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* प्राचीन स्तवनावली के
॥ नवकार छन्द ॥
- सुख कारण भवियण समरूं श्री नवकार । निज शासन
आगम चउदै पूरब सार । इण मंत्रनी महिमां कहतां न लहुँ पार । सुर तरु जिम चिन्तित बंछित फल दातार ॥१॥ सुर दानव मानव सेव करै कर जोड़ भूमण्डल विचरै तारे भवियण कोड । सुर छदै विलसै अतिसय जास अनन्त, पहिले पद नमिये अरि गंजन अरिहन्त ॥ २॥ जे पनरै भेदै सिद्ध थया भगवंत पंचमी गति पुहता, अष्ट करम करि हंत ॥ कल अकल सरूपी पंचानंतक जेह, जिन वर पाय प्रणमूं बीजै पद वलि एह ॥ ३ ॥ गच्छ भार धुरंधर सुन्दर ससिहर सोम, करि सारण वारण, गुण छत्तीसें थोम ॥ श्रुत जाण शिरोमणि सागर जेम गंभीर, तीजे पद नमिये, प्राचारज गुण धीर ॥४॥ धृतधर गुण अागम सूत्र भणावे सार, तप विधि संयोगे भाषै अरथ विचार ॥ मुनिवर गुण युत्ता ते कहिये उवझाय, चौथे पद नमिये अहनिश तेहना पाय ॥ ५ ॥ पंचाश्रव टाले, पालै पंचाचार तपसी गुणधारी, वाविषय विकार ॥ तस थावर पीहर लोक मांहे जे साधे त्रिविधै ते प्रण परमारथ गुण