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( १३ ) जगत का पास । जैसी भांड घसन्त है, तैसी श्रावत वास । जग में अपणो कोई नहीं सव स्वारथ के मित्त । जिन रँग सहज स्वरूप में धरीये अपणो चित्त ॥ ७ ॥ ज्यं पानी में पड़त ही प्रगटै पातन कोर । जिन रंग जीव की सजनता उद्यत अांख न ओर ॥८॥ जोरे प्रीति जुडे नहीं जोरे मेह न होय । जोरे फल लागे नहीं जिन रंग सहजें जोय ॥ ६ ॥ भली सीख नर भीति ने सीखत चतुर सुजाण । जिन रङ्ग सजनताई भलो सीखत नांहि अयाण ॥ १० ॥ जाके जीव में डर नहीं अरु कछु नहीं सनेह । जिन रंग ऐसे मनुष्य ते भली धरी पशु देह ॥ ११ ॥ जाके जी में डर बसे अरु कछु बसे सनेह । जिन रंग उन देवतान की भली धरी नर देह ॥ १२ ॥ जिन रंग रोटी मित्र को दीजे रोटी धीव । वचन मित्र को वचन दे जीव मित्र को जीव ॥ १३ ॥ जिन रंग पन्थ सुपन्थ लइ जिन चालत सुख होय। शील सन्तोषे बहुत र्या पड्यो न दीठो कोई ॥ १४ ॥ जिन रंग धरम बिना किये कहो सुख पावे कौन । बसत रही पूरब दिसी पश्चिम कीनो गौन । १५ । जिन रंग पररमणी तणो रंग विलग्गहु जाय। ईरत भय भागा नहीं परत गमायो तांह ॥ १६ ॥ शशि पन्थी मुख श्याम हुय तातें कही न राह । जिन रंग दान जतन किये उपजत अङ्ग उच्छाह । १७ । दसूं द्वार का पींजरा पानम पंखी मांहि । जिन रंग. अचरज रहत है गये अचम्भा नांहि ॥ १८ ॥ सजि श्रृंगार मन्दिर चढ़ी जिन रंग चातुर तीय ।