Book Title: Prachin Jain Itihas Sangraha Part 13
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3१ प्राचीन जैन इतिहास संग्रह (भाग तेरहवां) -कसरीचन्द चोरड़िया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसवंश के गौत्र एवं जातियों की उत्पत्ति खरतरों का गप्प पुराण ( लेखक-केसरीचन्द चोरडिया ) ओसवाल यह उपकेश वंश का अपभ्रंश है और उपकेश वंश यह महाजन वंश का ही उपनाम है इसके स्थापक जैनाचार्य श्री रत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज हैं । आप श्रीमान भगवान पार्श्वनाथ के छट्टे पट्टधर थे और वीरात ७० वर्षे उपकेशपुर में क्षत्रीय वंशादि लाखों मनुष्यों को मांस मदिगदि कुव्यसन छुड़ा कर मंत्रों द्वारा उन्हों की शुद्धि कर वासक्षेप के विधि विधान से महाजन वंश की स्थापना की थी इस विषय का विस्तृत वर्णन के लिये देखो "महाजन वंश का इतिहास-" महाजन वंश का क्रमशः अभ्युदय एवं वृद्धि होती गई और कई प्रभावशाली नामाङ्कित पुरुषों के नाम एवं कई कारणों से गोत्र और जातियां भी बनती गई। महाजन संघ की स्थापना के बाद ३०३ अर्थात् वीर निर्माण के बाद ३७३ वर्षे उपकेशपुर में महावीर प्रतिमा के ग्रंथी छेद का एक बड़ा भारी उपद्रव हुआ जिसकी शान्ति आचार्यश्रीकक्कसूरिजी महाराज के अध्यक्षत्व में हुई उस समय निम्नलिखित १८ गोत्र के लोग स्नात्रीय बने थे जिन्हों का उल्लेख उपकेश गच्छ चरित्र में इस प्रकार से किया हुआ मिलता है उक्तंच। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) "तप्तभटो बापनागस्ततः कर्णाट गोत्रजः । तूय बलाभ्यो नाभाऽपि श्री श्रीमाल पञ्चमस्तथा । १६६ कुलभद्रो मोरिषश्च विरिहिद्याह्नयोऽष्टमः ॥। श्रेष्ट गौत्राण्यमून्यासन, पक्षे दक्षिण संज्ञके ॥ १७० सुन्चितिताऽदित्यनागौ, भूरि भाद्रोऽय चिचटि कुमट कन्याकुब्जोऽथ, डिड्रभाख्येष्टमोऽपिच ॥ १७१ ॥ तथाऽन्यः श्र ेष्टिगौत्रीय, महावीरस्य वामतः नव तिष्ठन्ति गोत्राणि, पञ्चामृत महोत्सवे ।। १७२ (१) तप्तभट ( तातेड़) (२) बाप्पनाग (वाफना † ) (३) कर्णाट (करणावट) (४) बलाह ( रांका बांका सेठ) (५) श्रीश्रीमाल, (६) कुलभद्र (सूरा) (७) मोरख (पोकरणा ) (८) विरहट ( भूरंट) (९) श्रेष्टि (वैद्य मेहता) एवं नव गोत्र वाले स्नात्रीय प्रभु प्रतिमा के दक्षिण - जीमण तरफ पुजापा का सामान लिये खड़े थे । (१) सूचिति (संचेती) (२) आदित्यनाग (चोरड़िया 7 ) (३) भूरि (भटेवरा ) (४) भाद्रो (समदड़िया) (५) चिचट (देसरड़ा ) (६) कुमट (७) कन्या कुब्ज (कनोजिया) (८) डिडू (कोचर मेहता) (९) लघु श्रेष्ट (वर्धमाना) एवं नव स्नात्रीय पञ्चामृत लिए महाबीर मूर्ति के वाम डावे पासें खड़े थे । यह कथन केवल उपकेशपुर के महाजन संघ का ही है ''नाहटा, जांघड़ा, वैताला, पटवा, बलिया, दफ्तरी वगैरह । +गुलेच्छा, पारख, गदइया, सावसुखा, बुचा नाबरिया चौधरी दफ्तरी वगैरह भी आदित्यनाग गौत्र की शाखाएं हैं। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसमें भी स्नात्रीय बने थे उन्हों के गौत्र है पर इनके सिवाय उपकेशपुर में तथा अन्य स्थानों में बसने वाले महाजनों के क्या क्या गोत्र होंगे उनका उल्लेख नहीं मिलता है तथापि सम्भव है कि इतने विशाल संघ में तथा तीन सौ वर्ष जितने लम्बे समय में कई गोत्र हुए ही होंगे । यदि खोज करने पर पता मिलेगा उनको भविष्य में प्रकाशित करवाया जायगा। उपरोक्त गोत्र एवं जातियों के अलावा भी जैनाचार्यों ने राज पूतादि जातियों की शुद्धि कर महाजन संघ (ओसवाल वंश) में शामिल मिला कर उसकी वृद्धि की थी जैसे कि-- १-आर्य गोत्र- लुनावत शाखा-वि. सं. ६८४ आचार्य देवगुप्तसूरि ने सिन्ध कारावगौसलभाटी को प्रतिबोध कर जैन वना कर ओसवंश में शामिल किया जिन्हों का खुर्शीनामा और धर्म कृत्य की नामावली जैन जाति महोदय द्वितीयखण्ड में दी जायगी- "खरतर गच्छीय यति रामलालजी ने महाजन वंश मुक्तावली पृष्ट ३३ में कल्पित कथा लिख वि० सं० १९८ में तथा यति श्रीशलजी ने वि० सं० ११७५ में जिनदत्त सूरि ने आर्य गोत्र बनाया घसीट मारा है। यह बिल. कुल गप्प है। इससे पांच सौ वर्षों के इतिहास का खून होता है। - २-भंडारी-वि. सं. १०३९ में आचार्य यशोभद्र सूरि ने नाडोल के राव लाखण का लघुभाई राव दुद्धको प्रतिबोध कर जैन बनाया । बाद माता श्राशापुरी के भण्डार का काम करने से भंडारी कहलाया जैतारण, सोजत और जोधपुर के भण्डारियों के पास अपना खुर्शीनाम आज भी विद्यमान है । "खरतर० यति रामलालजी ने म्हा० मुक्त० पृष्ठ ६९ पर लिखा है किं वि० सं० १४७८ में खरतराचार्य जिनभद्रसूरि ने नाडोल के राव लाखण के Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेसादि ६ पुत्रों को प्रतिबोध दे कर भण्डारी बनाया मूल गच्छ खरतर है। ... कसौटी-पं. गौरीशंकरजी ओझा ने राजपूताना का इतिहास में लिखा है कि वि. सं. १०२४ में राव लाखण शाकम्भरी (सांभर) से नाडोल आकर अपनी राजधानी कायम की फिर समझ में नहीं आता है कि यतिजी ने यह सफेद गप्प क्यों हांकी होगी कहाँ राव लाखण का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी और कहां भद्रसूरि का समय पंद्रहवीं शताब्दी ? क्या भण्डारी इतने अज्ञात हैं कि इस प्रकार गप्प पर विश्वास कर अपने इतिहास के लिए चार शताब्दी का खून कर डालेगा ? कदापि नहीं ३–संघी-वि. सं. १०२१ में आचार्य सर्व देवसूरि ने चन्द्रावती के पास ढेलड़िया ग्राम में पँवारराव संघराव आदि को प्रतिबोध देकर जैन बनाये संघराव का पुत्र विजयराव ने एक करोड़ द्रव्य व्यय कर सिद्धगिरि का संघ निकाला तथा संघ को सुवर्ण मोहरों की लेन दी और अपने ग्राम में श्री पार्श्वनाथजी का विशाल मंदिर बनवाया इत्यादि । संघराव की संतान संघी कहलाई। "खरतर-यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृष्ट ६९ पर लिखा है कि सिरोही राज में ननवाणा बोहरा सोनपाल के पुत्र को सांप काटा जिसका विष जिनवल्लभसूरि ने उतारा वि० सं० १९६४ में जैन बनाया मूल गच्छ खरतर-" कसौटी-जिनवल्लभसूरि के जीवन में ऐसा कहीं पर भी नहीं लिखा है कि उन्होंने संघी गौत्र बनाया दूसरा उस समय ननवाणा बोहरा भी नहीं थे कारण जोधपुर के पास दस मील पर ननवाण नामक प्राम है विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी में वहां से Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीवाल ब्राह्मण अन्यत्र जाकर वास करने से वे ननवाणा बोहरा कहलाया फिर ११६४ में ननवाणा बोहरा बतलाना यह गप्प नहीं तो क्या गप्प के बच्चे हैं ? ४ मुनौयत-जोधपुर के राजा रायपालजी के १३ पुत्र थे जिसमें चतुर्थ पुत्र मोहणजी थे वि० सं० १३०१ में आचार्य शिवसेनसूरिने मोहणजी आदि को उपदेश देकर जैन बनाये आपकी संतान मुणोयतो के नाम से मशहूर हुई मोहणजो के सतावीसबी पीढि में मेहताजी विजयसिंहजी हुए (देखो आपका जीवन चरित्र) _ "खरतर-यतिरामलालजी ने महा० मुक्ता० पृ० ९८ पर लिखा है कि 'वि० सं० १५९५ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने किसनगढ़ के राव रायमलजी के पुत्र मोहनजी को प्रतिवोध कर जैन वनाये मूलगच्छ खरतर-" कसौटी-मारवाड़ रोज के इतिहास में लिखा है कि जोधपुर के राजा उदयसिंहजी के पुत्र किसनसिंहजी ने वि० सं० १६६६ में किसनगढ़ वसाया यही बात भारत के प्राचीन राज वंश (राष्ट्रकूट) पृष्ट ३६८ पर ऐ० पं०विश्वेवरनाथ रेउ ने लिखी है जब किसनगढ़ ही वि० सं० १६६६ में वसा है तो वि० सं० १५९५ म किसनगढ़ के राजा रायमल के पुत्र मोहणजी को कैसे प्रतिबोध दिया क्या यह मुनोयतों के प्राचीन इतिहास का खून नहीं है ? यतिजी जिस किशनगढ़ के गजा रायपाल का स्वप्न देखा है उसको किसी इतिहास में बतलाने का कष्ठ करेगा ? __ ५ सुरांणा-वि० सं० ११३२ में प्राचार्य धर्मघोषसरि ने पंवार राव सुरा आदि को प्रतिबोध कर जैन बनाये जिसकी उत्पति Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) खुर्शीनामा नागोर के गुरो गोपीचन्दजी के पास विद्यमान हैं। सुरा की संतान सुरांगा कहलाई । "" " खरतर यति रामलालजी ने महा० मुक्ता० पृ० ४५ पर लिखा है कि. वि० सं० १९७५ में जिनदत्तसूरि ने सुराणा बनाया - मूलगच्छ खरतर कसौटी - यदि सुरांणां जिनदत्तसूरि प्रतिवोधित होते तो सुरांणागच्छ अलग क्यों होता जो चौरासी गच्छों में एक है उस समय दादाजी का शायद जन्म भी नहीं हुआ होगा अतएव खरतरों का लिखना एक उड़ती हुई गप्प 1 ६ झामड़ कावक - वि० सं० ९८८ आचार्य सर्वदेवसूर ने हथुड़ी के राठोड़ राव जगमालादिकों प्रतिबोध कर जैन बनाये इन्हों को उत्पत्ति वंशावली नागपुरिया तपागच्छ वालों के पास विस्तार से मिलती हैं । - " खरतर - यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृ० २१ पर लिखते हैं कि व० सं० १९७५ में खरतराचार्य मद्रसूरि ने झाबुआ के राठोड़ राजा को उपदेश देकर जैन बनाये मूलगच्छ खरतर 99 कसौटी - भारत का प्राचीन राजवंश नामक इतिहास पुस्तक के पृष्ठ ३६३ पर पं० विश्वेश्वरनाथ रेउ ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि: "यह झाबुआ नगर ईसवी सन् की १६ वीं शताब्दी में लाभाना जाति के झब्बू नायक ने बसाया था परन्तु वि० सं० १६६४ ( ई० सं० १६०७) में वादशाह जहाँगीर ने केसवदासजी (राठोड़) को उक्त प्रदेश का अधिकार देकर राजा की पदवी से