।
राग वेलाउल। .. जब श्रादीश्वर सेविये तब सब बन पावै । सुख संपति आनन्द घणां, घर बैठा ही पावे ॥१॥ जि० ॥ स्नात्र महोत्सव सासता पंच शब्द बजावे । केसर चन्दन कुमकुमा घसि अङ्ग लगावे ॥२॥ ज०॥ चम्पा मरुश्रा केतकी, जाई जूई बणावे । पाइल दमणो केवडो, गुथि माल चढ़ावे ।। ३॥ ज० ॥ चोवा मृगमद अरगजा परिमल महकावे । प्रभु श्रागल करे भारती भले चमर दुलावे ॥४॥ ज० ॥ श्री जिनराज सदा जयो मंगल बहु गावे । रंग सूरि गुणगावतां सब जीव सुहावे ॥५ । ज० ॥ इति ।
पार्श्व जिन स्तवन ॥
राग सामेरी। भविक जन ते धन जे जिन पूजे। पास जिणेसर नयणे निरख्या चित्त न लागत दूजे ॥१॥ भघि० ॥ परमानन्द उपजत प्रभु नामें जैसे साकर दूंजे। पद पङ्कज जे सेवक सेवे तिणथी पातक धूजे ॥२॥ भवि०॥ अविचल लाछि हुवह घर ागण साहिब होय पूँजे । रंग सूरि प्रभु चरण सरण करि चाहत मुक्ति वधूजे ॥३॥
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(=)
॥ शांति जिन स्तवन ॥ राग भैरवी ।
में
शांति जिणेसर सांचो साहिब शांति करण इण निर्मल ज्योति वदन प्रभु शोभित निकला चन्द बदल भव भव भमतां दरसंग पायो इतु उगी मरुस्थल मेरो मन प्रभु तुमसों लाग्यो ज्यों जलचर मीन जल में ॥ जिन रंग के प्रभु शांति सवाई देखा देव सकल में ॥ ४ ॥
में ॥
३ ॥
कलिमें ।
॥
१ ॥
२ ॥
राग वसन्त ।
ऋषभ जिनेश्वर भेटियं हो प्राणी मन श्राद । दीठां दिलड़ो उल्लसे हो दिन दिन दीये श्राद ॥ १ ॥ श्रदीश्वर मेरे मन बस्यो हो श्रांकणी । नाभि नरेसर नंद ॥ चन्द किरण जिसो निरमलो हो दीपे सुन्दर देह । नर भव सफलो जेहनों हो निज कर पूजे जेह ॥ २ ॥ श्रादी० ॥ चोल तणी परे माहरो हो लागे प्रभु सुचित्त । चन्द चकोर तणी परे हो दिन दिन वधती प्रीत || श्रादी० || ३ || मेरु शिखर जिसो देहरो हो सारा है संसार । मन वंछित श्राशा फले हो विक्रम पुर श्रृङ्गार || ४ || श्री जिन राज पसाउले हो लहिये अविचल राज | रंग सुरि चढ़ती कला हो दरसण दीठा हो श्राज ॥ श्रदी ॥ ५ । इति ।
राग बसन्त |
हां हां रे यमुना तट धूम मचाई है री माई नेम सांवरो खेले होरी ॥ यमु० ॥ टेक ॥ दस दसाई ठाडे हैं घेरे नीकी
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बनी है सुजन टोरी । नेम प्रभु को ब्याह मनावत बत्तीस सहस संग लिय गोरी ॥१॥ भर पिचकारी नेम मुख पर डारत श्रृंगी छरत केशर घोरी। अवीर गुलाल को मंडप छायो भाल रचत चन्दन घोरी ।। यमु० ॥२॥ होरी वसन्त धमाल सुर गावत करत सेव यों झकझोरी । या उग्रसेन दुलारी विवाहो यों ही कहे भामां भोरी ॥ यमु० ॥३॥ मुसकाने प्रभु खेल देख के जग जंजाल दियो छोरी। अमृत पद दायक दम्पति सों रंग नमें दोउ कर जोरी ॥ यमु०॥ ४ ॥ इति ।
॥ ऋषभ स्तवन ॥
ऋषभ जिणेसर भेटवारे लाल मो मन अधिक उच्छाह । सुखकारीरे देस छपन में दीपतोरे लाल गुण गिरुवो गज गाह ॥ सुख० १॥ ऋ०॥ बाल गोपाल सहू करेरे लाल ऋषभ देवरी प्राण ॥ सुख० ॥ अदभुत महिमा जेहनीरे लाल माने सहू राय राण ॥ सुख० । २ ऋ०॥ नव खण्ड सन्ध्या अंगनारे लाल दीसै परतिख रूप ॥ सुख ॥ दीठा कोई न दूसरोरे लाल इण युगल स्वरूप ॥ सुख० ॥३॥ ऋ०॥ दूरथकी हूँ श्रावीयारे लाल यात्रा करण जिनराज । सुख कूरम नजर निहालीयेरे लाल महरकरी महाराज ॥ सुख०॥ ऋ० ४॥ लांघ्या कब घर घाटजेरे लाल लांधी विषमी नाल ॥ सुख०॥ दरसण दीठे ताहरोरे लाल भांज गया जंजाल ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ ५ ॥ निरखी मूरत सांवलीरे लाल
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( १० )
नयन भय लयलीन ॥ सुख० ॥ जिन प्रतिमा जिन सारखी रे लाल भेद गिरों मति हीन ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ ६ ॥ जग में देव छे घणांरे लाल ते चित में न समाय ॥ सुख० ॥ मोयो मधुकर मालती रे लाल अवर न आवे दाय ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ ७ || ध्यान धरे मन ताहरे सरे लाल जाप जपे दिन रात ॥ सुख० ॥ दरसण देखे भावसूंरे लाल पूजा करै प्रभात ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ ८ ॥ पावे पूत पूतियारे लाल धन हीणा धन होय ॥ सुख० ॥ रोग शोक सगला टलेरे लाल गंज न सक्के कोय ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ ३ ॥ तारै भवसागर थकीरे लाल टाले गरभावास ॥ सुख ॥ अजर अमर पदवी लहरे लाल विलसें लील विलास ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ १० तूं गति तूं मति तूं धणी रे लाल तूं बान्धव तूं मित्त ॥ सुख० ॥ इण तीरथ दीठां थकोरे लाल आयो विमल गिरि चित्त ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ ११ ॥ हूँ गिरुवो हूँ गुण निलोरे लाल हूँ हुवो श्राज सनाथ ॥ सुख० ॥ समकित कीधो निरमलारे लाल लाधो मुक्तिनो साथ ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ १२ ॥ भाव भले वर्धमान सूरे लाल पूजा कुसुम कपूर ॥ सुख० ॥ देव दत्त वर प्रभाव सूरे लाल ज्ञान भक्ति भरपूर ॥ सुख० ॥ ऋ० ॥ १३ ॥ जागी पुण्यतणी दशारे लाल जो भेट्या देव जिनराज ॥ सुख० ॥ तूठो देव त्रिभुवन धणीरे लाल सेवकनें शिवराज ॥ सुख० ॥ ऋ० १४ ॥ मुनिवर गुण सतरेस मैंरे लाल मगसिर मास रसाल ॥ सुख० ॥ श्री जिन रंग पसावलेरे लाल फलीय मनोरथ माल ॥ सुख ॥ ऋ० ॥ १५ ॥
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( ११ )
॥ पार्श्व जिन स्तवन ॥ सांभल हो साहिब माहराजी एक करूँ अरदास । पुण्य अकूर हिव जागियो जी श्रावीयो पास जी पास । सां० । १। हिवस्यु हिवे वात कहूँ जेहनी जी, जेह जाणे नहीं धात । अन्तरजामी श्रापणू जी, जिन कहूँ मन तणी बात । २ । सां० । देहरे २ देवता जी, कोन थी ताहरी जोड़। काचते मोल महँगो घणो जी, कुण करे पाचनी होड । ३ । सां० । अवगुण एक लाभे नहीं जी, गुण घणां ताहरी देह । पर उपकार सहजे करोजी, उत्तम नर अनमेह । ४ । सां० । अलख अगोचर तूं सही जी, सकल तू अकल सरूप । कुण संसार में एहबोजी जे लिखे ताहरो रूप ' ५। सां० । देव बिना नी चाकरी जी जेहवी निगुणनी बांह । तुझ सेवा साता भणी जी, जिम सुरतरुनी छांह । ६ । सां० । कास रस मन गमे जां लही जी, तांलग नवि जुडे ईख । जाण नर जापि विष कुण पिये जी, जल्दी ही को पिये ईख । ७ । सां० । ताहरा दरसण बिना जी, हूँ भम्यो सकल संसार । पाठ करमाने बस पडयो जी ऊँचने नीच अवतार । ८ । सां० । जाण अजाण पणे कयी जी, आज लग आचरया पाप भक्त निज जाणि बगसिये जी, ज्यु टले सकल संताप । ६ । सां० । नहीं कठिन करणी करी जी, किम होसी छूटकार । पिण धणी सबल तो सारिखोजी, एकलो एह
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( १२ ) आधार . १० । सां० । प्रभु तणां चरण भेट्यां पछे जी, अवर न कोई दाय । लाख रो लाल पहिरे जिके जी, फूट रो स्फटिक न सुहाय । ११ । सा० । रतन चिन्तामणी दोहिलोजी, पारस किहां मिले अाज । नमिने नाम बेहू मिल्या जी, माहरे हाथ महाराज । १२ । सां० । धन घडी धन दिवस मास तेजी, वरस पिण धन गिरों तेह । इहां कैसे दरसण ताहरोजी निरखीये नयण धरि नेह । १३ । सां०। एहवो ध्यान रहज्यो सदा जी, रात दिन माहरेजी चित्त । समकित कारण तूं सही जी, यह मुझ अधिक प्रतीत । १४ । सां० । परतिख पास चिन्तामणी जी, घरकाणापुर जाण । श्री जिन रंग गुण गावतां जी, जीवित जन्म प्रमाण । १५ । सां० ॥ इति ॥
॥ दहा बहत्तरी ॥
लोचन प्यारे पलक कू करदो बल्लभ गात। जिन रंग सज्जन ते कया और बात की बात ॥ १॥ ज्ञानी को मन स्फटिक सों जिन रंग सजन दाख। मन कपटी अरु नारि को ज्यों गहणा की लाख ॥ २॥ अग्ना अपना क्या करे अपनो नाहिं शरीर । जिन रंग माया जगत की ज्यों अँजली को नीर ॥ ३ ॥ जग में प्रेम अनूर है जइकर जाणे कोय । जिन रंग परजन सु मिल्या कब हूँ प्रेम न होय ॥ ४ ॥ गरुत्रा सहिजे गुण करे कदे न दाखे छेह । कुण निपावे सरभरे कुण कारण कहुँ मेह ॥ ५ ॥ जिन रंग दोष न दीजिये देख
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( १३ ) जगत का पास । जैसी भांड घसन्त है, तैसी श्रावत वास । जग में अपणो कोई नहीं सव स्वारथ के मित्त । जिन रँग सहज स्वरूप में धरीये अपणो चित्त ॥ ७ ॥ ज्यं पानी में पड़त ही प्रगटै पातन कोर । जिन रंग जीव की सजनता उद्यत अांख न ओर ॥८॥ जोरे प्रीति जुडे नहीं जोरे मेह न होय । जोरे फल लागे नहीं जिन रंग सहजें जोय ॥ ६ ॥ भली सीख नर भीति ने सीखत चतुर सुजाण । जिन रङ्ग सजनताई भलो सीखत नांहि अयाण ॥ १० ॥ जाके जीव में डर नहीं अरु कछु नहीं सनेह । जिन रंग ऐसे मनुष्य ते भली धरी पशु देह ॥ ११ ॥ जाके जी में डर बसे अरु कछु बसे सनेह । जिन रंग उन देवतान की भली धरी नर देह ॥ १२ ॥ जिन रंग रोटी मित्र को दीजे रोटी धीव । वचन मित्र को वचन दे जीव मित्र को जीव ॥ १३ ॥ जिन रंग पन्थ सुपन्थ लइ जिन चालत सुख होय। शील सन्तोषे बहुत र्या पड्यो न दीठो कोई ॥ १४ ॥ जिन रंग धरम बिना किये कहो सुख पावे कौन । बसत रही पूरब दिसी पश्चिम कीनो गौन । १५ । जिन रंग पररमणी तणो रंग विलग्गहु जाय। ईरत भय भागा नहीं परत गमायो तांह ॥ १६ ॥ शशि पन्थी मुख श्याम हुय तातें कही न राह । जिन रंग दान जतन किये उपजत अङ्ग उच्छाह । १७ । दसूं द्वार का पींजरा पानम पंखी मांहि । जिन रंग. अचरज रहत है गये अचम्भा नांहि ॥ १८ ॥ सजि श्रृंगार मन्दिर चढ़ी जिन रंग चातुर तीय ।
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(१४ )
कानन पंखी शब्द सुनी कैसे मिलियन पीय ॥ १६ ॥ जैसे बीतत यामिनी जिन रंग उद्यत सुर । तैसे स्थिति पूरण भई प्रगटै प्रातम नूर ॥ २० ॥ जिन रंग दोष न दीजिये किसी को एकन्त । करना किसके हाथ है उदय महा बलवन्त । २१ । जैसे को शुभ नगर मग पहुँचण मग लेत । तैसे या व्यवहार सों जिन रंग धरीये हेत ॥ २२ ॥ जब लग है संसार में तब लग है व्यवहार । धरीये निश्चय ठीकता करीये शुभ व्यवहार ॥ २३ ॥ जिन रँग विनय पढाइवो जो सीखे होय सुजान । कारीगर की कोर है कोर न लग्यो पाषाण ॥ २४ ॥ धरम ध्यान ध्यावे नहीं रहे जो भारतमांहि । जिन रंग वह कैसे तरें प्रभु रंग रत्ता नाहि ॥ २५ ॥ जिन रंग सोजीया भला जिस शिर यश के अङ्क । वह जीया किस काम का जिस सिर चढ़े कलङ्क ॥ २६ ॥ जिन रंग पंडित अति पढ्या भोजन बहु विधि कीन । भूषण पहिने भामिनी कोरस गोरस हीन ॥ २७ ॥ पूँजी अपनी पार की मांडै सब व्यापार । जिन रंग लेखे सांच है सोहू साहूकार ॥ २८ ॥ जिन रंग सभा सुहावतो जन मुख बोले बोल । ताको कबहू तनिक भरि घटे न तन को तोल ॥ २६ ॥ महिमा इण कलिकाल की जिन रंग सब जग जोय। मगण हु ते मारग लगे नगण रहे सब कोय ॥ ३० ॥ स सनेही बन्धन परे नि सनेही को मोक्ष । सिरि के कचकुं बांधिये नेह धा कै दोष ॥ ३१ ॥ स सनेही दुखी ए हुवै सरेन पको काम । जिन रंग तिलकों पीलिये
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(
१५
)
धरीये खल को नाम ॥ ३२ ॥ जिन रंग पूरत ही सदा पूरण होय न एह । विप्र, उदर, नरपति, अगनि, अन्त काजल निधि गेह ॥ ३३ ॥ दानशील तप तो भले जो हुवै भाव विशेष । जिन रंग जैसे ग्रह नवें भाव चक्र में देख ॥ ३४ ॥ शठ कुं शिक्षा दीजिये जिन रँग उलटी होय । जैसे नासा रहित कुं मुकर दिखावे कोय ॥ ३४ ॥ शव भक्ति जैनी दया मुसलमान इतबार । जिन रंग जो तीनों मिले तो जीव लहे भव पार ॥ ३६ ॥ अपने घर में सब बड़े राव रङ्क लौं साच । जिन रंग जगत में ते बड़े जिनको मानहिं पांच ॥ ३७ ॥ पाप की बात विसार दे धर्म कथा सुणि लेह । जिन रंग जैसे बह चले कादों भांदू मेह ॥ ३८ ॥ साख रयां लाखा गयां फिर कर लाखां होय । लाख रहयां साखा गयां लाख न लब्भे कोय ॥ ३६ ॥ कीरत ज्यु थिरती रहे विरती थिरती नांहि । विरती निरती बोलिये फिरती थिरती छांह ॥ ४० ॥ जैसे दीपक सदन में प्रगटत ज्योति प्रकाश । तैसे सदा शरीरमें जिन रंग जीव निवास ॥ ४१ ॥ जैसे काहु दृष्टि सों दीसे बालक चन्द । जिन रंग गुरु सुजानिये तैसे नित्यानन्द ॥४२॥ जैसे खीरज खीर में घृत को होत रहास । तैसे सदा शरीर में जिन रङ्ग जीव निवास ॥ ४३ ॥ जैसे काठ पाषाण में पावक कहीयत पास । तैसे सदा शरीर में जिन रंग जीव निवास ॥ ४४ ॥ यूं करि यूं न कर यूं किया यूं न होय । जिन रंग एती बात में विरला बूझे कोय ॥ ४५ ॥ जिनका
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रंग शरीर सं जड़ चेतन नहिं फेर । ज्ञान दृष्टि प्रगटी नहीं तिनके सदा अँधेर ॥ ४६ ॥ अप्पा चेतन कु गिणे पुद्गल है जड़ रूप । ज्ञान दृष्टि प्रगट हुवे जिन रंग सिद्धि सरूप । मिलीयो एक अपूरव पखवाली परभात। जिन रंग जिण. जोवतां गुण उपजीयो गात ॥ ४८ ॥ अपना भार न उठा सके
