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( २४ )
ये है तुमको दई बताय। जो परमातम पद चहे राग द्वेष तजो भाई ॥ २४ ॥ राग द्वेष के त्याग बिन परमातम पद नांहि । कोटि कोटि जप तप करो सबै अकारथ जांहि ॥ २४ ॥ दोष श्रातमा को यह है राग द्वेष को संग || जैसे पास मजीठ के. वस्त्र और ही रंग ॥ २६ ॥ जैसे आतम द्रव्य के राग द्वेष को पास ॥ कर्म रङ्ग लागत रहे कैसे लहे प्रकास ॥ २७ ॥ इन कर्मन को जीतal कठिन बात है वीर । जर खोदे बिन नहीं मिटे दुष्ट जाति बे पीर ॥ २८ ॥ लल्ला पत्ता के किये ये मिटने के नांदि । ध्यान अग्नि परकास तैं होमं देवो तिन मांहि ॥ २६ ॥ ज्यों दारू के गंज को नर नहीं सके उठाय । तनिका संयोग ते इक छिन में उड़ जाय ॥ ३० ॥ देह सहित परमातमा यह अचरज की बात । राग द्वेष के त्याग से कर्म शक्ति जर जात ॥ ३१ ॥ परमातम के भेद द्वय निखिल सब परमाण । सुख श्रनन्त में एक से कहिवे को द्वय थान ॥ ३२ ॥ भैया वह परमातमा सो ही तुम्हरे मांहि । अपनी शक्ति संभारि के लखो वेग दे ताहि ॥ ३३ ॥ काहे को भटकत फिरे सिद्ध होण के काज । राग द्वेष को त्याग दे मैया सुगम इलाज ॥ ३४ ॥ नृपति विक्रमादित्य को सत्रह सै पचास | मारगसिर रचना कही प्रथम पक्ष हुंति जाल ॥ ३५ ॥ राग द्वेष को त्याग के घर परमातम ध्यान । ज्यों पावे सुख शाश्वते भैया इम कल्याण ॥ ३६ ॥ इति ।
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