भूषित किया ।" सभ्य समाज समझ सकता है कि वि० सं० १६६४ में Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाबुत्रा राठोड़ों के अधिकार में आया तब वि० सं० १५७५ में वहां राठोड़ों का राज कैसे हुआ होगा ? दूसरा जिनभद्रसूरि भी उस समय विद्यमान हो नहीं थे कारण उनके देहान्त वि० सं० १५५४ में होचुका था भावक लोग इस वीसवीं शताब्दी में इतने अज्ञात शायद् ही रहे हों कि इस प्रकार की गप्पों पर विश्वास कर सकें। भंवाल के झामड विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अन्य प्रदेश से आकर भंबाल में वास किया बहां से क्रमशः आज पर्यन्त की हिस्ट्री उन्हों के पास विद्यमान हैं अतएव खरतरों का लिखना सरासर गप्प है। ७ बाठिया-वि. सं. ९१२ में आचार्य भावदेवसूरि ने श्राबू के पास प्रमा स्थान के राव माघुदेव को प्रतिबोध कर जैन बनाया उन्होंने श्री सिद्धाचल का संघ निकाला बांठ २ पर आदमी और उन सब को पैरामणि देने से बांठिया कहलाये बाद वि० सं० १३४० रत्नाशाह से कवाड़ वि० सं० १६३१ हरखाजी से शाहहरखावत हुए इत्यादि इस जाति की उत्पत्ति एवं खुशींनाम शुरू से श्रीमान् धनरूपमलजी शाह अजमेर वालों के तथा कल्याणमलजी वाठिया नागौर वालों के पास मौजूद है। - "ख०-यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृष्ठ २२ पर लिखते हैं कि वि० सं० ११६७ में जिनवल्लभसूरि ने रणथंभोर के पँवार राजा जालसिंह का उपदेश दे जैन बनाया मूल गच्छ खरतर-विशेषता यह है कि वाठिया ब्रह्मेच शाह हरखावत वगैरह सब शाखाए लालसिंह के पुत्रों सेहो निकली बतलाते हैं।" ___ कसौटी-कहाँ तो वि० सं० ९१२ का समय और कहाँ ११६७ का समय । कवाड़ शाखा का समय १३४० का है तथा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) शाह हरखावत का समय वि० सं० १६३१ का है जिसको खरतरों ने वि० सं० ११६७ का बतलाया हैं इस जाति की उत्पत्ति के लिये तो खरतरों ने एक गप्पों का खजाना ही खोल दिया है पर क्या करें विचारे ! यतियों की इस प्रकार गप्पों पर कोई भी बाठिया शाह हरखावत कवाड़ विश्वास ही नहीं करते हैं । ८ - बोथरा - वि० सं० १०१३ में कोरंट गच्छाचार्य नन्नप्रभसूरि ने श्राबु के आस पास विहार कर बहुत से राजपूतों को प्रतिबोध कर जैन बनाये जिसमें मुख्य पुरुष राव धांधल चौहन था धांधल के पुत्र सुरजन-सुरजन के सांगण और सांगण के पुत्र राव बोहत्थ हुआ बोहत्थ ने चन्द्रावती में एक जैन मंदिर बनाया और श्री शत्रुंजय का विराट्रसंघ निकाल सर्व तीर्थों की यात्रा कर सोना की थाली और जनौर की लेन दी जिसमें सवा करोड़ द्रव्य खर्च हुआ अतः बोहत्थ की सन्तान से बोत्थरा कहलाये । " खरतर० यति रामलालजी ने महा० मुक्ता० पृष्ठ ५१ पर लिखा है कि जालौर का राजा सावंतसिंह देवाड़ा के दो राणियां थी एक का पुत्र सागर दूसरी का वीरमदेव, जालौर का राज वीरमदेव को मिला तब सागर अपनी माता को लेकर आबु अपना नाना राजा भीम पँवार के पास चला गया, राजा भीम ने आबु का राज सागर को दे दिया। उस समय चित्तौड़ का राणा रत्न सिंह पर मालवा का बादशाह फौज लेकर आया राणा ने आबु से सागर को मदद के लिये बुलाया, सागर बादशाह को पराजय कर मालवा छीन लिया। बाद गुजरात के बादशाह ने आबु पर आक्रमण किया सागर ने उसको हटा कर गुजरात भी छीन लिया ! बाद देहली का बादशाह गौरीशाह चितोड़ पर चढ़ आया फिर चितोड़ वालों ने सागर को बुलाया, सागर ने वहाँ आकर आपस में समझौता करवा कर बादशाह से २२ लाख रुपये दंड के लेकर मालवा- गुजरात वापिस दे दिया Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर के तीन पुत्र-१ बोहित्थ २ गंगादास ३ जयसिंह भाबु का राज बोहित्थ को मिला वि० स० ११९७ में जिनदत्तसूरि ने बोहित्य को उपदेश दिया बोहित्थ ने एक श्रीकर्ण नामक पुत्र को राज के लिये छोड़ दिया शेष पुत्रों के साथ आप जैन बन गया जिसका बोत्थरा गौत्र स्थापन किया इतना ही क्यों पा जिनदत्त सूरि ने तो यहाँ तक कह दिया कि तुम खरतरों को मानोगे तब तक तुम्हारा उदय होगा इत्यादि। ___ कसौटी-बोहित्य का समय वि० सं० ११९७ का है तब इसके पिता सागर का समय ११७० का होगा। चित्तौड़ का राणां रत्नसिंह सागर को अपनी मदद में बुलाता है अब पहला तो चित्तौड़ के राणा रत्नसिंह का समय को देखना है कि वह सागर के समय चितोड़ पर राज करता था या किसी अन्य गति में था। ___चित्तौड़ राणाओं का इतिहास में रत्नसिंह नाम के दो राजा हुए ( १ ) वि० सं० १३५९ ( दरीबे का शिला लेख) दूसरा वि० सं० १५८४ में तख्त निशीन हुआ जब सागर का समय वि० सं० ११७० का कहा जाता है समझ में नहीं आता है कि ११७० में राणा सागर