और लेत पुनि सीस । सो पैंड क्यों पहुँचसी जप जिन रंग जगदीस ॥ ४६ ॥ जिन रंग सोच विचार के जाना थिर कछु नांहि । तातें आप साध के गही तरक मन मांहि ॥ ५० ॥ जिन अपनो बल जान के कीनो कारज लोइ। जिन रंग तिनकी जगत में हार न कबहूँ होय ॥ ५१ ॥ जिन रंग जो कर सके तो करो जीव उपकार । जिन सं दोउ होत है इरत परत उधार ॥ ५२ ॥ खल पद भाइ खमाइ के उपमा दीजे ऊँच । तन तामें से जिन रंग तो मिटे न मन की चूच ॥ ५३ ॥ तन मन धन दीजे सब ही कीजे बहुत उपाय । जिन रंग जो जैसी प्रकृति सो तैसी ठहराय ॥ ५४ ॥ जिन रंग जो जीव मैं सदा जग में होय उदास । तिनके माया मोह को पड़े न कब हूँ पास ॥ ५५ ॥ कांटा राखे केतकी अरु नारंगी जाण । कांटा ई कांटा धरे जिन रंग किसे बखाण ॥ ५६ ॥ जिन रंग भोजन धन विषै जीवन रमणी जोय । इण सेती तिहुँ कालमें तृप्त न देख्यो कोइ ॥ ५७ ॥ खल माणसरी प्रीति जिन रंग छांह प्रभात । रूडी सजन रीति रीति जाणे छाया सांझरी ॥ ५८ ॥ जिन रंग मीठी गरज है अवर न मीठो कोइ । जब
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( १७ )
जब निकसे है शीतला रासभ आदर होय ॥ ५६ ॥ दोषागम ते शसि अधम श्रावत सनमुख धार । जिन रंग रवि ज्यु सत्पु रुष देखत हीर रिझाई ॥ ६०॥ धरम अपूरब जग करे तिणसे दुखित लोग। एक अक्षर जिन रंग तजे तो होवे सुकृत संयोग ॥ ६१ ॥ अहसेती लटपट करे मन में प्रीति न कोइ । जिन रंग हीया, हेज, सब करपर बैठत श्राइ ॥ ६२ ॥ बुरो करै चाहे बुरो धरे भलेपण की श्रास । जिन रङ्ग कुन्ड कृशान में करै कमल को वास ॥ ६३ ॥ काम जरयो भमरो भयो चपक देख अनूप । जिन रंग भमरै क्यूँ तड्यो देख्यो शम्भु स्वरूप ॥ ६४॥ भेजो पति हुँ भामिनी इक करंड करिपेस । जिन रंग तिन ऊपर लिखे चपक भुजङ्ग महेश ॥ ६५ ॥ जिन रङ्ग वैर न कीजिये कन्टक सु भी कोइ । कव ही भांजै पाव में तब ही दुखदायी होय ॥ ६६ ॥ जिन रंग क्यूँ करि जानिये ऊँच नीच संसार । या तो चाल पिछाणिये या बोलण की बार ॥ ६७ ॥ सौतिन सों सोतिन कहयो दर्पण ले मुख जोइ । सब श्रृंगार ते तो रचे नयन बड़े क्य होइ ॥ ६८ ॥ जिन रंग अपणे काम को सावधान सब कोय। पर उपकारी जगत में ते विक्रम सम जोइ ॥ ६६ ॥ जिन रङ्ग कब हू न कीजिये जाण बडां की होड़। श्याम वदन भई बूंघची जुडे न कनक की जोड़ ॥ ७० ॥ धर्म की बात रुचे नहीं पाप की बात सुहाइ । जिन रंग दाखां छारि के काग निबोरी खाइ ॥ ७१। जिन रंग सरि कही गच्छ खरतर गुण जाण । दोहा बन्ध बहुत्तरी बांचे चतुर सुजाण ॥ ७२ ॥ इति ।
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( १८ )
॥ दादा गुरु स्तवन ॥
कुशल गुरु तुम साहिब सुखदाई तुम साहिब० ॥ परतिख तेरो मैं दीठा परच्यो पल में पीड़ा गमाई । कुशल ० मानव दानव सह कोई मानें दुनियां मांहि दुहाई । सोमवार पूनम दिन पूजत जिन घर होत बधाई। कुशल० । मालपुरे थारो थिर थानक दीपे युग प्रधान सवाई | चिन्ता चूरण आशा पूरण जिन रङ्ग सूरि सहाई । कुशल० । ३ । इति ।
|| दादा देव का स्तवन ॥
दादो जी दीठां दौलत थाय, वांकी रे बेला न पडे दाघ । पूजो मनरली हां हो दादा कुशल सूरिंद ॥ पूजो ॥ दादो जी तुरत गमावे पीड़, दादो जी भांजे सगली भीड़ ॥ पूजो १ ॥ पूनम पूनम दिन सोमवार, श्राय जुड़ें दादा दरबार | पूजो । पूजो केसर अगर कपूर, समरतां दादो होय हजूर । पूजो० ॥ हां हो ॥ २ ॥ मुँह मांग्या बरसावें मेंह, दादो जो साधे तूठा नेह || पूजो० ॥ दादो जी राजनगर दिवान, पूज्यां बोल चढ़े प्रमाण || पूजो० ३ ॥ दादा जीरा सेवक होय, तेहने गंज न सक्कै कोय ॥ पूजो० ॥ जिन रङ्गसूरि कहे कर जोडि, कौन करे दादा जी की होड़ ॥ पूजो । दादो जी परतिख देवता दादो देश दिवान ॥ ४ ॥
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(
१६
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॥ दादा जी का स्तवन ॥ तुम पूजो श्री जिन कुशल सरि, गुरुनामें सङ्कट जायें दूरि ॥ पू० १॥ पूनम पूनम ने सोमवार, दरसन देखी जे बार बार ॥ पू० २॥ छाजेहड़ बंसे जग विख्यात, जिल्हागर कहिये तसु तात ॥ पू० ३॥ जैतसिरि माता तणोरे नन्द, गुरू चन्द कुलंबर चन्द ॥ ४ ॥ प्रभु चरण कमल जिम भमर प्रीति, जिन रङ्ग कहे कर जोडि ॥ पू० ५ ॥ इति ।
॥ दादा गुरु स्तवन ॥ छत्रपति थांरे गंय नमैं जी सुर नर सारे सेव । ज्योति थारी जग जागती जी दुनिया में परतिख देव ॥१॥ हुँ तो मोहि रहयो जी द्वारा राज दादै रे दरबार ॥ हुँ ॥ केशर अँवर केवडो जी कस्तूरी करपूर । चपो चन्दन राय चमेली भक्ति करूँ भर पूर ॥ २॥ पांगुलियाने पांव समापे जी
आंधलियाने आंख । रूप हीणाने रूप देवे दादो पँख हीणाने पांख ॥ हु ३॥ चन्द पाटेाधर साहिबोजी श्री जिन कुशल सूरिंद ॥ अष्ट प्रहर थाने ओलखूजी रङ्ग घणे राजिंद ॥ हु॥ ४॥ इति ॥
