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रंग शरीर सं जड़ चेतन नहिं फेर । ज्ञान दृष्टि प्रगटी नहीं तिनके सदा अँधेर ॥ ४६ ॥ अप्पा चेतन कु गिणे पुद्गल है जड़ रूप । ज्ञान दृष्टि प्रगट हुवे जिन रंग सिद्धि सरूप । मिलीयो एक अपूरव पखवाली परभात। जिन रंग जिण. जोवतां गुण उपजीयो गात ॥ ४८ ॥ अपना भार न उठा सके
और लेत पुनि सीस । सो पैंड क्यों पहुँचसी जप जिन रंग जगदीस ॥ ४६ ॥ जिन रंग सोच विचार के जाना थिर कछु नांहि । तातें आप साध के गही तरक मन मांहि ॥ ५० ॥ जिन अपनो बल जान के कीनो कारज लोइ। जिन रंग तिनकी जगत में हार न कबहूँ होय ॥ ५१ ॥ जिन रंग जो कर सके तो करो जीव उपकार । जिन सं दोउ होत है इरत परत उधार ॥ ५२ ॥ खल पद भाइ खमाइ के उपमा दीजे ऊँच । तन तामें से जिन रंग तो मिटे न मन की चूच ॥ ५३ ॥ तन मन धन दीजे सब ही कीजे बहुत उपाय । जिन रंग जो जैसी प्रकृति सो तैसी ठहराय ॥ ५४ ॥ जिन रंग जो जीव मैं सदा जग में होय उदास । तिनके माया मोह को पड़े न कब हूँ पास ॥ ५५ ॥ कांटा राखे केतकी अरु नारंगी जाण । कांटा ई कांटा धरे जिन रंग किसे बखाण ॥ ५६ ॥ जिन रंग भोजन धन विषै जीवन रमणी जोय । इण सेती तिहुँ कालमें तृप्त न देख्यो कोइ ॥ ५७ ॥ खल माणसरी प्रीति जिन रंग छांह प्रभात । रूडी सजन रीति रीति जाणे छाया सांझरी ॥ ५८ ॥ जिन रंग मीठी गरज है अवर न मीठो कोइ । जब