हुआ और १३५९ में रत्नसिंह हुआ तो रत्नसिंह सागर की मदद के लिये किस भव में बुलाया होगा ? अब वि०सं० ११७० के आस पास चित्तौड़ के रांणों की वंशावली भी देख लीजिये । चितोड़ के राणा आबु का सागर के समय बैरिसिंह वि० सं० ११४३ चित्तौड़ पर कोई रत्नसिंह नाम विजयसिंह ,, ,, ११६४ का रांा हुआ ही नहीं है यतिजी अरिसिंह , , ११८४ / ने यह एक बिना शिर पैर की चौड़सिंह , , ११९५ / गप्प ही मारी है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) आगे चल कर सागर का पिता सावंतसिंह देवड़ा का जालौर पर राज होना यतिजी ने लिखा है इसमें सत्यता कितनी है ? सावंतसिंह सागर का पिता होने से उपका समय वि० सं० ११५० के आस पास का होना चाहिये क्योंकि सागर का समय वि० सं० ११७० का है यतिजी का लिखा हुआ वि० सं० ११५० में सावंतसिंह देवड़ा तो क्या पर देवडा शाखा का प्रार्दुभाव तक भी नहीं हुआ था वास्तव में दवेडा शाखा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में चौहान देवराज से निकली है जब यतिजी वि० सं० ११५० के आस पास जालौर पर सावंतसिंह देवडा का राज बत लाते हैं यह भी एक सफेद गप्प ही है। अब वि० सं० ११५० के आस पास जालौर पर किसका राज था इसका निर्णय के लिये जालोर का किल्ला में तोपखान के पास भीत में एक शिला लेख लगा हुआ है उसमें जालौर के राजाओं की नामावली इस प्रकार दी है। जालौर के पँवारराजा विशलदेव का उत्तराधिकारी पँवार चन्दन कुन्तपाल वि० सं० १२३६ तक जालौर देवराज पर राज किया बाद नाडोल का चौहान अप्राजित कीर्तिपाल ने पँवारों से जालौर का राज विजय | छीन कर अपना अधिकार जमा लिया । धारा वर्ष सभ्य समाज समझ सकते हैं कि विक्रम विशल देव (११७४) | की ग्यारवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक जालौर पर पँवारों का राज रहा था जिसका प्रमाण वहाँ का शिला लेख दे रहा है फिर यतिजी ने यह अनर्गल गप्प क्यों यारी है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) अब आगे चल कर आबु की यात्रा कीजिये कि आबु पर चौहानों का राज किस समय से हुआ जो यतिजी ने वि० सं० १९७० के आस पास राजा सागर देवड़ा । हम यहां पहला तो आबु के पँवार जो शिला लेखों के आधार पर स्थिर हुई ओमा ने सिरोही राज का इतिहास में लिखी है बतला देते हैं । का राज होना लिखा राजाओं की वंशावलि और पं० गौरीशंकरजी आबु के पँवार राजा धक वि० सं० १०७८ ११०२ ११२३ पूर्णपाल कान्हादेव, धूवभट रामदेव विक्रम ! यशोधवल f "" धारावष "3 १२०१ इस आबु नरेशों में किसी स्थान पर देवड़ा सागर की गन्ध तक भी नहीं मिलती है अतएव यतिजी का लिखना एक उड़ती गप्प है कि “वि० सं० १९७० के आस पास आबु पर पँवार भीम का राज था और उसके पुत्र न होने से अपनी पुत्री का पुत्र सागर देवड़ा को आबु का राज दे दिया था । " बाबु पर चौहानों का राज कब से हुआ पं० गौरीशंकरजी ओझा सिरोही राज के इतिहास में लिखते हैं कि नाडोल का कीर्तिपाल चौहान वि० सं० १२३६. जालौर पर अपना अधिकार जमाया। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ) ... जिसका वंशवृक्ष कीर्तिपाल संग्रामसिंह उदयसिंह (जालोर पर) मानसिंह (सिरोही गया) प्रतापसिंह विजल महाराव लुभा (आबु का राजा हुआ) इस खुर्शी नामा से स्पष्ट सिद्ध होता है कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में सिरोही के चौहान आबु के पँवारों से बाबु का राज छीन कर अपना अधिकार जमाया था जिसको यतिजी ने बारहवी शताब्दी लिख मारी है बलीहारी है यतियों के गप्प पुराण की अब सागर रांणा और मालवा का बादशाह का समय का अवलोकन कीजिये यतिजी ने सागर का समय वि० सं० ११७० के आस पास का लिखा है और "चितोड़ पर मालवा का बादशाह चढ़ पाया तब चितोड़ का राणा अपनी मदद के लिये आबु से सागर देवड़ा को बुलाया और सागर ने बादशाह को पराजय कर उससे मालवा छीन लिया।" Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) यह भी एक उड़ती गप्प ही है क्यों कि न तो उस समय चित्तोड पर राणा रत्नसिंह का राज था और न मालवा में किसी बादशाह का राज ही था वि० सं० १३५६ तक मालवा में पवार राजा जयसिंह का राज था (देखो भारत का प्राचीन राजवंश) इसी प्रकार सागर देवड़ा के साथ गुजरात के बादशाह की कथा घड़ निकाली है गुजरात में वि० सं० १३५८ तक बाघला वंश के राजा करण का राज था बाद में बादशाह के अधिकार में गुजरात चलाया गया । (देखो पाटण का इतिहास ) इसी भांति सागर देवड़ा के साथ देहली बादशाह का घ टित सम्बन्ध जोड़ दिया है सागर का समय वि० स० ११७० के आस पास का है तब देहली पर वि० सं० १२४९ तक हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान का राज था फिर समझ में नहीं आता है कि यतिजा ऐसी असम्बन्धिक बातें लिख सभ्य समाज में हाँसी के पात्र क्यों बनते हैं क्या इस वीसवी शताब्दी के बोत्थरा बच्छावत इतने अज्ञात हैं कि यतिजी के इस प्रकार की गप्पों पर विश्वास कर अपने प्रतिबोधक कोरंटगच्छाचार्यों को भूल कर कृतघ्नी बन जाय ? " खरतर लोग कहा करते हैं कि हमारी वंशावलियों की बहिंयो बीकानेर में कर्मचन्द वच्छावत ने कुँत्रा में डाल कर नष्ट कर डाली इत्यादि ।” शायद इसका कारण यह ही तो न होगा कि उपरोक्त खरतरों की लिखी हुई बोथरों की उत्पति कर्मचन्द पढ़ी हो और उनको वे कल्पित गप्पें मालुम हुइ हो तथा वह समझ गया हो कि हमारे प्रतिबोधक आचार्य कोरंटगच्छ के हैं केवल अधिक परिचय के कारण हम खरतरगच्छ की क्रिया करने के लिये ही खरतरों ने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम लोगों को मुठ मूट ही खरतर बनाने को मिथ्या कल्पना कर डाली हैं अतएव खरतरों की सब की सब वंशावलियों कुँवा में डाल कर अपनी संतान को सदा के लिये सुखी बनाइ हो ? खैर कुछ भी हो पर खरतरों की उपरोक्त लिखी हुई बोत्थरों की उत्पति तो बिलकुल कल्पित है इस विषय में “जैन जाति निर्णय " नामक किताब को देखनी चाहिये कि जिस में विस्तार से समालोचना की गई है। वास्तव में रॉणो सागर महाराणा प्रताप का लघुभाई था और इसका समय विक्रम की सतरहवी शनान्दी का है और सावंतसिंह देवड़ा विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में हुआ है खरतरों ने शिशोदा और देवड़ा को बार बेटा बना कर यह ढंचा खडा किया है और यह कल्पित ढचा खड़ा करते समय यतियों को यह भान नहीं था कि इसकी समालोचना करने वाला भी कोई मिलेगा। खैर । इस समय खरतरगच्छ की सात पट्टावलियां मेरे पास मौजूद हैं जिसमें किसी भी पट्ठावलि में यह नहीं लिखा है कि जिनदत्तसरी ने बोत्थरा जाति बनाई थी। पर उन पट्टावलियों से तो उलटा यही सिद्ध होता है कि दादाजी के पूर्व बोत्थरा जाति विद्यमान थी। जैसे खरतरगच्छीय क्षमा कल्याणजी ने वि० सं० १८३० में खरतरगच्छ पट्टावली लिखी है उसमे लिखा है कि तथा अणहिल्लपत्तने बोहित्थरा गौत्रीय श्रावकेभ्यो जयति हुण वर कापरुक्ख' इति स्तोत्र दत्तम् ___अर्थात् जिनदत्तसरि ने अणहिल पट्टन में बोत्थोरा को स्तोत्र दिया इससे यही ज्ञात होता है कि जिनदत्तसूर के पुर्व पाटण में बोत्थरा विद्यमान थे। अत एव बोत्थरा कोरंटगच्छीय आचार्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) नन्नप्रभसूरि प्रतिबोधित कोरंटगच्छ के श्रावक हैं। क्रिया के विषय मे अहां जिसका अधिक परिचय था वहां उन्होंकी क्रिया करने लग गये थे पर बोत्थरों का मूलगक्छ तो कोरंटगच्छ ही है। _____९-चोपड़ा-वि० सं० ८८५ में आचार्य देवगुप्तसरि ने कनौज के राठोड़ अडकमल को उपदेश देकर जैन बनाया कुकुम गणधर धूपिया इस जाति की शाखाए हैं । "खरतर यति रामलालजी चोपड़ा जाति को जिनदत्तसरि और श्रीपालजी वि० सं० ११५२ में जिनवल्लभ सूरि ने मंडौर का नानदेव प्रतिहार-इन्दा शाखा को प्रतिबोध कर जैन बनाया लिखा है।" ____कसौटी-अव्वलतो प्रतिहारों में उस समय इन्दा शाखा का जन्म तक भी नहीं हुआ था देखिये प्रतिहारों का इतिहास बसला रहा है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में नाहडराव (नागभह) प्रसिद्ध प्रतिहार हुआ उसकी पांचवीं पिढ़ी में राव आम यक हुआ उसके १२ पुत्रों से इन्दा नाम का पुत्र की सन्तान इन्दा कहलाई थी अतएव वि० सं० ११५२ में इन्दा शाखा ही नहीं थी दूसरा मंडोर के राजाओं में उस समय नानुदेव नाम का कोइ राजा ही नहीं हुआ प्रतिहारों की वंशावली इस बात को सावित करती है जैसे कि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंडोर के प्रतिहार राव रघुराज सं० ११०३ सेज्हाराज संबरराज 1 भवतिराज 1 अखेराज ७ I नाहड़राव ( वि० सं० १२१२ ) (, १६ ) इस में ११०३ से १२१२ तक कोई भी नानुदेव राजा नहीं हुआ है खरतरों को इतिहास की क्या परवाह है उन को तो किसी न किसी गप्प गोला चला कर श्रोसवालों की प्रायः सब जातियों* को खरतर बनाना है पर क्या करे * विचारे जमाना ही सत्य का एवं इतिहासका आगया कि खरतरों की गप्पे आकाश में उडती फरती हैं जैसे पाटण के बोत्थरों को स्तोत्र देकर दादाजी ने तथा आपके अनुयायियों ने बोत्थरों को अपने भक्त समझा हैं वैसे ही मडेता के चोपड़ो को “उपसग्गहरं पास" नामक स्तोत्र देकर अपने पक्ष में बनालियाहों इस बात का उल्लेख खरतर० क्षमाकल्याणजी ने अपनी पट्टवलियें में भी किया हैं बस ! खरतरों ने इस प्रकर यंत्र - स्तोत्र देकर भद्रिक लोगों को कृतघ्नी बनाये हैं वास्तव में चोपड़ा उपकेश गच्छीय श्रावक हैं । १० -- छाजेड़ वि० सं० ९४२ में आचार्य सिद्धसूरि ने शिवगढ़ के राठोड़राव कजल को उपदेश देकर जैन बनाये कजल के पुत्र धवल और धवल के पुत्र छजू हुआ छजूने शिवगढ़ में भगवान् पार्श्वनाथ का विशाल मन्दिर बनाया बाद शत्रुजयादि तीर्थों का संघ निकाला जिस में सोना की कटोरियों में एक एक मोहर रख लेख दी इत्यादि शुभ क्षेत्र में करोड़ों रुपये खर्च किये उस छ की सन्तान छाजेड़ कहलाई । vad Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "खरतर यति रामलालजी महा० मुक्ता० पृ० ६८ पर लिखते हैं कि वि. सं. १२१५ में जिनचन्द्रसूरि ने धांधल शाखा के राठोड रामदेव का पुत्र काजल को ऐसा वास चूर्ण दिया कि उसने अपने मकान के देवी मन्दिर के तथा जिनमन्दिर के छाजों पर वह वास चूर्ण डालते ही सब छाजे सोने के हो गये इस लिये वे छाजेड़ कहलाये इत्यादि ।” ___ कसौटी-वासचूर्ण देने वालों में इतनी उदारता न होगी या काजल का हृदय संकीर्ण होगा ? यदि वह वासचूर्ण सब मन्दिर पर डाल देता तो कलिकाल का भरतेश्वर ही बन जाता ? ऐसा चमत्कारी चूर्ण देने वालों की मौजूदगी में मुसलमानों ने सैकड़ों मन्दिर एवं हजारों मूर्तियों को तोड़ डाले यह एक आश्चर्य की बात है खैर आगे चल कर राठोड़ो में धांधल शाखा को देखिये जिनचन्द्र सूरी के समय (वि० सं० १२१५) में विद्यमान थी या खरतरों ने गप्प ही मारी हैं ? राठोड़ों का इतिहास डंका की चोट कहता है कि विक्रम की चौदहवी शताब्दी में राठीड़ राव बासस्थानजी के पुत्र धांधल से राठोड़ों में धांधल शाखा का जन्महुश्रा तब वि० १२१५ में जिनचन्द्रसूरी किसको उपदेश दिया यह गप्प नहीं वो क्या गप्प के बच्चे हैं। . ___११- बाफना-इनका मूल गौत्र बाप्पनाग है और इसके प्रतिबोधक वीरात ७० वर्षे प्राचार्य रनप्रभसूरी हैं नाहाट जांघड़ा बेवाला दफ्तरी बालिया पटवा वगेरह बाप्पनाग गौत्र की शाखाए हैं। "खरतर यति रामलालजी मा० मु० पृ ३४ पर लिखते है कि धारानगरी के राजा पृथ्वीधर पवार की सोलहवीं पिदि पर जवम और सब नामके दो नर हुए वे धारा से निकल जालौर फते कर वहाँ गज करने लगे xxनिनवल्लभ सूरि ने इनको विजययंत्र दिया था जिनदतसूरिने इनको Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) उपदेश कर जैन बनाये बापना गौत्र स्थापन किया तथा पूर्व रत्नप्रभसूरि द्वारा स्थापित बाफना गौत्र भी इनमें मिलगया इत्यादि" . ___कसौटी-इस घटना का समय जिनवल्लभ सरि और जिनदत्त सूरि से संबन्ध रखता हैं अतएव वि०सं० ११७० के आस पास का समझा जासकता है उस समय धारा या जालौर पर कोई खवन सञ्चू नामक व्यक्ति का अस्तित्व था या नहीं इस के लिये हम यहाँ दोनों स्थानों की वंशावलियों का उल्लेख कर देते है बालौर के पवार' राजा । धारा के पँवार राजा चन्दन राजा नर वर्मा (वि० सं० ११६४) देवराज यशोवर्मा ( ,, . ११९२) अप्राजित जयवर्मा धारावर्ष ।. विजल विजल . लक्षणवर्मा ( , ६२००) हरिचन्द्र (, १२३६) विशालदेव ( वि. ११७४ ) (जालोर तोपखाना का शिलालेख) । (पॅवारों का इतिहास से ) कुंतपाल (वि० १२३६ ) जालौर और धारा के राजाओं में जवन सच्चू की गन्ध तक भी नहीं मिलती है फिर समझ में नहीं आता है कि यतिजी ने यह गप्प क्यों हांक दी होगी ? ____आचार्य रत्नप्रभसूरि ने बाफना पहिला बनाया था तो यतिजी लिखते ही हैं फिर दादाजी ने बाफना गौत्र क्यों स्थापित किया और Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) • जवन सच्चू के साथ बाफनों का कोई खास तौर परासम्बन्ध भी नहीं पाया जाता है। वि० सं० १८९१ में जैसलमेर के पटवों ( वाफनों ) ने श@जय का संघ निकाला उस समय चासक्षेप देने का खरतरों ने व्यर्थी ही झगड़ा खड़ा किया जिसका इन्साफ वहाँ के रावल राजा गजसिंह ने दिया कि बाफना उपकेशगच्छ के ही श्रावक हैं वासक्षेप देने का अधिकार उपकेशगच्छ वालों का ही है विस्तार से देखो जैन जाति निर्णय नाम्ककिताब । १२ राखेचा-वि० सं० ८७८ में आचार्य देवगुप्तासूरि ने कालेरा का भाटीराव राखेचा को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसकी संतान राखेचा कहलाई पुंगलिया वगैरह इस जाति की शाखा है__"स्व. य० रा. म. मु. पृष्ठ ४२ पर लिखा है कि वि० सं० ११८७ में जिनदत्तसूरि ने जैसलमेर के भाटी जैतसी के पुत्र कल्हण का कुष्ट रोग मिटाकर जैन बनाकर राखेचा गौत्र स्थापन किया।" ____ कसौटी-खुद जैसलमेर ही वि० सं० १२१२ में भाटी जैसल ने आबाद किया तो फिर ११७८ में जैसलमेर का भाटी को जिनदत्तसूरि ने कैसे प्रतिबोध दिया होगा। बहारे यतियों तुमने गप्प मारने को सीमा भी नहीं रखो। . . १२-पोकरणा यह मोरख गौत्र की शाखा है और इनके प्रतिबोधक वीरन् ७० वर्षे आचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि हैं। "सर० य० रा० म० मु० पृष्ट ८३ पर लिखा है कि जिनदत्तसूरि का एक शिष्य पुष्कर के तलाब में डूबता हुआ एक पुरुष और एक विधवा भौरत को बचा कर उनको जैन बनाया और पोकरणा जाति स्थापन को । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) कसौटी-जिनदत्तसूरि का देहान्त वि० सं० १२११ में हुआ उस समय पूर्व की यह घटना होगा । तब पुष्कर का तलाब वि० सं० १२१२ में प्रतिहार नाहाडराव ने खुदाया बाद कई अर्सा से गोहों पैदा हुई होगी इस दशा में जिनदत्त सरि के शिष्य ने स्त्री पुरुष को गोहों से कैसे बचाया होगा यह भी एक गप्प ही है। १४-कोचर यह डिड् गौत्र की शाखा है और विक्रम की सोलहवी शताब्दी में मंडीर के डिडू गोत्रीय मेहपालजी का पुत्र कोचर था उसने राव सूजामी की अध्यक्षता में रह कर फलोदी शहर को आबाद किया कोचर जी की सन्तान कौचर कहलाई इसके मूल गौत्र डिडू है और इनके प्रतिवोधक वीरान ७० वर्षे आचार्य रत्नप्रभ सूरि ही थे। "ख० य. रा. म. मु. पृ० ८३ पर इधर उधर की असम्बंधित पाते लिख कर कौचरों को पहले उपकेशगच्छीय फिर तपा गच्छीय और बाद खरतरे लिख है इतना ही नहीं बल्कि कई ऐसी अघटित बाते लिख कर इतिहास का खून भी कर डाला है।" कसौटी- इस जाति के लिये देखो "जैन जाति निर्णय" नामक पुस्तक वहाँ बिस्तार से उल्लेख किया है । और कोचरों का उपकेश-गच्छ है। १५-चोरडिया यह अदित्यनाग गौत्र की शाखा हैं अदित्यनाग गौत्र प्राचार्य रत्नप्रभ सूरि स्थापित महाजन वंश को अठारह शाखा में एक है। ख. य० रा० म० मु. पृष्ट २३ पर लिखा है कि पूर्व देश में अंदेरी नगरी में राठोड़ राजा खरहत्य राज करता था उस समय यवन लोग काबली मुल्क लुट रहे थे राजा खरहत्थ अपने चार पुत्रों को लेकर वहाँ गया यवनों को भगा कर वापिस आया पर उनके चार पुत्र मुछित हो गये जिनदत्तसरि ने उन पुत्रों को अच्छा कर जैन बनाये ! इत्यादि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कसौटी-अब्बल तो चंदेरी पूर्व में नहीं पर बुलेन्दखंड में थी * दूसरा चंदेरी में राज राठौड़ों का नहीं पर चेदी वंशियों का होना इतिहास स्पष्ट बतला रहा हैं तीसरा उस समय भारत पर यवनों का आक्रमण हो रहा था जिसका बचाव करना तो एक विकट समीक्षा बन चुकी थी तब खरहत्थ अपने चार पुत्रों को लेकर काबली मुल्क का रक्षण करने को जाय यह बिल कुल ही असंभव बात है और काबली मुल्क को लूटने वाले यवन भी कोई गाडरियों नहीं थी कि चार लड़का उनको भगा दें। भले । यतिजी को पूछा जाय कि खरहस्थ के चार पुत्र यवनों को भगा दिया तो वे स्वयं मुच्छित कैसे हो गये और मुच्छित हो गये तो यजनों को कैसे भगा दिये यदि कहा जाय कि यवनों को भगाने के बाद मुच्छित हुए तो इसका कारण क्या ? कारण अपनी स्वस्थ्यावस्था में यवनों को भगाया हो तो फिर उनको मुच्छित किसने किया ? वा-वाह यतिजी यदि ऐसी गप्प नहीं लिख कर किसी थली के एवं पुराणा जमाना के मोथों को या भोली-भाली विधवाओं को एकान्त में बैठकर ऐसी बातें सुनाते तो इसकी कोड़ी दो कोड़ी की कीमत अवश्य हो सकती। खरतरों ने हाल ही में चोरड़ियों के विषय में एक ट्रक्ट लिखा है जिसमें विक्रम की चौदहवी शदाब्दी के दो शिलालेख 'जो चोरड़ियों के बनाई मूर्तियों की किसी खरतराचार्यों ने प्रतिष्ठा ----- --------- ----- हाल में खरतरों ने नयी शोध से खाच तान कर चन्देरी को पूर्व में होना बतलाया है पर इसमें कोई भी प्रमाण नहीं और न वहाँ राठौड़ों का राजा हो सावित होता है। . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) करवाई है' मुद्रित करवा कर दावा किया कि चोरडिया खरतर गच्छ के हैं ? ___चोरडिया जाति इतनी विशाल संख्या में एवं विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी कि जहाँ जिस गच्छ के आचार्यों का अधिक परिचय था उन्हों के द्वारा अपने बनाये मन्दिर की प्रतिष्टा करवा लेते थे केवल खरतर ही क्यों पर चौरड़ियों के बनाये मन्दिरों की प्रतिष्ठा मन्य भी कई गच्छो वालों ने करवाई है तो क्या वे सब गच्छ वाले यह कह सकेगा कि हमारे गच्छ के आचार्यों ने प्रतिष्टा करवाई वह जाति ही हमारे गच्छ की हो चुकी ? नहीं कदापि नहीं । 