॥ दादा गुरु स्तवन ॥ कुशल गुरू कुशल करो भरपूर । सेवक जन मन वॅछित पूरण समया होत हजूर ॥ कुशल ॥ १॥ परम दयाल प्रेम
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( २० ) रस पूरण अशुभ हरण भय दूर। संघ उदय कर सदगुरू मेरा विनबै श्री जिन चन्दसरि ॥ कुशल ॥२॥
॥ अथ सज्झाय ॥ - चाल-कौन गुरु कौन चेला। साधो भाई अब हम कीनी ज्ञान सराफी जग में परगट कहाए । भव अनेक गांव सब तज के उत्तम कुल में पाए ॥१॥ समकित हाट करी अति नीकी समता टाट विछाये । क्षमा गादी ऊपर चढ़ बैठे तकिया शील लगाए ॥ साधो २॥ तप मुनीम दीसे अति उत्तम संयम पारख राखे। धीरज विप्र तगादे भेज्यो सत्य दलालज भाषे ॥ साधो ३ ॥ शुद्ध भाव की या बटवारी कांटा सुघड़ सुधारा । दृढ़ वैराग्य का कीया तोला पाप तोल कीया न्यारा ॥ साधो ४॥ श्री जिन भजन किया रोजनामचा करुणा बही बणाए । जिन श्राक्षा की रोकड राखी धर्म ध्यान बदलाये ॥ साधो ५ ॥ मान मार के स्याही लाया तप की कलम बनाई । दर्शन शान चारित्र लिख श्री जिन चरण चढाये ॥साधो ॥ गुरु उपदेश का किया अडेवादीसे जमा सवाई । जिन रंग ऐसा विणज करत हैं मुक्त महानिधि पाई ॥ ७॥ इति ।
॥ धर्म स्वरूप सज्झाय ॥ धर्म करोरे प्रापियां धर्म कियां सुख होसीरे। धर्म विहुणाजी बडा आगे दुर्गति लेसीरे ॥ धर्म० ॥ १ ॥ माहरो
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माहरो तू करे ते तो सगलो खोटोरे। काया से हँस अदा साथे फूटो लोटोरे ॥ धर्म० ॥२॥ डाभ अणी जल विन्दुवो ते तो ततखिण जाषेरे । जिम काया सु जीवड़ो जावत,वार न लागेरे ॥ धर्म० ॥ ३॥ एक ारे बिहुँ उपना भरत बाहू दोऊ भाई रे। राज करण बिहुँ अभिया संसार ऐसी सगाई रे॥ धर्म० ४॥ इण भव बेटा बेटडी धरणी ने धर कन्तोरे । परभव कोई न चालसी इम बोले भगवंतारे ॥ धर्म० ॥५॥ एक चाल्यो बीजो चालसी तीजो चालन हारोरे । चेत सको तो चेत जो पीछे करसी पुकारोरे ॥ धर्म० ॥ ६॥ धंधो कर धन जोडियो कौडी काम न आवेरे । पुण्य करोरे प्रापियां ते तो सुरपद पावरे ॥ धर्म० ॥ ७॥ श्रेणिक सुत पेरी थयो कोपिक नामें एहवोरे । मार दिवाड़ें दिन प्रतें राज तणा बसि हुयारै ॥ धर्म० ॥ ८॥ साधु तणी सेवा करो समरो श्री नवकारोएँ । शक्ति साथे दान दयो जो उतरो भव पारोरे ॥ धर्म ॥ ६ ॥ मन में ध्यान रूड़ो धरो निन्दा सगली टालोरे। रात्रि भोजन थे परिहरो समकित सुधी पालोरे ॥ १० ॥ धर्म क्षमा दया मनमें धरो कर्म हुवे जेह ढीलोरे । रङ्ग सुरि इम वीनवें ते पामें शिव लाभोरे ॥ धर्म० ॥ ११॥ इति सज्झाय ॥
॥ सम्मेद शिखर स्तवन ॥ चलो चलो शिखर पर प्राज भवि जिन बंदिये ॥ च०॥ अजितादिक प्रभु बीसें जिनेसर पूजा रचाई हूँ मैं आज
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( २२ ) ॥ भवि० ॥१॥ बीसे ढूंक की यात्रा करता जनम मरण दुख जाय ॥ भवि० ॥२॥ लक्ष्मण पुर से श्रीसंघ हर्षे यात्रा करन चितलाय ॥ भवि० ॥ ३ ॥ संवत अठारे बानवें वर्षे माघ तेरस रविवार ॥ भवि० ॥ ४ ॥श्री जिन चन्द्र कृपाकर प्रभु जी नंदी वर्द्धन गुण गाय ॥ भवि० ॥५॥
॥ अथ परमातमा छत्तीसीं ॥ परमदेव परमातमा परम ज्योति जगदीस । परम भाव उर पान के प्रणमत हों निसदीस ॥१॥ एक जु चेतन द्रव्य है तिनमें तीन प्रकार । बहिरातम अन्तर पातमा कहे परमानम पद सार ॥ २॥ बहिरातम तोको कहै लखे न ब्रह्म स्वरूप । मगन रहे पर द्रव्य से मिथ्यावन्त अनूप ॥ ३ ॥ अन्तरात्मा जीव सों सम्यग दृष्टि होय । चौथे अरु पुनि बार में गुण थानक ले सोय ॥ ४॥ परमातम पद ब्रह्म को प्रगट्यो शुद्ध स्वभाव। लोकालोक प्रमाण सब झलके जिनमें प्राय ॥ ५ ॥ बहिरातम भाव तजी अन्तर पातमा होय । परमातम पद भजत हैं परमातम सोई होय ॥६॥ परमातम सोही पातमा और न दूजो कोय । परमातम को ध्यावते यह परमातम होयं ॥ ७॥ परमातम यह ब्रह्म है परम ज्योति जगदीस । परसों भिन्न निहारिये जो अलख सो ही ईश ॥ ८॥ जो परमातम सिद्ध मैं सो ही यां मन मांहि । मोह मैल ग लागि रहयो ताते सूझत नाहि ॥ ६ ॥ मोह मैल रागादि को
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. ( २३ )
