________________
( १७ )
जब निकसे है शीतला रासभ आदर होय ॥ ५६ ॥ दोषागम ते शसि अधम श्रावत सनमुख धार । जिन रंग रवि ज्यु सत्पु रुष देखत हीर रिझाई ॥ ६०॥ धरम अपूरब जग करे तिणसे दुखित लोग। एक अक्षर जिन रंग तजे तो होवे सुकृत संयोग ॥ ६१ ॥ अहसेती लटपट करे मन में प्रीति न कोइ । जिन रंग हीया, हेज, सब करपर बैठत श्राइ ॥ ६२ ॥ बुरो करै चाहे बुरो धरे भलेपण की श्रास । जिन रङ्ग कुन्ड कृशान में करै कमल को वास ॥ ६३ ॥ काम जरयो भमरो भयो चपक देख अनूप । जिन रंग भमरै क्यूँ तड्यो देख्यो शम्भु स्वरूप ॥ ६४॥ भेजो पति हुँ भामिनी इक करंड करिपेस । जिन रंग तिन ऊपर लिखे चपक भुजङ्ग महेश ॥ ६५ ॥ जिन रङ्ग वैर न कीजिये कन्टक सु भी कोइ । कव ही भांजै पाव में तब ही दुखदायी होय ॥ ६६ ॥ जिन रंग क्यूँ करि जानिये ऊँच नीच संसार । या तो चाल पिछाणिये या बोलण की बार ॥ ६७ ॥ सौतिन सों सोतिन कहयो दर्पण ले मुख जोइ । सब श्रृंगार ते तो रचे नयन बड़े क्य होइ ॥ ६८ ॥ जिन रंग अपणे काम को सावधान सब कोय। पर उपकारी जगत में ते विक्रम सम जोइ ॥ ६६ ॥ जिन रङ्ग कब हू न कीजिये जाण बडां की होड़। श्याम वदन भई बूंघची जुडे न कनक की जोड़ ॥ ७० ॥ धर्म की बात रुचे नहीं पाप की बात सुहाइ । जिन रंग दाखां छारि के काग निबोरी खाइ ॥ ७१। जिन रंग सरि कही गच्छ खरतर गुण जाण । दोहा बन्ध बहुत्तरी बांचे चतुर सुजाण ॥ ७२ ॥ इति ।