'हम चोरड़िया खरतर नहीं है' नामक ट्रक्ट में चोरडिया जाति के जो चार शिलालेख दिये हैं वे प्रतिष्टा के लिये नहीं पर उन शिलालेखों में चोरड़ियों का मूल गौत्र आदित्यनाग लिखा है मेरा खास अभिप्राय खरतरों को भान करने का था कि चोरड़ियों का मूल गौत्र आदित्यनाग हैं न की राजपूतों से जैन होते ही चोरडिया कहलाये जैसे खरतरों ने लिखा है। .. जैसे चोरड़ियों को अजैनों से जैन बनते ही चोरड़िया जाति का रूप दिया है वैसे गुलेच्छा पारख वगैरह को भी दे दिया है परन्तु इन आतियां के नाम संस्करण एक समय में नहीं किन्तु पृथक २ समय में हुए हैं इन सबका मल गौत्र आदित्यनाग है अतएव खरतरों की गत्पों पर कोई भी विश्वास न करे। __ १६ संचेती-यह सुंचिंति गौत्र की शाखा है इनके प्रतिबोधक वीरात ७० वर्ष आचार्य रत्नप्रभसूरि हुए हैं। ख. य० रा० म० मु० १० १४ पर लिखते हैं कि वि० सं० १०२६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) # वर्धमानसूरि ने देहली के सोनीगरा चौहान राजा का पुत्र वोहिथ के सांप का विष उतार जैन बनाया संचेती गौत्र स्थापित किया । कसौटी - अव्वल तो देहली पर उस समय चौहानों का - राज ही नहीं था दूसरा चौहानों में उस समय सोनीगरा शाखा भी नहीं थी इतिहास कहता है कि नाडोल का राव कीर्तिपाल वि सं १२३६ में जालौर का राज अपने अधिकार में कर > वहाँ की सोनीगरी पहाड़ी पर किल्ला बनाना आरम्भ किया उसके - बाद आपके उत्तराधिकारी संग्रामसिंह ने उस किल्ला को पूरा - करवाया जब से जालौर के चौहान सौनीगरा कहलाया जब चौहानों में सोनीगरा शाखा ही १२३६ के बाद में पैदा हुई तो १०२६ में देहली पर सोनीगरों का राज लिख मारना यह बिल - कुल मिथ्या गप्प नहीं तो और क्या है । इनके अलावा भी खरतरों ने जितनी जातियों को खरतर होना लिखा है वह सब के सब कल्पित गप्पें लिख कर विचारे भद्रिक लोगों को बड़ा भारी धोखा दिया है । इसके लिये 'जैन जाति निर्णय' देखना चाहिये । प्यारे खरतरों । न तो पूर्वोक्त जातियों एवं ओसवालों के लाटाओं के गाढ़े तुम्हारे वहाँ उतरेगा और न किसी दूसरों के वहाँ । जिस २ जातियों के जैसे - जैसे संस्कार जम गये हैं वह उसी प्रकार बरत रही हैं कई लिखे पढ़े लोग निर्णय कर सत्य का त्याग कर सत्य स्वीकार कर रहे हैं। इस हालत में इस प्रकार गप्पें लिखकर प्राचीन इतिहास का खून करने में तुमको क्या लाभ है स्मरण में रहे, अब अन्ध विश्वास का जमाना नहीं रहा है । यदि तुम्हारे अन्दर थोड़ा भी सत्यता का अंश हो तो मैंने जो नमूनाके Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) तौर पर कतिपय जातियों का बयान ऊपर लिखा है उसमें से एक भी जाति की अपने लिखी उत्पति को प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा सत्य कर बतलावे वरना अपनी भूल को सुधार लें। ____ अन्त में मैं इतना ही कह कर मेरा लेख को समाप्त कर देना चाहता हूँ कि मैंने यह लेख खण्डन मण्डन की नीति से नहीं लिखा पर इतिहास को सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखने की गरज से ही लिखा है और इसमें भी कारण भूत तो हमारे खरतर माई ही हैं यदि वे इस प्रकार भविष्य में भी प्रेरणा करते रहेंगे तो मुझे भी सेवा करने का शौभाग्य मिलता रहेगा । अस्तु । आशा है कि विद्वद् समाज इस से अवश्य लाभ उठावेंगा । नोट-मुझे इस समय खबर मिली है कि यतीजी ने 'महाजन वंश मुक्तावली' को कुछ सुधार के साथ द्वितीया वृत्ति छपवाई है यदि पुस्तक मिलगई तो उसको देख कर अवश्यकता हुई तो जैनजाति निर्गय की द्वितीया वृत्ति क्षीघ्र ही प्रकाशित करवाई नावगी जैन जाति निर्णय की सहायता से Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन जातियों के विषय खास पढ़ने काबिल अन्य किताबें १-जैन जति महोदय-सचित्र-प्रथम खण्ड पृष्ट 1000 चित्र 43 मूल्य रु०४) २-जैन जातियों का सचित्र इतिहास ( जैन जाति महोदय का तीसरा प्रकरण मूल्य / ) ३-ओसवाल ज्ञाति समय निर्णय ४-उपकेश वंश कविता मय (धीरजमलजी वछावत) ५-जैन जाति निर्णय प्रथम द्वितीयांक ६-धर्मवीर समरसिंह (श्रोसवालों की उत्पति और कई ऐति हासिक घटनाएं की हिस्ट्री का० ) 11) ७-राइदेवसी प्रतिक्रमण (कोचरों की हिस्ट्री है ) भेट ८-जैसलमेर का विराट् संघ (वैद्य मेहतों का इ०) ९-ओसवंश स्थापक आचार्य रत्नप्रभसूरि की जयन्ति १०-श्रोसवंशोत्पति विषयक शंकाओं का समाधान ११-प्राचीन इतिहास संग्रह भाग 7 वाँ (इसमें लोड़ा-बड़ा साजनों का इ०), १२-महाजन वंश का इतिहास (प्र० इ० सं० भाग 10 वाँ)) १३-जैन जातियों के गच्छों का इतिहास प्रथम भाग १४-प्रा७-राडदेवसी प्रतिक्रमण (कोचर गप्प पु०) 8 -जैसलमेर का विराट संघ (वै ऐति०) ९-ओसवंश स्थापक आचार्य रत्नश वंश) 17 १०-श्रोसवंशोत्पति विषयक शंका -प्राचीन इतिहास संग्रह भागारवाड) मु दी० दयालदासजी दौसावाला द्वारा आदर्श प्रिंटिंग प्रेस में छपी। 1