जो छिन कीजे नाश । ताछिन यह परमातमा आपहि लहे प्रकाश ॥ १०॥ प्रातम सो परमातमा परमातम सो सिद्ध । बीच की दुविधा मिट गई प्रगट भई निज ऋद्धि ॥११॥ मैं ही सिद्ध परमातमा मैं ही बातम राम । मैं ही ज्ञाता ज्ञेयको चेतन मेरो नाम ॥१२॥ मैं अनंत सुखको धनी सुखमें मोहि सुभाय। अवि नाशी आनन्दमय सो ही त्रिभुवनराय ॥१३॥ शुद्ध हमारो रूप है शोभित सिद्ध समान । गुण अनन्त करि संयुत चिदानन्द भगवान ॥ १४ ॥ जैसा शिव क्षेत्र में बसे तैसा या मनमांहि ! निश्चय दृष्टि निहारतां फिर रंच कहु नांहि ॥ १५ ॥ करमन के संयोग तै भए तीन प्रकार । एक प्रातमा द्रव्य को कर्म न टारनहार ।। १६ ।। कर्म संघाती आदि के जोर न विसात । पाई कला विवेक की राग द्वेष बिन जात ॥ १७॥ कर्मन के जरे राग जरे राग जरे सब जर जाय । प्रगट होय परमातमा भैया तुम उपाय ॥१८॥ परमातम पद को धनी रङ्क भयो बिललाय । राग द्वेष की प्रीति सों जनम अकारथ जाय ॥ १६ ॥ राग द्वेष से प्रीति तुम भूल करो जी न रंच। परमातम पद ढांकि के तुम्हें कीनो मतिमन्द ॥ २० ॥ जप तप संयम भला राग द्वेष जो नांहि । राग द्वेष सब जागते ये सब सोये जांहि ॥ २१ ॥ राग द्वेष के नाश से परमातम परकास । राग द्वेष के भास से परमातम पद नास ॥२२॥ जो परमातम पद चहे तो तू राग निवार। देख संयोगी स्वामि को अपने हिये बिचार ॥ २३ ॥ लाख बात की बात
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( २४ )
ये है तुमको दई बताय। जो परमातम पद चहे राग द्वेष तजो भाई ॥ २४ ॥ राग द्वेष के त्याग बिन परमातम पद नांहि । कोटि कोटि जप तप करो सबै अकारथ जांहि ॥ २४ ॥ दोष श्रातमा को यह है राग द्वेष को संग || जैसे पास मजीठ के. वस्त्र और ही रंग ॥ २६ ॥ जैसे आतम द्रव्य के राग द्वेष को पास ॥ कर्म रङ्ग लागत रहे कैसे लहे प्रकास ॥ २७ ॥ इन कर्मन को जीतal कठिन बात है वीर । जर खोदे बिन नहीं मिटे दुष्ट जाति बे पीर ॥ २८ ॥ लल्ला पत्ता के किये ये मिटने के नांदि । ध्यान अग्नि परकास तैं होमं देवो तिन मांहि ॥ २६ ॥ ज्यों दारू के गंज को नर नहीं सके उठाय । तनिका संयोग ते इक छिन में उड़ जाय ॥ ३० ॥ देह सहित परमातमा यह अचरज की बात । राग द्वेष के त्याग से कर्म शक्ति जर जात ॥ ३१ ॥ परमातम के भेद द्वय निखिल सब परमाण । सुख श्रनन्त में एक से कहिवे को द्वय थान ॥ ३२ ॥ भैया वह परमातमा सो ही तुम्हरे मांहि । अपनी शक्ति संभारि के लखो वेग दे ताहि ॥ ३३ ॥ काहे को भटकत फिरे सिद्ध होण के काज । राग द्वेष को त्याग दे मैया सुगम इलाज ॥ ३४ ॥ नृपति विक्रमादित्य को सत्रह सै पचास | मारगसिर रचना कही प्रथम पक्ष हुंति जाल ॥ ३५ ॥ राग द्वेष को त्याग के घर परमातम ध्यान । ज्यों पावे सुख शाश्वते भैया इम कल्याण ॥ ३६ ॥ इति ।
-:8*3:
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॥ मुनिसुव्रत जिन स्तवन ॥
अथ राग श्रासावरी। मैं तो जाऊँ वारहजारीरे भवि जिन मुनिसुव्रत सुख कारीरे । अपराजितसे चव के प्रभु जी निज इच्छाएं धारी ॥ सावन सुदी पूनम तिथि दिवसे पाए हैं कूख मझारीरे भवि जिन मु० ॥ १ ॥ भूप सुमित्र राजगृही नगरें उत्तम कुल अवतारी ॥ है जननी पदमावती राणी कृष्ण वर्ण वपुधारीरे ॥ भविजिन ॥ २ ॥ ज्येष्ठ वदि आठम तिथि उत्तम श्रवण नक्षत्र विचारी । बीस धनुष तनु मकर रासि धर लछन कूर्म पे वारीरे ॥ भविजिन ॥ ३ ॥ सप्त सहस्र पंच शत बरसें आयु कुमार निहारी। बरस पंच दश सहस राजकर भयो जगत यश धारीरे ॥ भविजन ॥४॥ घांति अघाति कर्म क्षयकारक शुभ योगें अनुसारी । फाल्गुन शुक्ल सुद्वादश कीनों संयम अंगीकारीरे, ॥ भविजिन ॥ ५ ॥ अपराह्न प्रहरें जिनवर जी नील गुहा बन भारी । कृष्ण द्वादशि फाल्गुन की पाम्यो केबल ज्ञान मुरारीरे ॥ भविजिन ॥ ६ ॥ सप्त सहस्र पांच से बहत्तर कर तप कठिन करारी। ज्येष्ठ शुक्ला नवमी शिव पहुँते आयु तीस हजारीरे ॥ भविजिन ॥ ७ ॥ षोडश त्रिक शतक दश द्वादश चैत्र शुक्ल शुभचारी । पंचमी तिथि कल्याण सूरि जिन निरख निरख बलिहारीरे ॥ भविजिन ॥ ८॥ इति पदम् ॥
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॥ स्तवन ॥ __हाथ जोड के अरज करूँ मेरी अरजी मानो जी हा० ॥ काल अनंत मोहे भटकत बीत्यो अब तो तारो जी हा० ॥१॥ अधम उधारण हो प्रभु तुम ही मेरी ओर निहारो जी हाo ॥२॥ तुम बिन देव नहीं ऐसा कापे जाय पुकारूँ जी हा० ॥ ३॥ सूरि कल्याण की अरज यही है भव विपति निवारो 'जी ॥ ४ ॥ इति ।
. ॥ शांति जिन स्तवन ॥ शांति जिनंद गुण गावो मना शिव रमणी सुख पात्रो तुम शांति ॥ मन बच काय कपट तज प्रातम, शुद्ध भावना भावो मना ॥ शांति० ॥ १॥ दया धर्म अरु शील तपस्या, करि सब कर्म खरावो मना ॥ शांति०॥२॥ माया मोह लोभ पर निन्दा, विषय कषाय नसावो मना ॥ शांति०॥ ३॥ जगवन्दन अचिरानन्दन को, निश दिन ध्याय रिझावो मना ॥ शांति० ॥४॥ जिन पद कज मधुन जाते, उत्तर ध्यान लगावो मना ॥ शांति० ॥५॥ जिन कल्याणसरि प्रभु चरण, वेर वेर लय लावो मना ॥ शांति० ॥६॥
॥ शांति जिन स्तवन ॥
राग भैरवी। सखेश्वर पास जिनेश्वर भे टेए ॥ ए देशी ॥ श्री शांति जिन देव अरज अवधारिये। तुम त्रिभुवन के तात पतित जन
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( २७ )
तारिये । सर्वार्थ से प्रभु आप यहां श्रवतस्या, सब जग मण्डल हर्षथा श्रानन्द भख्या ॥ १ ॥ विश्वसेन जसु तात मात श्रचिरा तरों जन्म्यां श्री महाराज वंश इनु गि, दीक्षा केवल नाण कल्याणक शुभ लहि सोलम जिनवर देव पंचम चक्री सही ॥ २ ॥ लंछन चरण कुरंग रहे तसु सेवमें सोवन वर्ण शरीर धनुष चालीस में, गजपुर मांहे वेद कल्याणक जानिये | शिखर सम्मेत पे जाय सिद्ध पद मानिये ॥ ३ ॥ नन्दा नयन नव इन्दु संवत् विक्रम तणों या कवि दिने नाम प्रतापहि चन्द्र थयो इह जगत में । पारसान तसु गोत्र रहें इन्द्रप्रस्थ में ॥ ४ ॥ थाप्या बिम्ब उदार शांति जिन देवता श्रतम निर्मल काज करो नित सेवना । करुणा सिन्धु कृपाल कृपा अब कीजिये भव दुख मेटो अमर पद दीजिए ॥ ५ ॥ बृहत भट्टारक गच्छ खरतर में सोहतो श्री जयशेखरसूरि सकल जन मोहतो, श्री जिन सूरि कल्याण कहें कर जोडी ने दीजे अविचल वास करम फंद तोड़ने ॥ ६ ॥ इति
|| नवपद स्तवन ॥
राग मारू ।
तीरथ नायक जिन वरूरे अतिशय जास अनूप | सिद्ध अनन्त महागुणीरे परमानन्द स्वरूप ॥ भविक मन धार ज्योरे धरज्यों नव पद ध्यान ॥ भवि० ॥ टेक ॥ १ ॥ श्री श्राचारज गण धरूरे गुण छत्तीस निवास । पाठक पद धर
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( २८ )
मुनिवरूरे श्रुतदायक सुविलास ॥ २ ॥ भवि० ॥ सुमति गुपतिधर शोभनारे साधु सुमतिवंत । सम्यग दर्शन सुंदरूरे ज्ञान प्रकाश अनन्त ॥ ३ ॥ भवि० ॥ संवर साधु ने चरण छेरे तप उत्तम विधि दोय । ए नवपदना ध्यानथीरे निरुपाधिक सुख होय ॥ ४ ॥ भवि० ॥ अमृत सुमधुर धर्मनारे मूल ए नवपद जांण । अविचल अनुभव कारणरे नित प्रणमत कल्याण ।। ५ ।। इति ।
॥ अथ शारदाष्टक ॥
ॐ ऐं श्री मंत्र रूपे विबुध जनन ते देव देवेंद्र वंदे चं चं चंद्रावदा ते तिाति कलिमल हारिणी हारि गौरे, भीमे भीमाट हास्ये भव भय हरणे भैरवे भीर वीरैः हा हीं हूंकार नादे मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवः ॥ १ ॥ हा पक्षे बीज गर्भे सुरवर रमणी चंचितानेक रूपे यः कोपं विंझ मध्ये धरति वरधरे योगिनां योग मार्गे हंशा सः स्वर्गजेन्द्रैः । प्रति दिन मणे प्रस्थितालापपाचै दैत्यैन्द्रीयमाने मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवः ॥ २ ॥ तांतीं क्षौं धेय रूपे हनि विषम विषं स्थावरं जंगमं वा संसारे संश्रितानास्तवचरण युगं सर्व काल नराणां । अव्यक्तं व्यक्त देहे प्रणति नरवर ब्रह्म रूपं स्वरूपं, ऐं कनों योग मध्यमे मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवः ॥ ३ ॥ दैत्यदैत्यारि नाथै मति पदयुगैर्भक्ति युक्ति त्रिसन्ध्यां सर्वैर्जविनम् सुरवर नर गणैः संस्तुताय ऐंश्च ।
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( २६ )
श्रां ऐं ई अं अः अमृदुतर स्वराः अंब योगीयमानैः सा देवि नित्यं धेयं मम मनसि शारदे तिष्ठ देवः ॥ ४ ॥ संपूर्ण व्यंग शोभा शशिकर सदृशा दास बिम्बात् प्रसूतै स्वस्त्यै रम्यै शुकान्तै द्विजकर निकरैश्चन्द्रिकाकार भासः । अस्माकीनं सुरश्चादिनमणिः सततं कल्मषं क्षालयन्ति स्वां स्मैं स्वौं स्वः । मंत्रपूते मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवः ॥ ५ ॥ भाक्षे पद्मासनस्थे जिनमुख निश्रृतं पद्महस्ते प्रशस्तैः प्रा . प्रौं प्रः पवित्रे हर २ दुरितं दुष्टजं दुष्ट चेष्टं वाचाला भीष्ट सक्ता। त्रिदश युवतिभिः प्रत्यहं पूज्यपादे चंडे चंडैः कराले मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवः ॥ ६ ॥ नम्रीभूत क्षतीसां प्रचर चिर मुग्धा घृष्ट पादारविंदैः पद्मासे पद्मनेत्रे गज गति गमने हंस थाने प्रयाणे। कीर्तिः श्री बुद्धिः शक्ते जय विजय धृते गोरी . गांधारी युक्ते धेये धेयस्य रूपे मम मनसि सदा शारदे तिष्ठ देवः ॥ ७ ॥ विद्युज्वालांशु दिप्तां प्रवर मणि मयि मक्षमाला कराग्रे रम्या मूर्त्या धरति दिन मणिपहुता मष्टक शारदे देवः । नागेन्द्र इन्द्रचन्द्रैः मनुज मुनिगणे संस्तुताराधताया कल्याणं सा च दिव्यं दिशतु मम सदा निर्मलं ज्ञान रत्नं ॥ ८ ॥
॥ नेमनाथ स्तवन ॥ नेमनाथ तेरे चरण कमल की मैं जाऊँ बलिहारी जी ॥ नेम० ॥ देश कुशावर्त सोरीपुर में चवन जन्म आनन्दकारी जी ॥ चौसठ इन्द्र करे तेरी महिमा, गुण गावे सुरनारी जी
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( ३०
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॥ १ ॥ देव रचित द्वारिका नगरी में भए प्रभु संयमधारी जी गढ किरनारपे केवल पायो सक्ल संघ सुखकारी जी ॥२॥ अष्ट कर्म को दूर करीने हुयो पद अनाहारी जी ॥ कहे जिन रत्न बनायो मुझको शिव लक्ष्मी अधिकारी जी ॥ ३ ॥ इन्द्रप्रस्थ नगर अति उज्वल दादा स्थान मनोहारी जी ॥ रस 'सिद्धि नंद इन्दु शुभ वर्षे भई प्रतिष्ठा भारी जी ॥ ४ ॥
___श्रीमालों की गोत्र संख्या ॥ . ___ दादा जी श्रीजिन दत्तसूरि जी महाराज के प्रतिवोधित श्रीमाल जाति उनके गोत्र श्रीजिन कल्याणसरि जी महाराज इस प्रकार उद्धृत करते हैं
शुद्ध ध्यान विधान निधान समान ज्ञात कृयाचार समावर्जित द्विपंचाशत् क्षेत्रपालैः चित्र विचित्र तंत्र पवित्र सरि मंत्र संसाधित चतुः षष्ठि योगिनी चक्रः सन्नय जय समुदय विद्याबल वशीकृत सपरिकर पंच पीरैः सुधादेश्य गुण निवेश निरसि निवेश्य निरुष क्लेशश्रीमदाप्तोपदेश देशना प्रतिबोधित श्रावक श्राविका लक्षः सुविहित चक्र चूडामणिभिः देवता प्रदत्त युग प्रधान पदवी धारिभिः श्रीखरतरगच्छ नायक श्री जिनदत्तसूरिभिः प्रतिबोधिता । श्रीमाल ज्ञातिस्तत्र गोत्र नामानि लिख्यते।
यथा पापड १ खारेड २ ढोर ३ पारसाण ४ नागड़ ५ सींधड़ ६ महूतीया ७ भांडिया ८ भाडंगा ६ टांक १० सागी
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याण ११ राकीयाण १२ तांबी १३ कोंफलीया १४ खोवड़ा १५ खूसडीया १६ मोघा १७ काठ १८ पल्होड़ १६ घेवरिया २० बोहरा २१ मूसल २२ पटोलिया २३ पचोलिया २४ तबल २५ धांधीया २६ बदलिया २७ बिहूलिया २८ पातीयाण २६ गभाणीया ३० महमवाल ३१ जूनीवाल ३२ भैंसवाल ३३ पेटवालिया ३४ लडुवाल ३५ जूड ३६ जट ३७ गलकटा ३८ डूंगरिया ३६ फूसखाणां ४० बिनालिया ४१ झाडचूर ४२. विषनालिया ४३ फांफू ४४ लठाहल ४५ मँदोठिया ४६ माधल. पुरी ४७ काला ४८ भोघा ४६ हेडाउ ५०हींगड़ा ५१ सभोतिया ५२ कुंगडकीया ५३ दुसाज ५४ कुकड़ीया ५५ माथुर ५६ भुसाड ५७ मुहता ५८ चीचड़ ५६ खायड ६० धूपड ६१ पारड ६२ खोर ६३ जरगड ६४ वैद ६५ डूंडा ६६ चंदेरिया ६७ बारोलिया ६८ बरढीया ६६ भालोठीया ७० मरहठीया ७१ ठाकुरिया ७२ साहुाण ७३ नवरंग ७४ गुजर ७५ बुदाणिया ७६ कोडि. याण ७७ मरदल ७८ नींबहडा ७६ अकदुधीया ८० कटारीया ८१ माणहडा ८२ सींघो ८३ नभेडिया ८४ नाचणीया ८५ वायड ८६ छकडीया ८७ वायसीया ८८ अगासीया ८६ सांग. रीया ६० पचासीया ६१ चरनालिया ६२ बहकटा ६३ घोवडीया १४ गिलाहरीया ६५ सेठीया ६६ गढीया ६७ वांफणां ६७ रांडीका ६६ बूडीया १०० सीकरीया १०१ । इति
अतिशय निर्मल साधु कृपा विद्यावल गच्छ खरतर गुरु प्रति बोधित प्रगट वृद्ध खरतर श्रीमाल गोत्र
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( ३२ )
संख्याsभूत रहावर्गी १ बीजावर्गी २ खेतावर्गी ३ ॥ इति जातिश्रभूत् ॥
॥ कडखानी छन्द ॥
करत कल्याण कल्याण आतम तणां रूप कल्याण को देहधारी गोत्र पालावत लक्ष्मणपुर नें विषै हुयो कुल चन्द श्रानन्दकारी ॥ १ ॥ किशन चन्द तात अरु मात महिमा तवें हर्ष पाभ्यो थयो सुख भारी अधिक उद्योत निश दिवस जग दीपतो धर्म धारी ॥ २ ॥ तज निज नार घरबार तज जिन भजे योग साधे महा ब्रह्मचारी भवि जन निशि दिवस पद वंदतां सकल सुख सम्पदा होत सारी ॥ ३ ॥ सुरि छत्तीस छत्तीस गुण धारणों अधिक श्रपमा दीपे श्रङ्ग सारी जोर युगपान कवि राम की इति कहत सूरि कल्याण जिन श्री हमारी ॥ ४ ॥ इति
- स... मा. प्त
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